क्यों कही थी भीमराव आंबेडकर ने संविधान जलाने की बात?
आजादी के बाद भारत को लोकतांत्रिक देश बनाने में बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की अहम भूमिका थी, क्योंकि संविधान निर्माण में उनका बड़ा रोल था.
2 सितंबर 1953 की बात है, राज्यसभा में बहस चल रही थी संविधान संशोधन को लेकर और बाबा साहब राज्यपाल की शक्तियां बढ़ाने के मुद्दे पर अड़े थे.
अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा पर भी वह अडिग थे. इस बहस के दौरान बाबा साहब ने कहा कि छोटे तबके के लोगों को हमेशा डर लगा रहता है कि बहुसंख्यक उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं.
उन्होंने कहा था, मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि संविधान मैंने बनाया है. मैं बताना चाहता हूं कि इसको जलाने वाला पहला इंसान भी मैं ही होऊंगा.
यह किसी के लिए भी ठीक नहीं है.
कई लोग इसे लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं पर यह भी याद रखना होगा कि एक ओर बहुसंख्यक हैं और दूसरी ओर अल्पसंख्यक.
बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते हैं कि अल्पसंख्यकों को महत्व नहीं दें. ऐसा करने से लोकतंत्र को ही नुकसान होगा.
इस बहस के दो साल बाद ही 19 मार्च 1955 को राज्यसभा में यह मुद्दा तब फिर उठा, जब संविधान में चौथे संशोधन से जुड़े विधेयक पर चर्चा हो रही थी.
सदन की चर्चा में हिस्सा लेने पहुंचे बाबा साहब से पंजाब से सांसद डॉ. अनूप सिंह ने सवाल पूछा था कि
पिछली बार आखिर उन्होंने यह बयान क्यों दिया कि वह पहले इंसान होंगे जो संविधान को जलाएंगे.
बाबा साहब ने तब बेबाकी से कहा कि पिछली बार जल्दबाजी में पूरा जवाब नहीं दे पाए थे. उन्होंने कहा, मैंने यह एकदम सोच-समझकर कहा था कि संविधान को जला देना चाहता हूं.
डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि हम लोग मंदिर इसलिए बनाते हैं, जिससे भगवान आकर उसमें रहें.
अगर भगवान से पहले ही दानव आकर रहने लगें तो मंदिर को नष्ट करने के सिवा और रास्ता ही क्या बचेगा.
कोई यह सोचकर तो मंदिर बनाता नहीं है कि उसमें असुर रहने लगें. सब चाहते हैं कि मंदिर में देवों का निवास हो. यही कारण है कि होने संविधान जलाने की बात कही थी.