ये कहानी राजनीति के रण में धर्मनीति की है… ये कहानी कपट के दौर में कविता की है… ये कहानी होशियारी के वक्त में सच बोलने की हिम्मत की है… ये कहानी सियासत में शब्दों की शालीनता की है… ये कहानी सियासत के उस शिखर पुरुष की जिंदगी की है, जो समय को दो हिस्सों में बांटता था. ये कहानी भारत के उस भीष्म पितामह की है, जो भाग्य बदलने का माद्दा रखते थे. ये कहानी उस शख्स की है, जिसने इस भूखंड की सियासत को अपने सामर्थ्य से ऐसा साधा कि समय भी उसका शुभचिंतक बन गया.
ये कहानी आजादी के बाद के पांच दशकों की राजनीति के सबसे बड़े पंच की है. जी हां ये कहानी अजातशत्रु अटल की है, जिनके शब्द भी अटल थे और संघर्ष भी, जिनके विश्वास अटल थे, मर्यादा अटल थी, आशा अटल थी, निष्ठा अटल थी, दायित्व अटल थे, कर्तव्य अटल थे, कर्म अटल थे, धर्म अटल थे, मर्म अटल थे, यहां तक कि पूरा जीवन अटल था. जी हां, वो थे अटल बिहारी वाजपेयी.
ढाई हजार साल गुजर चुके हैं किताबों में दर्ज उस कहानी को, जब प्लूटो ने राजनीति में एक ऐसे राजा की कल्पना की थी, जो जमीन पर नहीं, जनता के दिलों पर राज करे. जो सरहदों से ज्यादा, शांति के विस्तार की बात करे. जो दुश्मनी से ज्यादा, दिलों की दोस्ती की बात करे और रण से ज्यादा, राजधर्म की बात करे.
ये शायद संयोग ही था कि प्लूटो की उस परिकल्पना के इस सबसे करीबी नायक का जन्म ठीक 100 साल पहले 25 दिसंबर 1924 को हुआ था. सच कहें तो यही वो तारीख थी, जब शांति के एक देवदूत ने इस दुनिया में अपना कदम रखा था. कृष्ण बिहारी ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि ग्वालियर की गलियों में बड़ा हो रहा उनका बेटा एक दिन अपने शब्दों की संजीदगी से सियासत को ऐसे साधेगा कि ये देश उसका दीवाना हो जाएगा. कलम की रोशनाई को कविता में डूबाने का हुनर… अटल ने अपने पिता से ही पाया था.
खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया.
बंट गए शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई.
दूध में दरार पड़ गई.
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गए नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है.
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई.
कॉलेज के दिनों में ही उनका लिखा लोकप्रियता का पैमाना बनने लगी. उनकी भाषण की भंगिमाएं भारी भीड़ खिंचने लगी. एक छोटे से शहर के इस छात्र नेता के चर्चे दूर-दूर की दहलीजों पर दस्तक देने लगी और जवानी की जमीन पर खड़े अटल ने कानपुर का रुख कर लिया.
यहां के डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र की पढ़ाई पूरी करने के बाद अटल ने कानून की क्लास में दाखिला तो लिया, लेकिन एक गुलाम देश के दर्द को देखकर उन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. ये वो वक्त था जब अटल का परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ और फिर वो उसी के होकर रह गए. तब की उनकी कविताओं में उनके उस विचार का कोलाहाल साफ सुनाई देता है.
मैं यम की प्रलयंकर पुकार, जलते मरघट का धुआंधार
फिर अंतरतम की ज्वाला से, जगती मे आग लगा दूं मैं
यदि धधक उठे जल-थल अंबर, जड़-चेतन तो कैसा विस्मय
हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय
साल 1951 में दीनदयाल उपाध्याय की नजर अटल की ओर गई और उन्होंने उन्हें कानपुर से लखनऊ बुलाकर उनको राष्ट्रधर्म की कमान सौंप दी. इसी साल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की नींव रखी और इसी के साथ अटल ने संस्थापक सदस्य की हैसियत से सियासत की सीढ़ियों पर अपना पहला कदम बढ़ाया.
1953 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत से अटल बेहद आहत हुए, लेकिन तब तक राजनीति की रपटीली राहों पर आगे बढ़ने का अटल फैसला हो चुका था. 1957 के दूसरे आम चुनावों में 33 साल के वाजपेयी ने बलरामपुर की सीट से किस्मत की बाजी लगाई और जीतकर पहली बार देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचे.
