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Uddhav Thackeray Hindutva: शिवसेना ने हिंदुत्व की राह पर लौटने के दिए संकेत, क्या पार्टी की आक्रामक हिंदुत्व वाली छवि लौटा पाएंगे उद्धव ठाकरे ?

महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में महायुति की सरकार ने कमान संभाल ली है. नागपुर में फडणवीस कैबिनेट का विस्तार भी हो हो गया. वहीं दूसरी ओर महाविकास अघाड़ी में मातम पसरा है. सबसे बुरा हाल तो उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना की है, जिसने सत्ता के लिए न सिर्फ अपने सबसे पुरानी सहयोगी बीजेपी का साथ छोड़ दिया, बल्कि हिंदुत्व की उस आक्रामक राजनीति को भी तिलांजलि दे दी, जिसके लिए बाला साहेब की ठाकरे की पार्टी जानी जाती थी. कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाने के बाद उद्धव ठाकरे ने खुद की छवि बदलनी शुरू कर दी.

चुनाव से ऐन पहले वो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने और साबित करने के लिए एक मुस्लिम बस्ती में चले गए और लोगों से अफसोस जताकर कहा कि मिलने में काफी देर हो गई. उनके इस कदम से न सिर्फ उनके कोर वोटर्स में गलत संदेश गया, बल्कि बीजेपी को भी उनके हिंदुत्व पर हमला बोलने का मौका मिल गया. उद्धव ठाकरे लगातार बीजेपी के नशाने पर रहने लगे. इतना ही नहीं उनके चचेरे भाई राज ठाकरे भी बीजेपी के सुर में सुर मिलाकर उन पर सवाल उठाने लगे. रही सही कसर उनकी पार्टी के नेता एकनाथ शिंदे ने बगावत करके पूरी कर दी.

हालांकि लोकसभा चुनाव में मिली जीत से पार्टी और उसके नेतृत्व के बीच एक उम्मीद की किरण तो जगी, लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार ने सबकुछ तहस-नहस कर दिया. चुनाव में मिट्टी पलीद होने और महज 20 सीटों पर सिमटने के बाद उद्धव और उनकी पार्टी को हिंदुत्व याद आने लगी है. चाहे बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार की बात हो, या बाबरी विध्वंस की बरसी पर कारसेवकों के समर्थन में शिवसेना नेता का X पोस्ट, या फिर आदित्य ठाकरे के हनुमान मंदिर में जाकर आरती में हिस्सा लेना, कहीं ना कहीं संकेत दे रहा है कि शिवसेना यूबीटी हिंदुत्व की राह पर लौटने लगी है. लेकिन सबसे बड़ी बात तो ये है कि क्या शिवसेना हिंदुत्व की राह पर लौटकर अपनी पुरानी वाली छवि हासिल कर पाएगी, क्योंकि बीजेपी हिंदुत्व के मुद्दे पर फ्रंटफुट पर बैटिंग कर रही है.

हिंदुत्व पर शिवसेना का यूटर्न ?

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सारी रणनीति फेल होने के बाद शिवसेना यूबीटी को शायद हिंदुत्व की याद आने लगी है. बीते पांच वर्षों में उद्धव ने कांग्रेस और एनसीपी(शरद गुट) के साथ मिलकर जिस ‘सेक्युलर’ राजनीति में खुद को समायोजित करने की कोशिश की थी, उससे छोड़कर अब वो एक बार फिर से हिंदुत्व और मराठी वाली राजनीति की ओर लौटते दिखाई दे रहे हैं. हाल ही में उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी नेताओं के कुछ ऐसे बयान सामने आए हैं, जिससे ये संकेत मिल रहे हैं कि शिवसेना हिंदुत्व के एजेंडे पर लौट रही है. दरअसल पिछले दिनों शिवसेना ने पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में हो रहे हिंदुओं पर अत्याचार के बहाने मोदी सरकार पर हमला बोला और सवाल दागते हुए पूछा कि पड़ोसी देश में हिंदुओं की सुरक्षा को लेकर भारत सरकार ने क्या कदम उठाए हैं.

