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मानव जीन एडिटिंग: विज्ञान के नए युग की शुरुआत, या अनैतिकता और सामाजिक समस्याओं को जन्म देने वाला एक कदम?

हाल ही में मैंने अपने पसंदीदा टीवी शो, द गुड डॉक्टर, का एक एपिसोड देखा. इस एपिसोड में एक व्यक्ति, वायट, को आपातकालीन स्थिति में अस्पताल लाया गया क्योंकि उसकी एक वाल्व में छेद हो गया था और उसे तुरंत सर्जरी की जरूरत थी. जब डॉक्टर उसकी सर्जरी कर रहे थे, तो उन्होंने देखा कि उसकी बड़ी आंत फैली हुई थी, उसमें कैल्सीफाइड घाव थे, और आंत की दीवार पतली हो गई थी. ये सभी लक्षण हिर्शस्प्रंग डिजीज के थे, जो एक दुर्लभ अनुवांशिक बीमारी है और आमतौर पर बच्चों में पाई जाती है. अब सवाल यह था कि 30 साल से ऊपर की उम्र का व्यक्ति यह बीमारी कैसे पा सकता है, जो आमतौर पर केवल छोटे बच्चों को होती है. जांच के बाद पता चला कि वायट ने CRISPR प्रक्रिया के जरिए अपनी जेनेटिक कोड में बदलाव किया था. यह प्रक्रिया उसने चीन के कुछ पेशेवर लोगों की सलाह पर की थी. वे उसे दवाओं के ‘कॉकटेल’ भेजते थे, जिन्हें वह अपने बोन मैरो में इंजेक्ट करता था. वायट को विश्वास था कि इससे उसकी उम्र बढ़नी रुक जाएगी और वह हमेशा के लिए अमर हो जाएगा. वह अमर बनने के लिए अपनी जीनोम (जिससे हर इंसान की पहचान बनती है) को बदलने को तैयार था. यहां तक कि अगर यह प्रक्रिया उसके लिए सफल रहती, तो उसकी पत्नी भी इसे अपनाने की योजना बना रही थी. यह सब मुझे बहुत अजीब लगा. वायट अजनबी लोगों पर इतना भरोसा करने को तैयार था और उम्र बढ़ने जैसी स्वाभाविक प्रक्रिया को रोकने के लिए अपने जीवन को बदलने वाले इस तरह के खतरनाक कदम उठाने के लिए तैयार था.

क्या है मानव जीन एडिटिंग?

मानव जीन एडिटिंग एक ऐसी तकनीक है, जिससे इंसानों के डीएनए (DNA) को जानबूझकर बदला जा सकता है ताकि विशेष जीन को संशोधित किया जा सके. इस प्रक्रिया से हमारे डीएनए के कुछ हिस्से जोड़े या हटाए भी जा सकते हैं. जीन हमारे शरीर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. यही जीन हमें इंसान बनाते हैं. ये हमारे बालों के प्रकार, आंखों के रंग, कद और यहां तक कि हमारे व्यक्तित्व को भी नियंत्रित करते हैं. हमारे जीन में कोई भी बदलाव पूरे मानव जाति पर गहरा असर डाल सकता है. डीएनए अनुक्रम (DNA sequence) में एक छोटा सा बदलाव, जैसे केवल एक नाइट्रोजिनस बेस को बदलना, यानी एडेनिन और थायमिन न्यूक्लियोटाइड्स की जगह बदलना, भी म्यूटेशन (mutation) का कारण बन सकता है और इसके बाद गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते हैं. इसलिए किसी भी जीव के जीनोम (genome) में बदलाव बहुत सावधानी और सटीकता से किया जाना चाहिए. जीन एडिटिंग एंजाइम्स (enzymes) की मदद से की जाती है, खासकर न्यूक्लीएसेस (nucleases), जो विशेष रूप से डीएनए स्ट्रैंड के निश्चित हिस्सों को टारगेट करके आवश्यक बदलाव करते हैं.