उस साल जनसंघ के हिस्से में महज चार सीटें ही आई थीं. शब्दों का ये सरस्वतीपुत्र अब सियासत में अलग मुकाम बना रहा था, लेकिन कविता का कोमल भाव उसने कभी नहीं छोड़ा. कलम ने उनकी सियासत को बड़ी गहरी संवेदना से संवारा. काल के कपाल पर लिखने और मिटाने का संकल्प लेकर चले अटल ने हार ना मानने की जैसे कसम खाई थी.
टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी?
अन्तर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा,
रार नई ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं.
अपने हुनर से हर बार नया गीत लिखने वाले इस गीतकार की समय ने कई परीक्षाएं ली. काल ने कालचक्र ने मुखर्जी के बाद दीनदयाल उपाध्याय को भी छीन लिया और 43 साल के अटल के युवा कंधों पर जनसंघ की बड़ी जिम्मेदारी आ गई, लेकिन तमाम झंझावातों के बीच पद-प्रतिष्ठा के गुमान से कोसों दूर अटल अपनी पार्टी की पहचान बनाने में तन-मन से जुटे रहे.
अटल ने हमेशा राजनीति में मर्यादा का मान रखा. चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का, उन्होंने आलोचना का आधार नीतियों को बनाया व्यक्तियों को नहीं. 1975 में तानाशाही और भ्रष्टाचार के भंवर में फंसी इंदिरा सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी और लुट रहे लोकतंत्र की एक शाम को अटल गिरफ्तार कर लिए गए.
वो जेल तो गए लेकिन राजनीति की रपटीली राहों पर अब जिम्मेदारियों की वैकल्पिक बांहें उनका इंतजार कर रही थीं. ये सिर्फ वक्त ही जानता था कि ये राजनीति के उस कोलंबस की यात्रा का पड़ाव है विराम नहीं. 1977 की जनवरी में आपातकाल के अंधेरे का अंत हुआ और गुम हो रहे गणतंत्र की चौहद्दियों पर चुनावों की दस्तक हुई. जयप्रकाश नारायण के साथ संघर्ष कर रही जनता पार्टी को चुनावों में जनमत मिला और मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में अटल को मिली विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी. उस छोटे से कार्यकाल में अटल ने पूरी दुनिया को भारत के अतीत की गौरवगाथा और भविष्य की आकांक्षाओं से अवगत कराया.
दो साल बाद महत्वाकांक्षाओं और अंतर्विरोधों की वजह से मोरारजी सरकार का अंत हो गया और इसी के साथ समाप्त हो गई चुनाव के मैदान में इंदिरा की शक्ति को चुनौती देने की एकमात्र संभावना. जनता की उम्मीदों का ये अंत अटल को भीतर से जख्मी कर गया. 1980 में जनता पार्टी के बचे-खुचे नेता एक बार फिर एकजुट हुए और भारतीय जनता पार्टी का जन्म हुआ. एक बार फिर इसकी जिम्मेदारी उसी शख्स को सौंपी गई, जिसकी लगन, निष्ठा और सियासत की समझ सवालों से परे थी.
बीजेपी के पहले ही अधिवेशन में अटल ने इस नई नवेली पार्टी के लिए उच्च आदर्शों की एक बड़ी और ऊंची रेखा खींच दी. उन्होंने अपने कलम से कमल का भविष्य लिख दिया, लेकिन कमल का खिलना इतना आसान नहीं था. साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चली सहानुभूति की लहर ने बीजेपी को लील लिया. यहां तक की ग्वालियर से माधव राव सिंधिया के हाथों अटल को भी पराजय मिली और प्रचंड बहुमत के बलबूते राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने.
1989 में सियासत ने एक बार फिर करवट बदली. राजीव की हार के साथ राष्ट्रीय मोर्चे ने दिल्ली की सत्ता के सिंहासन पर दस्तक दी. बीजेपी ने उसे बाहर से समर्थन देने का फैसला किया, लेकिन भारतीय जनमानस के ऊहापोह, असमंजस और आत्ममंथन के उस दौर में देश ने सवा साल के भीतर ही वीपी सिंह और चंद्रशेखर के तौर पर दो-दो प्रधानमंत्रियों का दौर देखा.
