विश्लेषण

EVM पर रोने से क्या होगा?

यह सही है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की विधानसभाओं के चुनावों के नतीजे चौंकाने वाले आए हैं. क्योंकि इन दोनों राज्यों में पिछले कुछ महीनों से हवा कांग्रेस के पक्ष में बह रही थी. इसलिये सारा विपक्ष हैरान है और हतोत्साहित भी. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता और कमल नाथ इन परिणामों के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) और चुनाव आयोग को दोषी ठहरा रहे हैं. अपने सैकड़ों आरोपों के समर्थन में इन नेताओं के कार्यकर्ता तमाम साक्ष्य जुटा चुके हैं. इसी चुनाव में मध्य प्रदेश में डाक से आये मत पत्रों में 171 विधानसभाओं में कांग्रेस जीत रही है यह सूचना चुनाव आयोग के रिकॉर्ड से पता चली है. फिर मध्य प्रदेश में कांग्रेस कैसे हार गई. जिस इलाके के सारे मतदाताओं ने कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था वो भी ये देखकर हैरान हैं कि उनके इलाके से भाजपा को इतने वोट कैसे मिल गये. ऐसे तमाम प्रमाणों को लेकर मध्य प्रदेश कांग्रेस के कार्यकर्ता अपना संघर्ष जारी रखेंगे. ये बात दूसरी है कि चुनाव आयोग उनकी बात पर गौर करेगा या नहीं. जबकि भाजपा इन नतीजों से न केवल अति उत्साहित है बल्कि विपक्ष की हताशा को वो ‘खिसयानी बिल्ली खम्बा नौचे’ बता रही है.

पहले बात ईवीएम की कर लें

बीते कुछ चुनावों में, देश के अलग अलग प्रान्तों में, यह देखा गया है कि इलाके की जनता की भारी नाराज़गी के बावजूद वहां के मौजूदा विधायक या सांसद ने पिछले चुनावों के मुकाबले काफ़ी अधिक संख्या से जीत हासिल की. ऐसे में चुनावी मशीनरी पर सवाल खड़े होना ज़ाहिर सी बात है. जो भी नेता हारता है वो ईवीएम या चुनावी मशीनरी को दोषी ठहराता है.

ऐसा नहीं है कि किसी एक दल के नेता ही ईवीएम की गड़बड़ी या उससे छेड़-छाड़ का आरोप लगाते आए हैं. इस बात के अनेकों उदाहरण हैं जहां हर प्रमुख दलों के नेताओं ने कई चुनावों के बाद ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगाया है. चुनाव आयोग की बात करें तो वो इन आरोपों का शुरू से ही खंडन कर रहा है. आयोग के अनुसार ईवीएम में गड़बड़ी की कोई गुंजाइश ही नहीं है. 1998 में दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधान सभा की कुछ सीटों पर ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था. परंतु 2004 के आम चुनावों में पहली बार हर संसदीय क्षेत्र में ईवीएम का पूरी तरह से इस्तेमाल हुआ. 2009 के चुनावी नतीजों के बाद इसमें गड़बड़ी का आरोप भाजपा द्वारा लगा. गौरतलब है कि दुनिया के 31 देशों में ईवीएम का इस्तेमाल हुआ परंतु ख़ास बात यह है कि अधिकतर देशों ने इसमें गड़बड़ी कि शिकायत के बाद वापस बैलट पेपर के ज़रिये ही चुनाव किये जाने लगे. अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी जैसे विकसित देश जिनकी टेक्नोलॉजी बहुत एडवांस है और जिन देशों में मानव संसाधन की कमी है उन देशों ने भी ईवीएम को नकार दिया है. इन सब देशों में चुनाव मत पत्रों के द्वारा ही कराये जाते हैं.

विपक्षी दल क्या करें ?

