भारत की एक ऐसी अनोखी जगह जहां बाराती खुद पकाते हैं खाना!”
दहेज प्रथा ने ना जाने कितने घर उजाड़े हैं और दहेज ना भी हो तो आजकल शादी में लाखों-करोड़ों खर्च करना आम बात है.
ऐसे में आपको जानकर हैरानी होगी कि आज भी आदिवासी समाज में दहेज का नामों-निशान नहीं है उल्टा बाराती अपने साथ खाना लेकर आते हैं. जानते हैं इस अजब-गजब रस्म के बारे में.
झारखंड की राजधानी रांची के जाने माने साहित्यकार राबीलाल बताते हैं, हमारे आदिवासी समाज में दहेज का नामों-निशान नहीं है और न ही हमारे यहां भ्रूण हत्या होती है. हम बेटियों को देवी का दर्जा देते हैं
बेटी होने पर बेटों से ज्यादा हर्षो-उल्लास और जश्न मनाया जाता है, ढोल-नगाड़े बजते हैं. हमारे समाज में बेटी होना बहुत पवित्र और गर्व का बात होती है इसीलिए दहेज जैसी भी कोई प्रथा नहीं है.
बल्कि, अगर वधू पक्ष काफी कमजोर है और बारातियों को खाना खिलाने में सक्षम नहीं है तो ऐसे में खुद बाराती अपने साथ खाने का पूरा इंतजाम करके आते हैं. वे शादी के बाद खाना बनाते हैं और सारे लोग एक साथ मिल बैठकर खाते हैं.
उन्होंने बताया, वधू पक्ष ने अगर तीन रुपये का भोज देना स्वीकार किया तो इसका अर्थ है कि कन्या पक्ष बरातियों को कुछ खिला नहीं सकता. तब वर पक्ष ही भोजन की व्यवस्था करेगा. बाराती अपना भोजन खुद लेकर जाएंगे.
अगर वधू पक्ष ने पांच रुपये का भोज स्वीकार किया, तो बरातियों को एक समय खिलाया जाएगा. जो वधू पक्ष अमीर हैं और बारातियों को भोजन कराना चाहते हैं, तब 16 रुपये का भोज स्वीकार करते हैं. इसके तहत वधू पक्ष ही पूरी व्यवस्था करता है.
वधू पक्ष पर कोई भोज नहीं है. वह इसलिए क्योंकि कई बार भोज के समय वधू पक्ष पर बहुत बोझ बढ़ जाता है और ऐसे में माता-पिता भी थोड़े उदास हो जाते हैं.
लेकिन, हमारे समाज में यह परंपरा है कि जब बेटी को दें तो खुश होकर, बिना किसी बोझ व बिना किसी टेंशन के, आनंद से दें. यही कारण है कि उनको किसी भी तरीके की बाध्यता से दूर रखा जाता है.