कौन थे PAK के पहले कानूनी मंत्री, जिन्हें लौटना पड़ा था भारत, जानें नाम

भारत का एक दलित स्वतंत्रता सेनानी था जिसे आजादी के समय बंगाल विभाजन से बहुत तकलीफ हुई थी. 

उसे ना तो पाकिस्तान वाले पूर्वी बंगाल से दलितों के लिए कोई उम्मीद थी और ना ही भारत के हिंदू बहुल पश्चिम बंगाल से. इस धर्मसंकट के बीच उसने पूर्वी बंगाल को चुना. 

पाकिस्तान की संविधान सभा का अध्ययक्ष बना और फिर आजाद पाकिस्तान का पहले कानून और श्रम मंत्री बन गया. हम बात कर रहे हैं जोगेश्वर नाथ मंडल की. 

जोगेश्वर नाथ मंडल 1950 के शुरुआती दशक में भारत लौट आए थे. लेकिन ऐसा क्यों हुआ. इस घटना के अलावा उनकी पूरे जीवन की कहानी ही कुछ अलग ही हट कर है.

जोगेंद्रनाथ मंडल का जन्म ब्रिटिश इंडिया की बंगाल प्रेसिडेंसी के बैरीसाल जिले 29 जनवरी 1904 को हुआ था. पूर्वी बंगाल का हिस्सा रहा यह क्षेत्र पहले पूर्वी पाकिस्तान और आज यह बांग्लादेश का हिस्सा है. 

मंडल नामशूद्र समुदाय के व्यक्ति थे. बचपन में वे पढ़ाई में बहुत होशियार हुआ करते थे और फर्स्टक्लास में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने 1934 में कानून की पूरी की.

मंडल ने कानून की पढ़ाई तो की लेकिन उसे पेशे के तौर पर नहीं अपनाया. उन्होंने दलितों के अत्याचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई और अपना पूरा जीवन दलितों के उत्थान और समाज कल्याण के लिए लगाने का फैसला किया. 

मंडल पर सुभाष चंद्र बोस का गहरा प्रभाव था. बोस से कांग्रेस छोड़ने के बाद मंडल मुस्लिम लीग से जुड़ गए. वे डॉ बाबासाहेब अंबेडकर के अनुयायी थे और 1946 में अंबेडकर को संविधान सभा के चुनावों में बंगाल से जिताने में मंडल की बड़ी भूमिका थी. तब अंबेडकर बंबई से जीत हासिल नहीं कर सके थे. 

मंडल भी संविधान सभा के सदस्य थे और उनहोंने अंबेडकर  से परिचर्चाएं कर उन्हें सलाह देकर भारतीय संविधान के निर्माण में भी बड़ी भूमिका निभाई.

दलितों के मुद्दे पर कांग्रेस और 1946 के दंगों में उन्होंने पूर्वी बंगाल का दौरा किया और दलितों ने मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा ना करने का आग्रह किया. क्योंकि वे मुस्लिमों को भी दलितों की तरह हिंदू उच्च जातियों के शोषण का शिकार मानते थे.

अक्टूबर 1946 में अंतरिम भारत सरकार में जिन्ना ने मंडल को लीग के पांच प्रतिनिधियों में से एक के तौर पर चुना और उन्होंने कानून मंत्रालय चुना. 

बंटवारे के बाद मंडल पाकिस्तान चले गए वाहं वे सविधान सभा के सदस्य होने का साथ अस्थायी अध्यक्ष बने और उन्हें पाकिस्तान का पहला श्रम और कानून मंत्रालय भी दिया गया.

लेकिन कराची जाने का बाद उन्होंने पाकिस्तान में भी दलितों के साथ भारी भेदभाव देखा और हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की खबरों ने उन्हें खासा परेशान किया. सितंबर 1948 में जिन्ना  की मौत के बाद उनका महत्व पाकिस्तानी सरकार में कम हो गया. 

पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से उन्होंने बहुत गुजारिश कर हिंदुओं और दलितों की समस्या की ओर ध्यान देने को कहा, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला.  आखिर 1950 उन्होंने पाकिस्तान सरकार से इस्तीफा दे दिया और वे भारत लौट आए.