हवाई सेवा देने वाली कंपनी Go First एयरलाइंस इस कदर बदहाल है कि यह भी जेट-एयरवेज और किंगफिशर की तरह क्रैश लैंडिंग करने जा रही है. हालात ऐसे हैं कि सोमवार को DGCA ने एयरलाइन को निर्देश दिया कि वह तत्काल प्रभाव से टिकटों की आगामी बुकिंग बंद कर दे. एविएशन सेक्टर की रेग्युलेटरी अथॉरिटी ने कहा कि कंपनी अगले आदेश तक कोई बुकिंग न करे. Go First को 15 दिनों के भीतर जवाब दाखिल करने को कहा गया है. गौरतलब है कि गो फर्स्ट एयरलाइन ने 3 तारीख को अपनी सारी फ्लाइटें कैंसिल कर दी और आगामी बुकिंग को 15 मई तक के लिए रद्द कर दिया. कंपनी ने इसके पीछे आर्थिक बदहाली को मुख्य कारण बताया है.
सवाल उठता है कि आखिर एक के बाद एक एयरलाइन कंपनियां क्रैश क्यों कर रही हैं. दिवालिया होने के कागार पर सिर्फ गो फर्स्ट ही नहीं बल्कि इसके पहले किंगफिशर और जेट एयरवेज जैसी दिग्गज कंपनियां डूब चुकी हैं. एक वक्त में एयर इंडिया (Air India) की भी हालत खस्ताहाल हो चुकी थी. लेकिन, टाटा ( TATA) के अधिग्रहण के बाद इस कंपनी को क्रैश लैंडिंग से बचाया गया.
इन सभी घटनाक्रमों को देख सवाल उठता है कि आखिर दिग्गज एयरलाइन कंपनियां क्यों धुल चाट ले रही हैं. जबकि, दावा किया जाता है कि पहले के मुकाबले फ्लाइट से यात्रा करने वाले मुसाफिरों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है. अगर फ्लाइट में बैठने वालों की संख्या बढ़ी है तो फिर प्रॉफिट के बजाय कंपनियों को लॉस क्यों हो रहा है? नौबत यहां तक क्यों पहुंच रही है, कि उन्हें की हुई बुकिंग बंद करनी पड़ रही है?
जानकारों की मानें तो इस क्रम में इन विमान कंपनियों का आंतरिक मैनेजमेंट काफी हद तक बर्बादी के लिए जिम्मेदार है. खर्च को कंट्रोल करने और कमाई को सही तरीके से समायोजित नहीं करने की बुनियादी बात को कंपनियां इंग्नोर करती रही हैं. हालांकि, सरकारी और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं काफी हद तक एयरलाइंस की बर्बाद के लिए जिम्मेदार हैं. मसलन, तेल की कीमतों में बढ़ोतरी और डॉलर के बढ़ते रेट भी तबाही के लिए जिम्मेदार हैं.
क्या भारत विमान कंपनियों की कब्रगाह है?
विमान कंपनियों के लिए भारतीय बाजार को ‘कब्रगाह’ की संज्ञा दी जाने लगी है. ईस्टवेस्ट, दमानिया, एमडीएलआर, पैरामाउंट, किंगफिशर, सहारा, जेट एयरवेज जैसी कंपनियों की सूची काफी लंबी है. इन कंपनियों के गोते लगाने की दास्तान काफी हद तक मेल भी खाती हैं.
किंगफिशर एयरलाइंस
2003 में किंगफिशर एयरलाइंस (Kingfisher Airlines) की स्थापना मशहूर शराब व्यवसायी विजय माल्या (Vijay Malya) ने की थी. जो इन दिनों भगोड़ा है. यह एयरलाइंस इतनी हाई-प्रोफाइल थी कि इसके बिजनस क्लास में यात्रा करना किसी स्वैग से कम नहीं था. लेकिन, कंपनी 2008 में एयर डेक्कन का अधिग्रहण करती है और यहीं से अर्श से फर्श तक का सफर भी कंपनी तय करती है. ऑपरेशन का बढ़ता बोझ और ऊपर से फ्यूल की बढ़ती कीमतों ने परवाज मारती इस एयरलाइंस को जमीन पर पटक दिया. 2012 में कंपनी का कर्ज इस कदर बढ़ा कि इसका लाइसेंस रद्द कर दिया गया. आखिरकार 2014 में इसे डिफॉल्टर घोषित कर दिया गया.
