सियासी गलियारों में आंकड़े कितने अहमियत रखते हैं ये हर राजनीतिक दल और सरकार जानती है. नंबर गेम का ही पज्जल था जिसने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरा दी थी. एक वोट की असल कीमत सही मायनों में उस दिन देश के लगभग हर वोटर ने समझी होगी. जब लोकसभा में एक वोट से अटल सरकार गिर गई.
साल 1996 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी. बीजेपी 161 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी. कांग्रेस के खाते में 140 सीटें आई, कांग्रेस पहले ही सरकार बनाने से पीछे कदम हटा चुकी थी. जिसकी वजह से राष्ट्रपति ने बीजेपी से अटल बिहरी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्योता दिया. आंकड़ों का जादू देखिए बीजेपी सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत ही नहीं जुटा पाई और 13वें दिन अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद छोड़ाना पड़ा. जिसके बाद संयुक्त मोर्चा गठबंधन के बूते जनता दल के नेता एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने.
साल 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए बीजेपी ने फिर बाजी मारी और 182 सीटें जीतकर एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनी जबकि कांग्रेस को 141 सीटें मिली. भारतीय जनता पार्टी ने कोई गलती नहीं करते हुए इस बार क्षेत्रीय पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश किया. बीजेपी ने AIDMK, BJD, शिवसेना, समता पार्टी और अकाली दल के सहयोग से सरकार बनाई. लेकिन 13 के फेर ने अटल जी का पीछा फिर नहीं छोड़ा और 13 महीने बाद सरकार गिर गई.
दरअसल 6 अप्रैल 1999 को AIDMK के सभी मंत्रियों ने अपना इस्तीफा अटल जी को भेज दिया. जिसके कुछ दिन बाद 11 अप्रैल को दिल्ली में जयललिता राष्ट्रपति से मिलीं और सरकार से समर्थन वापस लेने की चिट्टी उन्हें सौंप दी. 17 अप्रैल 1999 ये वो दिन था जब संसद में विश्वास मत को लेकर वोटिंग होने थी. सदन खचाखच भरा था, मतदान हुआ तो विश्वास मत के पक्ष में 269 और विरोध 270 वोट पड़े, नतीजा एक वोट से सरकार गिर गई.
जानकारी के मुताबिक AIDMK की जयललिता समर्थन वापस लेने से पहले पीएम अटल बिहारी वाजपेयी से मिलीं थी. बताया ये भी जाता है कि उन्होंने सरकार बनने के बाद से ही अटल जी पर उनके खिलाफ चल रहे सभी मुकदमे वापस लेने और तमिलनाडु में DMK की सरकार बर्खास्त करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया था. कहीं ना कहीं वो सुबह्म्णयम स्वामी को वित्त मंत्री भी बनाना चाहती थीं. उनकी मांगों के लेकर वाजपेयी जी ने सहमति नहीं जताई. जिसके बाद अम्मा ने सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला किया था.
मायावती के पास उस वक्त पांच सांसद थे. बीएसपी सुप्रीम ने आश्वासन दिया था कि उनके सारे सांसद सरकार के पक्ष में वोटिंग करेंगे लेकिन एन वक्त पर उन्होंने पलटी मार दी. वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस के बारामूला से सांसद सैफुद्दीन सोज ने भी सरकार के पक्ष में वोट नहीं दिया. वहीं बाद में नेशनल कॉन्फ्रेंस के सरकार को समर्थन देने की वजह से नाराज सोज ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था.
अटल सरकार के विश्वास मत हारने की सबसे बड़ी वजह कांग्रेस सांसद गिरिधर गोमांग को माना जाता है. गिरिधर गोमांग फरवरी 1999 में ही ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे. सीएम के बाग भी उन्होंने लोकसभा में सांसदी पद से इस्तीफा नहीं दिया था. जिसकी वजह से गोमांग को तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी ने अपने विवेक से मतदान करने की इजाजत दी थी. गोमांग ने अपनी पार्टी लाइन पर चलते हुए सरकार के खिलाफ वोट दिया था.
अविश्वास प्रस्ताव हारने के बाद सदन में वाजपेयी जी ने कहा था कि ‘ पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करना, अगर ऐसे सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चीमटे से भी छूना पसंद नहीं करता. उन्होंने परिस्थिति को स्वीकार करते हुए कहा कि ‘हम संख्याबल के सामने सिर झुकाते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं जो कार्य हमने अपने हाथ में लिया है वो जब तक राष्ट्र का उद्देश्य पूरा नहीं कर लेते तब तक आराम से नहीं बैठेंगे, आराम से नहीं बैठेंगे अध्यक्ष महोदय मैं अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति महोदय को सौंपने जा रहा हूं.’ इसके बाद इसी साल दोबारा हुए चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने. वाजेपयी भारतीय जनता पार्टी के पहले ऐसा नेता थे जो पांच साल तक पीएम पद पर रहें.
-भारत एक्सप्रेस
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