दिल्ली हाई कोर्ट ने पॉक्सो एक्ट के तहत दोषी ठहराए गए एक व्यक्ति को बरी कर दिया है। अदालत ने कहा कि केवल “शारीरिक संबंध” शब्द का इस्तेमाल यौन उत्पीड़न साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
निचली अदालत द्वारा आजीवन कारावास की सजा पाए आरोपी ने इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की थी।
जस्टिस एम. प्रतिभा सिंह और जस्टिस अमित शर्मा की पीठ ने आरोपी की अपील को स्वीकार करते हुए कहा कि पीड़िता ने खुद से आरोपी के साथ जाने की बात स्वीकारी है। ऐसे में यौन उत्पीड़न का मामला कैसे बनता है, यह निचली अदालत ने स्पष्ट नहीं किया। कोर्ट ने यह भी कहा कि नाबालिग की सहमति भले ही मायने न रखे, लेकिन “संबंध” शब्द को यौन उत्पीड़न मानने के लिए ठोस साक्ष्य जरूरी हैं।
हाई कोर्ट ने कहा कि संदेह का लाभ आरोपी के पक्ष में दिया जाना चाहिए। निचली अदालत के फैसले में तर्क का अभाव था, इसलिए इसे रद्द किया गया। पीड़िता ने यह नहीं कहा कि उसके साथ कोई यौन उत्पीड़न हुआ। इस मामले में भी यह स्पष्ट था कि वह स्वेच्छा से आरोपी के साथ गई थी।
यह मामला मार्च 2017 का है, जब 14 वर्षीय नाबालिग लड़की को आरोपी बहला-फुसलाकर अपने साथ ले गया था। बाद में दोनों को फरीदाबाद से बरामद किया गया। दिसंबर 2023 में निचली अदालत ने आरोपी को पॉक्सो एक्ट, बलात्कार और यौन उत्पीड़न के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि यौन उत्पीड़न या बलात्कार जैसे गंभीर आरोपों को साबित करने के लिए पुख्ता साक्ष्य जरूरी हैं। किसी अनुमान या अस्पष्ट तथ्यों के आधार पर दोषसिद्धि नहीं हो सकती।
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