आखिर क्यों इतना आसान नहीं है मुनव्वर होना? समझें बोलती तस्वीरों से
मुनव्वर राना, हिंदी-उर्दू अदब का वो नाम, जिसने इश्क-मोहब्बत की भी शायरी की और फलसफे की भी, लेकिन सबसे ज्यादा मकबूलियत 'मां ' पर लिखने को लेकर पाई.
उनकी क़लम से जब भी मां के रिश्तों पर लिखने की गुजारिश होती तो बन्दिश की जमालियत को एक नई ऊंचाई मिलना लाजिमी सा हो जाता.
मुनव्वर मां को अपना महबूब मानते थे, जिसे लेकर उन्हें काफी आलोचना भी सहनी पड़ी.
उनका मानना था कि तुलसीदास जब भगवान राम को अपना प्रेम मान सकते हैं तो मैं अपनी मां को क्यों नहीं? मां-बेटे के रिश्तों को गजल में गूंथते हुए कागज पर उकेरने को उन्होंने जिस बखूबी से अंजाम दिया वह नायब ही है.
इस नायाब प्रतिभा के धनी मुनव्वर राना ने दुनिया को अलविदा कह दिया है. उन्होंने लखनऊ के पीजीआई में 71 साल की उम्र में आखिरी सांस ली.
साफगोई, संजीदगी, खालिसी और गहराई के बिना कोई बात कहना सैयद मुनव्वर अली (असल नाम) के लिए मानो नाकाबिल-ए-बर्दाश्त था.
उर्दू साहित्य के लिए 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे जा चुके राना साहब की पैदाइश 26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली में हुई.
उनके वालिद का नाम सैयद अनवर अली और वालिदा का आएशा खातून था. देश के बंटवारे के दौरान उनके ज्यादातर रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए थे.
लेकिन उनके वालिद ने हिंदुस्तान में रहने का फैसला किया. मुनव्वर ने अपने कई लख़्त-ए-जिगरों को जुदा होते देखा. इस दर्द का अक्स उनके अशआर में भी हमेशा झलका.