आज आपको बताते हैं बनारसी साड़ी का इतिहास, जानिए कैसे पड़ा इसका ये नाम

बनारसी साड़ी कैसे पड़ा नाम, उत्तर प्रदेश के बनारस, जौनपुर, चंदौली, आजमगढ़, मिर्जापुर और संत रविदासनगर जिले में बनारसी साड़ियां बनकर तैयार की जाती हैं.

इन साड़ियों को बनाने का कच्चा माल बनारस से आता है. बनारस में बड़ी संख्या में बुनकर इन साड़ियों को बनाकर तैयार करते हैं.

आसपास के इलाकों में यहीं से साड़ियों के लिए जरी और रेशम पहुंचता है. इसीलिए इन साड़ियों का नाम बनारसी साड़ी पड़ा है.

बनारसी साड़ी के लिए रेशम की साड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है. इन्हें बनारस में बुनाई और ज़री के डिजाइन मिलाकर बुना जाता है. इस साड़ी में पहले सोने की जरी का इस्तेमाल किया जाता था.

हाथ से एक साड़ी को बनाने में 3 कारीगरों की मेहनत लगती है. तब जाकर एक सुंदर बनारसी साड़ी तैयार होती है.

बनारसी साड़ी में कई तरह के नमूने जिन्हें 'मोटिफ' कहते हैं इनका इस्तेमाल होता है. जो प्रमुख मोटिफ हैं वो बूटी, बूटा, कोनिया, बेल, जाल और जंगला, झालर हैं जो आज भी बनारसी साड़ी की पहचान हैं.

बनारसी साड़ी की ये वस्त्र कला भारत में मुगलों के समय उनके साथ आई. इरान, इराक, बुखारा शरीफ से आए कारीगर इस डिजाइन को बुनते थे.

मुगल पटका, शेरवानी, पगड़ी, साफा, दुपट्टे, बैड-शीट, और मसन्द पर इस कला का उपयोग करते थे,

लेकिन भारत में साड़ी पहनने का चलन था, इसलिए धीरे-धीरे हथकरघा (Handloom) के कारीगरों ने इस डिजाइन को साड़ियों में उतार दिया. इसमें रेशम और जरी के धागों का इस्तेमाल किया जाता है.