इससे पहले 6 दिसंबर को पार्टी के नेता मिलिंद नार्वेकर ने सोशल मीडिया पर बाबरी विध्वंस से जुड़ी एक तस्वीर साझा करते हुए शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे का एक कथन पोस्ट किया था, जिसमें लिखा था कि ‘मुझे उन लोगों पर गर्व है जिन्होंने यह किया’. खास बात ये है कि मिलिंद नार्वेकर ने अपने पोस्ट में उद्धव और आदित्य की फोटो एक पोस्ट में शेयर की थी. तीसरा उदाहरण बीते शुक्रवार देखने को मिला, जब मुंबई के दादर स्टेशन के बाहर स्थित एक पुराने हनुमान मंदिर की रक्षा के लिए आगे आई, जिसे रेलवे ने ध्वस्त करने का नोटिस दिया था. उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे ने तो वहां जाकर आरती भी की. जाहिर है ये सब यूं ही नहीं हो रहा है. राजनीतिक विश्लेषकों और पार्टी के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो मिलिंद नार्वेकर ने बाबरी विध्वंस से जुड़ा पोस्ट अपने मन से, या यो कहें कि पार्टी नेतृत्व की जानकारी के बिना साझा नहीं किया होगा.

शिवसेना के रुख से MVA में ‘विद्रोह’

बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले पर सवाल और आदित्य का हनुमान मंदिर में जाकर आरती करने तक तो ठीक, लेकिन जिस तरह से शिवसेना नेता मिलिंद नार्वेकर ने बाबरी विध्वंस से जुड़ी बातें सोशल मीडिया पर साझा की, वो महाविकास अघाड़ी के सहयोगियों को चुभ गई. समाजवादी पार्टी की महाराष्ट्र इकाई के नेता अबू आजमी इतने उखड़ गए कि उन्होंने MVA छोड़ने का एलान तक कर दिया. अबू आजमी ने दो टूक कहा कि अगर गठबंधन का कोई नेता इस तरह की भाषा बोलता है, तो उसमें और बीजेपी में कोई फर्क नहीं रह जाता है. ऐसे में हम साथ क्यों रहें ? खबर तो यहां तक है कि शिवसेना के हिंदुत्व की राह पर लौटने के संकेत मिलने के बाद कांग्रेस में भी अंदरखाने उनका विरोध शुरू हो गया है. हालांकि इस पर फिलहाल कोई भी खुलकर बोलने से परहेज कर रहा है.

उद्धव के सामने सियासी अस्तित्व का सवाल !

विधानसभा चुनाव के बाद अब शिवसेना यूबीटी की नजर आगामी बीएमसी चुनाव पर है. अगर यही हाल रहा तो उद्धव और उनकी पार्टी के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो जाएगा. शायद यही वजह है कि पार्टी के नेता अभी से अपने दम पर बीएमसी चुनाव लड़ने के संकेत देने लगे हैं. पार्टी के सीनियर नेता संजय राउत ने अपने एक बयान में कहा कि अब तक किसी भी नगर निगम और स्थानीय निकाय चुनाव, किसी गठबंधन में नहीं लड़ा गया है. चाहे वो कांग्रेस-एनसीपी के साथ गठबंधन हो या फिर शिवसेना-बीजेपी का. राउत का कहना है कि ये अलग तरह के चुनाव है, ऐसे में इसे अकेले ही लड़ा जाना चाहिए. हालांकि उन्होंने साथ में ये भी जोड़ा कि अभी तक बीएमसी चुनाव को लेकर पार्टी की ओर से कोई रणनीति नहीं बनी है. लेकिन संजय राउत का ये बयान भी सहयोगी दलों खासकर कांग्रेस को रास नहीं आई और पार्टी ने इस मामले में शिवसेना यूबीटी से अपना रुख साफ करने को कह दिया.

