दिल्ली हाईकोर्ट ने आज एक फैसला सुनाते हुए कहा कि मकान मालिक और किराएदार के बीच के मुकदमे के निपटारे में एक दशक से अधिक समय लग जाता है। यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है। न्यायमूर्ति गिरीश कथपालिया ने उक्त टिप्पणी किराया नियंत्रक के पारित एक आदेश को रद्द करते हुए की, जिसमें कई लोगों के बेदखली याचिका को खारिज कर दिया गया था। उनलोगों ने खुद को भूतल के दुकानों का मालिक बताया था और किराएदार को हटाने की मांग की थी।
किरायेदार किराए की जगह का उपयोग नहीं करते
न्यायमूर्ति ने कहा कि आम तौर पर देखा जाता है कि किरायेदार किराए की जगह का उपयोग नहीं करते हैं और उसे बंद रखते हैं। वे उसे खाली करने के लिए मकान मालिक को पैसे देने के लिए मजबूर करते हैं। इस तरह के चलन हानिकारक है और उसे कम किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि किराया कानून के तहत हाईकोर्ट का दायरा सीमित है, लेकिन किराया नियंत्रक का दृष्टिकोण व तर्क विकृत हो तो वहां हाईकोर्ट को हस्तक्षेप करना होगा। इसमें भी कोई विवाद नहीं है कि याचिकाकर्ताओं के बच्चे वयस्क हैं, जबकि वे स्वयं 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के हैं। अगर वे अपने जन्मभूमि लौटकर परिवार के साथ रहना चाहते हैं तो उसे संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं की जरूरत पर कोई संदेह नहीं
अदालत ने कहा कि किराया नियंत्रक के इस तर्क में कोई बल नहीं है कि याचिकाकर्ताओं ने अपने बच्चों की शादी करने और उन्हें भारत में बसाने के अपने इरादे को दर्शाने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया। इसके अलावा विदेश में रहने वाला कोई अपने घर आना चाहता है और अपने घर में रहना चाहता है तो उसे उसके इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। उस मामले में किराएदार उससे ज्यादा अधिकार होने का दावा नहीं कर सकता। न्यायमूर्ति ने कहा कि उन्हें याचिकाकर्ताओं की जरूरत पर कोई संदेह नहीं है। उक्त तर्क देते हुए कोर्ट ने किराया नियंत्रक के फैसले को निरस्त कर दिया जिसने मकान मालिक को उसके घर देने की मांग को खारिज कर दिया था।
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