दुश्मनी भुलाकर एक साथ आ रहे हैं ये मुस्लिम देश, क्या है इरादा?

दूसरे विश्व युद्ध के बाद से दुनिया दो हिस्सों में बट गई. एक हिस्सा जो संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के साथ खड़ा था, दूसरा USSR के.

कुछ भारत जैसे भी देश थे जिन्होंने बीच का रास्ता चुना और दोनों ही विचारधाराओं वाले देशों के साथ संबंधों में संतुलन बनाया.

फिर 1989 के बाद USSR का डाउनफॉल हुआ और 15 नए देश अस्तित्व में आए.

ये वो समय था जब मध्य पूर्व के देशों में तेल और गैस की तेजी से खोज हो रही थी, खाड़ी देशों में क्रांति से कमजोर हुए रूस का फायदा सीधे अमेरिका ने उठाया.

अमेरिका मुस्लिम देशों का बड़ा साथी बन गया और आज तक बड़े-बड़े मुस्लिम देशों के तेल और अन्य रिसोर्सिस पर अपना हिस्सा रखता है.

जानकार मानते हैं कि पश्चिमी देशों ने अपने इसी वर्चस्व को बरकरार रखने के लिए मुस्लिम देशों में ‘फूट डालो, राज करो’ वाली नीति भी अपनाई.

लेकिन अब स्थिति बदल रही है. मुस्लिम देशों का झुकाव चीन और रूस की तरफ होने के साथ-साथ

आपसी मतभेदों को भुला धार्मिक और सांस्कृतिक समानता देखते हुए अपनी एक अलग ताकत बनाने की ओर हो रहा है.

चाहे वो मध्य पूर्व की दो बड़ी ताकत ईरान और सऊदी अरब हों, दशकों से पानी और गैस पर लड़ते आ रहे

इराक और तुर्की हों या पाकिस्तान और ईरान हों, सभी मुस्लिम देश अमेरिकी लाइन से अलग हटकर आपसी मतभेद दूर कर रहे हैं.

विदेश मामलों के जानकार कमर आगा बताते हैं कि इस वक्त मुस्लिम देशों की जनता के अंदर बहुत चिंता और निराशा है.

फिलिस्तीन मुसलमानों की भावनाओं से जुड़ा मुद्दा है और अधिकतर खाड़ी देशों की सरकारें प्रो-अमेरिका हैं,

ऐसे में उनका इस मुद्दे पर लंबे समय तक चुप रहना उनके सत्ता में बने रहने के लिए खतरा बन सकता है.

एक तरह से इस समय मुस्लिम देशों का साथ आना एक मजबूरी बन गया है. हालांकि, कमर आगा आगे ये भी कहते हैं कि

उनको नहीं लगता कि मुस्लिम देशों के बीच दूरियां खत्म होने के बाद वे इजराइल के खिलाफ कोई बड़ा मोर्चा खोल सकते हैं.