खबर तो यहां तक है कि हाल ही में उद्धव ठाकरे ने एक बैठक बुलाई थी, जिसमें पूर्व पार्षद भी शामिल हुए थे. बैठक के दौरान एक ओर जहां उद्धव ने अपने नेताओं से निकाय चुनावों पर ध्यान देने और हिंदुत्व की विचारधारा के साथ लोगों के बीच जाने को कहा था. इसी बैठक में पार्टी के नेताओं ने मांग की थी कि शिवसेना यूबीटी नगर निगम चुनाव में अपने दम पर उतरना चाहिए. शिवसेना को पता है कि अगर बीएमसी चुनाव में मनमाफिक नतीजे नहीं आए, तो फिर पार्टी के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े होने शुरू हो जाएंगे.

MVA में कभी नहीं मिला भाव

बीजेपी से अलग होने के बाद मुख्यमंत्री बनने के लिए उद्धव ठाकरे ने भले कांग्रेस-एनसीपी के साथ हाथ मिला लिया, लेकिन उन्हें उस तरह का भाव मिला ही नहीं, जिसकी वो उम्मीद करते थे. चुनाव से पहले उद्धव ठाकरे लगातार खुद को सीएम पद के लिए प्रोजेक्ट कर रहे थे. इसके लिए उन्होंने कांग्रेस नेता सोनिया और राहुल गांधी के दरबार में भी हाजिरी लगाई, लेकिन कहीं से भी कोई मदद नहीं मिली. उद्धव के सीएम बनने की राह में तो सबसे बड़ा रोड़ा महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ही थे, जिन्होंने उन्हें सीएम पद के लिए उनका विरोध किया.

यहां तक कि इस मामले में एनीपी (शरद गुट) के प्रमुख शरद पवार का भी साथ नहीं मिला. इसके बाद उन्होंने ये कहकर संतोष कर लिया कि सीएम का फैसला चुनाव के बाद मिल-बैठकर किया जाएगा. लेकिन चुनाव परिणामों ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में अगर उद्धव ठाकरे ठीक-ठाक सीट जीत लेते, तो फिर उनकी राह आसान हो सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आलम ये है कि उद्धव के लिए प्रदेश की सियासत में बने रहना उनके लिए मुश्किल सरीखा हो गया है. उनके पास इतनी सीटें नहीं हैं, जिसके दम पर वो MVA के दूसरे घटक दलों को आंख दिखा सकें.

हिंदुत्व की राह पर लौटना आसान नहीं

हालांकि उद्धव ठाकरे ने भले ही सत्ता के लिए, खासकर सीएम पद के लिए अपनी हिंदुत्व की छवि को एक झटके में छोड़ दिया हो, लेकिन अब इस राह पर उनका दोबारा लौट पाना आसान रहने वाला नहीं है, क्योंकि उनकी जगह बीजेपी ने ले ली है. चुनाव प्रचार के दौरान ‘एक हैं, तो सेफ हैं’ और ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारों के दम पर ही बीजेपी को इतना बड़ा मैंडेट मिला है.

यह भी पढ़ें- महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार: नागपुर में 39 मंत्रियों ने ली शपथ

हिंदुत्व की लड़ाई में उद्धव कहीं पीछे छूट गए हैं. मुस्लिम वोट पाने के चक्कर में उनसे उनका कोर मूल वोट बैंक छिटकर एकनाथ शिंदे की शिवसेना की ओर शिफ्ट हो गया है. अगर उद्धव हिंदुत्व की लाइन पर लौटते हैं, तो उन्हें अपने पिता बाला साहेब जैसा कट्टर हिंदुत्व वाला रुख अपनना होगा, क्योंकि चुनावों में ये साबित हो चुका है कि उदारवादी हिंदुत्व की सियासत से काम चलने वाला नहीं है. ऐसे में सबकी नजर उद्धव ठाकरे के अगले कदम पर है.

-भारत एक्सप्रेस

दीपक मिश्रा

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