1992 के मंडल और कमंडल के उस दौर में भी जब राजनीति पर कलंक की कालिख गहरी हो रही थी, तब भी वाजपेयी के वजूद को एक हर्फ छूने की उसकी हिम्मत ना हुई. 1996 के चुनावों में बीजेपी को पहली बार सत्ता में आने का मौका मिला और तब की सियासत के शिखर पुरुष अटल पहली बार सत्ता के सर्वोच्च पद पर आसीन हुए.
अटल के सामने संसद में संख्या बल साबित करने की चुनौती थी. विश्वास मत पर बहस के दौरान उस दिन संसद सियासत का वो शिखर पुरुष जो कुछ भी बांच गया उसकी आंच में सालों तक सियासत तपती रही और सियासी जमीर सबक लेता रहा.
सांप्रदायिकता के आरोपों पर एक हुए विपक्ष की वजह से वाजपेयी से बहुमत का आंकड़ा बहुत दूर हो गया और उनकी सरकार सिर्फ 13 दिनों में ही गिर गई. देश के संसदीय इतिहास में ये सबसे कम दिन चलने वाली सरकार साबित हुई, लेकिन तब तक देश के जनमानस में वो अपने लिए एक बहुत बड़ी जगह बना चुके थे.
देश में बदलाव की उस बयार में सियासत की सतह भी जब-तब हिल रही थी. न समाज स्थिर था, न सरकारें… फिर 13 दलों के दल-बल से देवगौड़ा जैसे-तैसे प्रधानमंत्री बने. संयुक्त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस और वाम दलों ने बाहर से समर्थन दिया, लेकिन अंतर्कलह की आग के आगे वो भी ज्यादा दिनों तक टिक ना सकी. देवगौड़ा की जगह पर गुजराल को गठबंधन की कमान सौंपी गई, लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही उसकी गांठें भी साफ-साफ दिखने लगी और देश एक बार फिर मध्यावधि चुनावों की चौखट पर खड़ा हो गया. उधर समान विचारधारा के शामियाने में बीजेपी का कुनबा धीरे-धीरे बढ़ रहा था.
1998 के चुनाव में वाजपेयी के वजूद ने एक बार फिर अपना असर दिखाया और बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. 13 दलों के गठबंधन से एनडीए की नींव पड़ी और अटल ने दूसरी बार राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में प्रधानमंत्री के पद और गोपनीयता की शपथ ली. स्वभाव से बेहद शांत वाजपेयी की सरकार का अभी पहला महीना भी ठीक से नहीं गुजरा था कि उसने ऐसा धमाका किया कि पूरी दुनिया भौचक्क रह गई.
दो दिनों के भीतर परमाणु परीक्षण के पांच विस्फोटों से पोखरण थर्रा उठा. सारी दुनिया के सामने भारत ने अपनी परमाणु शक्ति का धमाकेदार परिचय दिया था और फिर वही हुआ, जिसका अंदेशा था. अमेरिका सहित कई महाशक्तिओं ने भारत पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए, जिसको दरकिनार करते हुए अटल ने आर्थिक विकास के रास्ते पर देश को आगे बढ़ाया. जय जवान… जय किसान के नारे को अटल ने एक कदम और आगे बढ़ाया.
दुनिया का इतिहास पूछता,
रोम कहां, यूनान कहां?
घर-घर में शुभ अग्नि जलाता…
वह उन्नत ईरान कहां है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के,
व्याप्त हुआ बर्बर अंधियारा,
किन्तु चीर कर तम की छाती,
चमका हिन्दुस्तान हमारा…
वाजपेयी हिंदुस्तान की हथेली पर विकास की गाढ़ी लकीरें खींच रहे थे. देश उन्नति की राह पर सरपट दौड़ रहा था. हिंद का डंका सारी दुनिया में बज रहा था, लेकिन सियासत का ये सूरमा इतने से ही संतुष्ट नहीं था. वो सरहदों पर उठी हुईं संगीनें नहीं, बल्कि शांति चाहता था. वो सीमाओं पर सेनाओं का शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि झुकी हुईं बंदूकें और मधुर संगीत चाहता था. अटल की इसी चाह ने नई राह बनाई और वो दोस्ती की बस में सवार अपनी बाहें फैलाए पाकिस्तान पहुंच गए. दुनिया उन्हें अचरज भरी आंखों से निहार रही थी और मंद-मंद मुस्कान के साथ अटल अपने दुश्मन को दोस्ती का सबक सिखा रहे थे.
