Mysore Sandal Soap: जब भी शुद्धता और असाधारण खुशबू की बात होती है, तो हमारे जेहन में मैसूर सैंडल सोप का नाम आता है. 100 साल से भी पुराने इस साबुन का सफर 1916 में प्रथम विश्व युद्ध के समय शुरू हुआ था. प्रथम विश्व युद्ध के कारण रुके यूरोपीय व्यापार ने महाराजा नलवाडी कृष्णराजा वाडियार और उनके दीवान विश्वेश्वरैया को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि चंदन की लकड़ी का भारत में कैसे इस्तेमाल किया जाए.
इस मजबूरी ने एक ऐसे साबुन की नींव रखी जो भारतीय संस्कृति और शुद्धता का प्रतीक बन गया. आइए जानते हैं इस मशहूर साबुन की प्रेरक कहानी, जो मैसूर के शाही घराने से निकलकर हर भारतीय के घर तक पहुंची.
मैसूर सैंडल सोप की शुरुआत की कहानी एक सदी से भी ज्यादा पुरानी है. 1916 में इस साबुन का निर्माण हुआ, और तब से लेकर आज तक इसकी लोकप्रियता बनी हुई है. आज यह कर्नाटक सरकार का ब्रांड बन चुका है और Karnataka Soaps & Detergents Ltd. (KSDL) द्वारा बेचा जाता है. शुरुआत में इसका उत्पादन मैसूर के शाही परिवार की पहल से हुआ था, लेकिन बाद में इसे कर्नाटक सरकार ने अपने अधीन ले लिया.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मैसूर पर वाडियार राजाओं का शासन था. तब नलवाडी कृष्ण राजा वाडियार चतुर्थ मैसूर के राजा थे और उनके दीवान थे मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया. यह वही एम. विश्वेश्वरैया हैं, जिन्हें 1955 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. वे एक प्रसिद्ध सिविल इंजीनियर, प्रशासक और राजनेता के रूप में भी जाने जाते हैं.
20वीं सदी की शुरुआत में मैसूर, चंदन की लकड़ी का एक बड़ा उत्पादक था, और इसे यूरोप निर्यात किया जाता था. प्रथम विश्व युद्ध के कारण यूरोपीय देशों के साथ व्यापार ठप हो गया, जिससे मैसूर में चंदन की लकड़ी का भंडार बढ़ने लगा. इस स्थिति को देखते हुए महाराजा ने खुद चंदन का तेल निकालने का विचार किया. इसके लिए विदेश से मशीनें मंगाई गईं, और 1916 में बेंगलुरु में सैंकी टैंक के पास चंदन तेल निकालने की एक छोटी फैक्ट्री बनाई गई. चन्दन के तेल को “लिक्विड गोल्ड” के नाम से जाना जाने लगा. इस तेल का उपयोग सबसे पहले राजा के स्नान में होने लगा.
कुछ समय बाद, फ्रांस से आए दो मेहमानों ने राजा के सामने चंदन तेल से बने साबुन पेश किए. यह देखकर महाराजा को विचार आया कि यदि हम खुद चंदन का तेल बना सकते हैं, तो साबुन भी बना सकते हैं. उन्होंने यह विचार विश्वेश्वरैया के साथ शेयर किया. साबुन के निर्माण के लिए विशेषज्ञों की मदद ली गई, और एसजी शास्त्री (Sosale Garalapury Sastry) को इंग्लैंड भेजा गया ताकि वे वहां से परफ्यूम और साबुन बनाने की तकनीक सीख सकें.
1918 में कबन पार्क के पास पहली बार मैसूर सैंडल सोप का निर्माण शुरू हुआ. शुरुआत में इस साबुन का उपयोग राजा के स्नान में ही होता था, लेकिन बाद में इसे आम जनता के लिए भी उपलब्ध कराया गया.
1980 में कर्नाटक सरकार ने इस मैन्युफैक्चरिंग सुविधा को अधिग्रहित कर लिया और Karnataka Soaps & Detergents Ltd. (KSDL) की स्थापना की. KSDL के तहत मैसूर और शिमोगा में चंदन तेल और साबुन का उत्पादन बढ़ाया गया.
जैसे-जैसे मैसूर सैंडल सोप की मांग बढ़ी, KSDL ने उत्पादन क्षमता बढ़ाई. लेकिन जल्द ही एक समस्या आ गई. उत्पादन बढ़ाने के बाद भी बिक्री उम्मीद से कम रही, जिससे गोदामों में बड़ा स्टॉक बच गया और कंपनी को घाटा हुआ. हालांकि, KSDL इस संकट से उबरने में सफल रही और अपने उत्पादन और डिस्ट्रीब्यूशन में सुधार किया.
साबुन की मार्केटिंग में भी मैसूर के शाही घराने ने अहम भूमिका निभाई. पूरे भारत में इस साबुन का प्रचार किया गया, और इसे कराची तक पहुंचाने के लिए ऊंट का जुलूस निकाला गया. डिस्ट्रिब्यूटर्स के लिए गोल्ड और सिल्वर कॉइन जैसी लकी ड्रॉ स्कीम भी लाई गईं ताकि सेल्स टारगेट पूरा करने वाले वितरकों को प्रोत्साहित किया जा सके.
2016 में मैसूर सैंडल सोप के 100 वर्ष पूरे होने पर KSDL ने “Mysore Sandal Centennial” नाम से एक विशेष एडिशन लॉन्च किया. इसमें ओरिजिनल साबुन के साथ मॉइश्चराइजर और बादाम तेल जैसे चीजे शामिल किए गए.
-भारत एक्सप्रेस
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