किसी भी समस्या की शिकायत करने से उसका हल नहीं होता. शिकायत के साथ समाधान का सुझाव भी दिया जाए तो उस पर चुनाव आयोग को गौर करना चाहिए. इस विवाद को हल करने के दो ही तरीके हैं एक तो यह कि बांग्लादेश की तरह सभी विपक्षी दल एकजुट होकर ईवीएम का बहिष्कार करें और चुनाव आयोग को मत पत्रों से ही चुनाव कराये जाने के लिए बाध्य करें. दूसरा विकल्प यह है कि चुनाव आयोग ऐसी व्यवस्था करे कि ईवीएम से निकलने वाली VVPAT की एक पर्ची को मतदाता को दे दिया जाए और दूसरी पर्ची को उसी पोलिंग बूथ में रखी मत पेटी में डलवा दिया जाये. मतगणना के समय ईवीएम और मत पत्रों की गणना साथ-साथ हो. ऐसा करने से यह विवाद हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगा. साथ ही भविष्य में कोई दल सत्तारूढ़ दल पर चुनावों में धांधली की शिकायत नहीं कर पायेगा.

जब भी कभी कोई प्रतियोगिता होती है तो उसका संचालन करने वाले शक के घेरे में न आएं इसलिए उस प्रतियोगिता के हर कृत्य को सार्वजनिक रूप से किया जाता है. आयोजक इस बात पर ख़ास ध्यान देते हैं कि उन पर पक्षपात का आरोप न लगे. इसीलिए जब भी कभी आयोजकों को कोई सुझाव दिये जाते हैं तो यदि वे उन्हें सही लगें तो उसे स्वीकार लेते हैं. ऐसे में उन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगता. ठीक उसी तरह एक स्वस्थ लोकतंत्र में होने वाली सबसे बड़ी प्रतियोगिता चुनाव हैं. उसके आयोजक यानी चुनाव आयोग को उन सभी सुझावों को खुले दिमाग से और निष्पक्षता से लेना चाहिए.  चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है, इसे किसी भी दल या सरकार के प्रति पक्षपात होता दिखाई नहीं देना चाहिए. यदि चुनाव आयोग ऐसे सुझावों को जनहित में लेती है तो मतदाताओं के बीच भी एक सही संदेश जाएगा, कि चुनाव आयोग किसी भी दल के साथ पक्षपात नहीं करता.

चुनाव लोकतंत्र की नींव होते हैं. किसी देश का भविष्य चुनाव में जीतने वाले दल के हाथ में होता है. चाहें उसे कुल मतदाताओं के एक तिहाई ही मत क्यों न मिले हों. पर उसकी नीतियों का असर सौ फीसदी मतदाताओं और उनके परिवारों पर पड़ता है. इसलिए चुनाव आयोग का हर काम निष्पक्ष और पारदर्शी होना चाहिए. हमारा संविधान भी चुनावों के स्वतंत्र और निष्पक्ष किये जाने के निर्देश देता है. 1990 से पहले देश के आम मतदाता को चुनाव आयोग जैसी किसी संस्था के अस्तित्व का पता नहीं था. उन वर्षों में धीरे-धीरे चुनावों के दौरान हिंसा, फर्जी मतदान और माफ़ियागिरी का प्रभाव तेजी से बढ़ गया था. उस समय मैंने अपनी कालचक्र विडियो मैगजीन में एक दमदार टीवी रिपोर्ट बनाई थी, ‘क्या भारत पर माफ़िया राज करेगा?’ पर 1990 में टी एन शेषन भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त बनें तो उन्होंने कड़ा डंडा चलाकर चुनावों में भारी सुधार कर दिया था. तब उन्होंने सत्तापक्ष को भी कोई रियायत नहीं दी. पर चिंता की बात है कि हाल के वर्षों में भारत का चुनाव आयोग लगातार विवादों में रहा है. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को भी टी एन शेषन की जरूरत महसूस हुई. ऐसे में चुनाव आयोग को अपनी छवि सुधार के संदेह से परे होना चाहिए.

-भारत एक्सप्रेस

विनीत नारायण, वरिष्ठ पत्रकार

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