विभिन्नताओं और विरोधों को एक भाव और एक सांस से साधने वाले अटल देखते ही देखते सबके अजीज हो गए, लेकिन अभी उन्हें एक और अग्निपरीक्षा से गुजरना बाकी था. सियासत के इस चाणक्य के लिए समय ने एक चक्रव्यूह बनाया और वादाखिलाफी का आरोप लगाकर जयललिता ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. 13 महीनों के बाद वाजपेयी सरकार एक बार फिर अल्पमत में आ गई और मौके की ताक में बैठा विरोधी खेमा एकजुट होने लगा. हाशिये पर आए राजनेताओं ने रणनीति बनाई और संसद में शक्ति प्रदर्शन के दौरान वाजपेयी सरकार को मिली सिर्फ और सिर्फ एक वोट से शिकस्त. समय भी सियासत के इस संत के संयम का मानो इम्तेहान ही ले रहा था.
जोड़-तोड़ के सारे औजारों को आजमाने के बाद भी कोई दल सरकार बनाने की हालत में नहीं था, लिहाजा वाजपेयी कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे. इधर देश में एक बार फिर चुनावों की चकबंदी हो रही थी और उधर हमारा पड़ोसी हमारी ही पीठ में छुरा घोंपने का षड्यंत्र रच रहा था. कारगिल की कुछ चोटियों पर पाकिस्तान के घुसपैठियों ने कब्जा कर लिया और सीमा पर सैनिकों की संगीनें एक बार फिर तन गईं. वाजपेयी ने शत्रुओं को सबक सिखाने का आदेश दिया और जवान अपनी जान की बाजी लगाकर दुश्मनों का दंभ तोड़ने निकल पड़े. भारतीय सेना के ‘ऑपरेशन विजय’ की इस शौर्य गाथा ने दुनिया भर की सेनाओं के पराक्रम के पैमाने को बहुत छोटा कर दिया. उन्होंने अपने बाहुबल और बलिदान से दुश्मनों के दिल को दहला दिया.
लगभग तीन महीने तक चले संघर्ष के बाद दुश्मनों ने अपनी हार स्वीकार कर ली और हमारे सैनिक उन्हें उनकी सीमाओं तक खदेड़ आए. इस विजय ने अटल को एक सुलझे हुए सियासतदान के साथ-साथ एक फौलादी सेनानायक के तौर पर भी स्थापित कर दिया. युद्ध में विजय के बाद अब चुनौती चुनावों की थी और अटल इसमें भी खरा सोना ही साबित हुए.
1999 में जनता-जनार्दन से जनादेश हासिल करने में भी वो सफल रहे और इस जननायक ने तीसरी बार भारत की अखंडता को अविभाज्य रखने की कसम खाई. उनके राजनीतिक कौशल का एक कड़ा इम्तिहान भी जल्द ही सामने आ गया, जब आतंकवादियों ने काठमांडू से एयर इंडिया की एक फ्लाइट का अपहरण कर लिया.
अफगानिस्तान के कंधार में उतारे गए उस जहाज के सभी यात्रियों की सुरक्षित रिहाई का रास्ता तैयार करना सरकार की पहली जिम्मेदारी थी और सरकार कूटनीतिक तरीके ऐसा कराने में सफल रही. हालांकि इसके एवज में उसे तीन आतंकियों को रिहा करना पड़ा, जो अटल जी कभी नहीं चाहते थे, लेकिन राजनीति और कूटनीति के कॉकटेल की नियति कुछ यही थी. शायद तभी अटल जी ने दुश्मनों की नीयत और उनकी नियति पर अपने अटल कलम से कुछ संदेश लिखे…
धमकी, जेहाद के नारों से, हथियारों से
कश्मीर कभी हथिया लोगे, यह मत समझो
हमलों से, अत्याचारों से, संहारों से
भारत का भाल झुका लोगे यह मत समझो…
अटल के मन में अभी भी एक उथल-पुथल जारी थी. कारगिल और कंधार की कचोट के बावजूद उन्होंने शांति की खातिर पाकिस्तान के सदर-ए-रिसायत को भारत आने का न्योता दिया. आगरा में शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ. वाजपेयी ने बातचीत के टेबल पर मुशर्रफ से कटुता को निकटता, संदेह को सहायता और बैर को विनम्रता में बदलने की अपील की, लेकिन परवेज ने इसकी परवाह नहीं की. बातचीत बेनतीजा रही. 13 दिसंबर 2001 को पाकिस्तान के आयातित आतंकवादियों ने हमारे लोकतंत्र के मंदिर पर हमला बोल दिया. हमारे जवानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर उनके इरादों को जमींदोज कर दिया और दहशतगर्दों को उनके दुस्साहस के लिए सजा-ए-मौत का दंड दिया.