जेट एयरवेज
इस एयरलाइंस (Jet Airways) की शुरुआत तो वैसे 1992 में हुई. इस एयरलाइन के बेड़े में तब दो बोइंग विमान थे. कंपनी ने इस दौर में काफी पैसे भी कमाए. 2006 में जेट एयरवेज ने एयर सहारा (Air Sahara) के साथ डील की और इसका 2000 करोड़ रुपये में अधिग्रहण कर लिया. इसी बीच कंपनी ने डोमेस्टिक सेवाओं के अलावा इंटरनेशनल सेवाओं की ओर भी कूंच किया और यह फैसला गलत साबित हुआ. एक ओर जहां इंटरनेशनल उड़ानों में खामियाजा भुगतना पड़ रहा था, तो वहीं डोमेस्टिक में इंडिगो (Indigo) और स्पाइसजेट (Spicejet) जैसी बजट एयरलाइंस से कड़ी टक्कर मिलने लगी. भारी घाटे के चलते 2019 में कंपनी ने अपना शटर डाउन कर दिया और तब इससे जुड़े करीब 17 हजार लोग बेरोजगार हो गए.
गो फर्स्ट
गो फर्स्ट एयरलाइंस की शुरुआत तो वैसे 2005 में हुई थी. यह कंपनी आम तौर पर बजट एयरलाइंस तो जो बाकियों के मुकाबले किफायती रेट पर लोगों को सेवाएं मुहैया करा रही थी. इसकी भी हालत खराब हुई और यह प्रतिदिन संचालित होने वाली फ्लाइट के लिए पेमेंट वाले मोड में आ गई. जिसे एविएशन सेक्टर की भाषा में ‘कैश एंड कैरी’ मोड कहा जाता है. कंपनी ने बताया है कि उस पर 6,527 करोड़ रुपये का कर्ज हो चुका है. आलम ये है कि यह अपने ऑपरेशनल क्रेडिटर्स के पेमेंट तक नहीं कर पा रही है.
क्यों बंद हो रहीं एयरलाइंस कंपनियां?
बुनियादी तौर पर कंपनियों की अपना इंटरनल मैनेजमेंट काफी हद तक जिम्मेदार रहा है. क्योंकि, एय़र इंडिया भी डूबने के कागार पर पहुंच गई थी. लेकिन, टाटा के कुशल मैनेजटमें ने इस कंपनी को बचा लिया. वहीं, इंडिगो और स्पाइसजेट भी इस दौर में खुद को सर्वाइव कर रही हैं. लेकिन, ऐसा नहीं है कि दुश्वारियां नहीं हैं.
ईंधन (Fuel): कंपनियों को सबसे ज्यादा दिक्कत फ्यूल को लेकर है. एयरलाइंस के ईंधन काफी खर्चीले होते हैं. अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में उछाल का सीधा असर इन कंपनियों पर पड़ता है. एटीएफ के चलते बाजार में अस्थिरता बनी रहती है. आम तौर पर जब बकाया बढ़ता है तब तेल कंपनियां एयरलाइंस को ‘कैश-एंड-कैरी’ मोड पर रखती हैं. यानी एक हाथ से पैसा दो, दूसरे हाथ से तले लो. भारत में दिक्कत ये भी है कि यहां एटीएफ पर भारी टैक्स भी लगाया जाता है. कई राज्यों में 30% तक वैट लगाया जाता है. ऐसे में विमान कंपनियां जिनकी हालत अगर पतली होती है, तो वो फटाक से जमीन पकड़ लेती हैं.
डॉलर की कीमतें: अंतरराष्ट्रीय बाजार में खराददारी का आधार डॉलर ही है. विमान की खऱीद, इक्विपमेंट्स, रख-रखाव, फ्यूल की खऱीद आदि डॉलर में ही होते हैं. ऐसे में रुपये के मुकाबले डॉलर की कीमतों में उछाल का मतलब है भारतीय विमान कंपनियों की सेहत का खराब होना.
मांग में कमी: एक सिविल एविएशन की कंपनी अगर पैसे कमाती है, तो वो सिर्फ यात्रियों की जेब से ही वसूल कर कमाती है. ऐसे में यदि तेल की कीमतें बढ़ें या फिर डॉलर की कीमतों में उतार-चढ़ाव आए, इसका सीधा असर यात्रियों की जेब पर पड़ता है. कंपनियां सीधे इसकी वसूली टिकटों से करती हैं. ऐसे में टिकट पहले के मुकाबले महंगे होते हैं यात्री काफी हद तक इससे तौबा कर लेते हैं.
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इमके अलावा विमान कंपनियों की रनिंग कॉस्ट और सरकार की नीतियां भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं. विमान कंपनियों के मुताबिक अधिकांश मामलों में टिकटों की कैपिंग में सरकार का हस्तक्षेप रहता है. एक सीमा से आगे टिकटों को महंगा नहीं किया जा सकता. ऐसे में कंपनियों को इसका बोझ भी उठाना पड़ता है.
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