पत्नी की हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा काट रहे दोषी की अपील को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट कहा है कि अदालतों को मुकदमे में निर्णायक भूमिका निभानी चाहिए और गवाहों द्वारा कही गई बातों को रिकॉर्ड करने के लिए सिर्फ टेप रिकॉर्डर की भूमिका नहीं निभानी चाहिए, क्योंकि सत्य तक पहुंचना और न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति करना अदालत का कर्तव्य है. सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह भी कहा कि न्याय की सहायता के लिए न्यायाधीश को कार्यवाही की निगरानी करनी होती है. भले ही अभियोक्ता कुछ मामलों में लापरवाह या सुस्त हो,लेकिन अदालत को कार्यवाही को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना चाहिए ताकि अंतिम उद्देश्य यानी सत्य तक पहुंचा जा सके.
सीजेआई ने कहा कि कोर्ट को अभियोजन एजेंसी की ओर से गंभीर खामियों और कर्तव्य की उपेक्षा के प्रति सचेत रहना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि सरकारी वकील के पद पर नियुक्ति जैसे मामलों में राजनीतिक विचार का कोई तत्व नहीं होना चाहिए. सरकार के लिए एकमात्र विचार व्यक्ति की योग्यता होनी चाहिए. व्यक्ति न केवल सक्षम होना चाहिए, बल्कि उसका चरित्र और ईमानदारी भी बेदाग होनी चाहिए. कोर्ट ने कहा कि वह ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो स्वतंत्र रूप से काम करने में सक्षम हो.
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने अनीस द्वारा दिल्ली हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर अपील को खारिज कर दिया है. हाइकोर्ट ने 1995 में निचली अदालत द्वारा सुनवाई गई आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा था. बतादें की इस मामले में मात्र एक गवाह अनीस की पांच वर्षीय बेटी थी, जो बाद में अपने बयान से मुकर गए. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि अभियोजन पक्ष द्वारा उदासीनता दिखाने या अलग-थलग रवैया अपनाने में विफल रहने पर, ट्रायल जज को साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 और सीआरपीसी की धारा 311 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए ताकि साक्ष्य एकत्र करने की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाकर सभी आवश्यक सामग्री प्राप्त की जा सके. कोर्ट ने कहा कि मुकदमे के दौरान सरकारी वकील ने जिरह के लिए उसे कुछ सुझाव दिए. हैरानी की बात यह है कि उचित विरोधाभास भी रिकॉर्ड पर नहीं लाए गए. दूसरे शब्दों में, नाबालिग द्वारा दिये गए गवाही को उसके पुलिस बयान से उचित रूप से रूबरू भी नहीं कराया गया.
कोर्ट ने कहा, “सरकारी अभियोजक के लिए किसी विरोधी गवाह से जिरह करते समय केवल सुझाव देना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि केवल सुझावों का कोई साक्ष्य मूल्य नहीं होता. ट्रायल जज भी इस मामले में सक्रिय भूमिका निभाने में विफल रहे. ट्रायल जज को इस तथ्य के प्रति सचेत होना चाहिए था कि शाहीना को एक आवेशपूर्ण माहौल में खुली अदालत में गवाही देने के लिए कहा गया था और वह भी आरोपी की मौजूदगी में,जो कोई और नहीं बल्कि उसका अपना पिता था. साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि न्यायालयों में अक्सर ऐसे मामले आते हैं, जिनमें पति, वैवाहिक संबंधों में तनाव और चरित्र पर संदेह के कारण अपनी पत्नी की हत्या करने की हद तक चला जाता है. ये अपराध आम तौर पर घर के अंदर पूरी तरह से गुप्त रूप से किए जाते हैं और अभियोजन पक्ष के लिए साक्ष्य प्रस्तुत करना बहुत मुश्किल हो जाता है. कोर्ट ने कहा कि परिवार का कोई भी सदस्य, जैसा कि इस मामले में है,भले ही वह अपराध का गवाह हो,परिवार के किसी अन्य सदस्य के खिलाफ गवाही देने के लिए आगे नहीं आएगा.
-भारत एक्सप्रेस
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