विश्व बैंक ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में 2023 में भयानक वैश्विक मंदी की बात कही है. इसमें कहा गया है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक जिस तरह से अपनी प्रमुख ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, उससे अर्थव्यवस्था में गिरावट बढ़ती जा रही है और यह गिरावट 2023 में मंदी का रूप अख्तियार कर लेगी. रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इस तरह की सुस्ती 1970 के बाद पहली बार देखी गई है.
महंगाई और बेरोजगारी की लंबी खिंचती परिस्थिति जिस परिणाम में बदल सकती है, अर्थव्यवस्था में उसके संकेत दिखाई दे रहे हैं. यह संकेत उनके लिए डरावना है, जिनकी जेब खाली है और हाथों में काम नहीं है. यह संकेत उनके लिए चेतावनी है, जिनके बटुए फिलहाल तो भरे हैं, मगर खाली होने का खतरा मंडरा रहा है. यह संकेत उस तंत्र के लिए भी चेतावनी है, जो कमोबेश इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार है.
वैश्विक आर्थिक हालात और घरेलू परिस्थितियों के मद्देनजर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान को भले ही 7.2 फीसद पर बरकरार रखा है, लेकिन वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही की दर उसके अनुमान को बेमानी साबित कर रही है. आरबीआइ ने पहली तिमाही के लिए 16.2 फीसद वृद्धि दर का अनुमान लगाया था, लेकिन 13.5 फीसद से ही संतोष करना पड़ा था.
जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट का सीधा अर्थ होता है कि आर्थिक गतिविधियां सुस्त हो रही हैं. आर्थिक गतिविधियों में सुस्ती बेरोजगारी को बढ़ावा देती है. बेरोजगारी से कमाई घटती है. कमाई खरीदारी पर असर डालती है और बाजार में मांग घटती जाती है. फिर उत्पादन पर असर पड़ता है और बेरोजगारी बढ़ जाती है. कमाई, खपत, मांग और उत्पादन में गिरावट का चक्र लंबे समय तक टिका रहा तो यह दुश्चक्र में बदल जाता है. अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ही मंदी कहा जाता हैं. मंदी में जीडीपी वृद्धि दर बढ़ने के बजाय घटने लगती है. लगातार दो तिमाहियों में जीडीपी वृद्धि दर घट गई तो तकनीकी तौर पर मंदी मानी जाती है. भारत में फिलहाल यह स्थिति नहीं है, लेकिन वर्तमान आर्थिक चुनौतियां भविष्य के संकेत दे रही हैं.
विश्व बैंक ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में 2023 में भयानक वैश्विक मंदी की बात कही है. इसमें कहा गया है कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंक जिस तरह से अपनी प्रमुख ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं, उससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती बढ़ती जा रही है और यह सुस्ती 2023 में मंदी का रूप अख्तियार कर लेगी. वैश्विक अर्थव्यवस्था में इस तरह की सुस्ती 1970 के बाद पहली बार देखी जा रही है. अमेरिका, यूरोप और चीन जैसी दुनिया की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भयानक सुस्ती है. आगे यह दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को भी चपेट में ले सकती है. अमेरिका और ब्रिटेन में महंगाई दर चालीस साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी गई है. केंद्रीय बैंक इसी महंगाई को नियंत्रित करने ब्याज दर बढ़ा रहे है.
औपचारिक अर्थव्यवस्था अच्छी बात है, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि इस चक्कर में हमने अर्थव्यवस्था के उस गुल्लक को ही तोड़ दिया जो गाढ़े वक्त में काम आ जाती थी? क्योंकि यदि अर्थव्यवस्था औपचारिक हुई है, फिर इतनी ऊंची बेरोजगारी (8.28 फीसद) क्यों है? आम जनता में बदहाली क्यों है? कृषि क्षेत्र ने बुरी हालत में भी महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था को सहारा देने का काम किया था. लेकिन हमने कृषि को कितना सहारा दिया? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर तलाशे बगैर मंदी से मुकाबले की बात पानी पर लाठी पीटने जैसा होगा.
-भारत एक्सप्रेस
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