अटल की ये साझा सरकार इस बार पहले से ज्यादा संतुलित थी. वो आर्थिक विकास के हित में साहसिक फैसले ले रही थी, जिससे देश तरक्की के रास्ते पर तेजी से दौड़ पड़ा. अटल सरकार ने चारों महानगरों को जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज योजना बनाई और दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता और चेन्नई को सड़क को एक ही सिरे से बांध दिया. सरकार ने बैंकिंग, बीमा और रक्षा के क्षेत्र को FDI के लिए खोल दिया. होम लोन की दरों को इस हद तक नीचे लाया गया कि आम से आम लोगों के अपना घर का सपना साकार हो सके. आईटी और टेलीकॉम क्षेत्र को इस कदर बढ़ावा दिया गया कि क्रांति आ गई और सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत ने देश के नौनिहालों के लिए शिक्षा का संसार खोल दिया.
अपने 6 साल के कार्यकाल में अटल ने साफ-सुथरे शासन और जवाबदेह सरकार की ऐसी मिसाल पेश की, जो आज की सरकारों के लिए भी सबसे बड़ी नजीर है. अपने हित पहले अपना दल, दल से पहले देश की फिक्र करने वाले अटल ने कभी भी सियासी हार और जीत की परवाह नहीं की. 2004 के आम चुनावों में जब उनकी पार्टी की अप्रत्याशित हार हुई तब भी उन्होंने उसे उतने ही सहजता से लिया और इस देश के लिए अपनी हड्डियां गलाने वाले इस दधिची ने सियासत को अलविदा कह दिया.
सियासत के उस शिखर पुरुष ने सक्रिय राजनीति को विराम दिया और खुद को दिल्ली के कृष्ण मेनन मार्ग के सरकारी बंगले पर आराम, लेकिन आराम के उस दौर में भी देश के लिए एक बेचैनी रही. एक अटल संघर्ष आखिरी वक्त तक जारी रहा. जिंदगी के आखिरी वक्त तक सियासत के इस पुरोधा से सियासतदानों का परामर्श जारी रहा, लेकिन काल के कपाल पर लिखने और मिटाने का माद्दा रखने वाले अटल बिहारी वाजपेयी धीरे धीरे थकने लगे और वो वक्त भी आया जब 6 दशक तक सक्रिय सियासी सफर पर रहने के बाद अटल जी अनंत यात्रा पर निकल गए. लेकिन इसे उस संत की साधना ही कहेंगे कि जाने से पहले उन्होंने जिंदगी का सच कुछ इन लफ्जों में बयां कर दिया था…
‘मौत की उम्र क्या है? दो पल भी नहीं,
जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
पर सच तो ये है कि आज भी प्रेरणा अटल हैं, आदर्श अटल हैं, साथ ही उनके सिद्धांत और नैतिक मूल्य अटल हैं.
-भारत एक्सप्रेस
CM योगी ने आज प्रयागराज में महाकुम्भ से जुड़ी तैयारियों की समीक्षा की, आवश्यक कार्यों…
भारतीय तेज़ गेंदबाज़ मोहम्मद शमी के नाम पर बॉर्डर-गावस्कर ट्रॉफ़ी के अंतिम दो मैचों में…
बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने भारत से पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के प्रत्यर्पण की आधिकारिक…
Video: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख चीफ मोहन भागवत ने हाल ही में नए…
NIA ने खालिस्तानी आतंकवादी लखबीर सिंह लांडा और गैंगस्टर बचितर सिंह के मुख्य सहयोगी जतिंदर…
अडानी डिफेंस एंड एयरोस्पेस द्वारा एयर वर्क्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड का अधिग्रहण किया जाना अडानी…