अंतरिक्ष में जाने के लिए हम बड़े-बड़े रॉकेट का इस्तेमाल करते हैं. एक रॉकेट बनाने में एक प्लेन से कई गुणा ज्यादा पैसा और समय खर्च होता है.
दोनों आसमान में उड़ते हैं, फिर एक प्लेन और स्पेस रॉकेट में क्या अंतर है कि प्लेन कभी आसमान को चीर कर अंतरिक्ष में नहीं जा सकता?
प्लेन की लंबी-चौड़ी विंग्स उसे उड़ने में मदद करती है, इसके अलावा इंजन उसे फोर्स देता है, जिसके चलते प्लेन हवा में आगे बढ़ता है. इसके लिए विमान को आसपास की हवा की जरूरत होती है.
सभी प्लेन की बनावट और क्षमता के हिसाब से उसका एल्टिट्यूड निर्धारित होता है. कॉमर्शियल प्लेन आमतौर पर 45,000 फीट की ऊंचाई तक ही उड़ते हैं. वहीं कुछ जेट प्लेन 51,000 फीट तक उड़ सकते हैं.
लेकिन 51,000 फीट से ऊपर किसी भी प्लेन का उड़ना संभव नहीं होता है. इससे ऊपर जाने पर प्लेन क्रैश हो जाता है. ये सब ऐटमॉसफेरिक प्रेशर के कारण होता है.
प्लेन जब सामान्य सतह से ऊपर जाता है तो हवा की कमी के कारण प्लेन का इंजन सही से काम नहीं करता है. ऐसे में प्लेन के विंग्स सही से काम नहीं कर पाते हैं.
ऑक्सीजन की कमी के कारण ईंधन का दहन संभव नहीं हो पाता है. जिसके चलते प्लेन 51,000 फीट से ऊपर जाने पर अस्थिर हो जाएगा और कुछ देर बाद नीचे गिरने लगेगा और क्रैश हो जाएगा.
दूसरी ओर रॉकेट में फ्यूल के साथ उसे बर्न करने के लिए ऑक्सीजन टैंक लगे होते हैं, जिसके चलते किसी भी परिस्थिति में वह आराम से उड़ पाता है. हालांकि इन सब चीजों के चलते स्पेस रॉकेट काफी भारी हो जाता है.
किसी भी वस्तु को स्पेस में जाने के लिए धरती की एस्केप वेलोसिटी को पार करना होता है. इसके लिए धरती के गुरुत्वाकर्षण बल से आगे निकलना पड़ेगा.
मतलब किसी भी एयरक्राफ्ट को धरती के गुरुत्वाकर्षण से आगे निकलने के लिए 12 किलोमीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से उड़ान भरनी होगी.
स्पेस रॉकेट को इस गति से आगे बढ़ने के लिए अपने साथ ढेर सारा फ्यूल और ऑक्सीजन ले जाना पड़ता है, जिसके चलते रॉकेट भारी हो जाता है.