जीन एडिटिंग का इतिहास

जीन एडिटिंग एक अनोखी (sui generis) तकनीक है, जिसमें CRISPR नाम का एक आणविक उपकरण (Clustered Regularly Interspaced Short Palindromic Repeats) का उपयोग किया जाता है. इसे 2012 में अमेरिकी वैज्ञानिक जेनिफर डूडना और फ्रेंच वैज्ञानिक इमैनुएल चारपेंटियर ने खोजा था. जीन थैरेपी का उपयोग करके जन्मजात बीमारियों का इलाज करने का विचार 1953 में आया, जब वॉटसन और क्रिक ने डीएनए का डबल हेलिक्स मॉडल खोजा. इसके बाद वैज्ञानिकों को समझ आया कि जीन में छोटे-छोटे बदलाव, जो माता-पिता से बच्चों में जाते हैं, म्यूटेशन और बीमारियों का कारण बन सकते हैं. इन आणविक गलतियों को पहचानने और ठीक करने से ही इन बीमारियों का इलाज संभव है. 1970 के दशक में recombinant DNA (rDNA) तकनीक का विकास एक बड़ी सफलता थी. इसमें प्रतिबंध एंजाइम्स (restriction enzymes) का उपयोग करके विशेष डीएनए स्ट्रैंड्स को जोड़ा गया. 1990 में, वैज्ञानिकों ने ADA-SCID नामक एक दुर्लभ अनुवांशिक बीमारी वाले मरीज का इलाज किया. ADA-SCID, जिसे बबल बॉय डिजीज भी कहा जाता है, सबसे गंभीर प्रकार की इम्यूनोडिफिशिएंसी है, जिसमें लिंफोसाइट्स (lymphocytes) नष्ट हो जाते हैं.

क्या होते हैं लिंफोसाइट्स?

सीधे शब्दों में कहें तो लिंफोसाइट्स हमारे खून में मौजूद वे कोशिकाएं हैं, जो इम्यून सिस्टम को सक्रिय करती हैं और विभिन्न रोगजनकों (pathogens) से लड़ती हैं. SCID (Severe Combined Immunodeficiency) में मरीज का इम्यून सिस्टम बेहद कमजोर हो जाता है और वह संक्रामक और वायुजनित बीमारियों का शिकार हो सकता है. इसी वजह से इस बीमारी से ग्रस्त मरीजों को अक्सर प्लास्टिक के ‘बबल’ में रखा जाता है, जिसमें निष्फल (sterilized) हवा होती है. यह बबल उन्हें रोगजनकों से बचाने के लिए एक यांत्रिक अवरोध का काम करता है. 1994 में zinc finger nucleases (ZFNs) विकसित किए गए, जो डीएनए में लक्षित बदलाव करने वाले पहले कस्टमाइज़ेबल उपकरण थे. इसके बाद TALEN और CRISPR-Cas9 जैसी तकनीकों ने जीन एडिटिंग को सस्ता और अधिक प्रभावी बना दिया. 2018 में, चीनी वैज्ञानिक हे जियानकुई ने जुड़वां बच्चियों के भ्रूण के जीनोम को एडिट किया ताकि उन्हें HIV से प्रतिरोधक बनाया जा सके. बाद में इन बच्चियों का सफलतापूर्वक जन्म हुआ.

जीन एडिटिंग का उपयोग

अगर हम जीन एडिटिंग की बात करें, तो इसका उपयोग दवा, कृषि, पशु प्रजनन, औद्योगिक बायोटेक्नोलॉजी और पर्यावरण जैसे कई क्षेत्रों में किया जा सकता है.

  • चिकित्सा में, जीन एडिटिंग का उपयोग सिस्टिक फाइब्रोसिस, सिकल सेल एनीमिया और डुशेन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी जैसी मोनोजेनिक बीमारियों (एक ही जीन में म्यूटेशन से होने वाली बीमारियां) के इलाज के लिए किया जा सकता है. यह कैंसर के इलाज में भी मददगार हो सकता है, जहां इम्यून सिस्टम को सक्रिय करके कैंसर कोशिकाओं पर हमला करने के लिए प्रेरित किया जाता है (CAR-T सेल थैरेपी).
  • कृषि में, जीन एडिटिंग से फसलों के गुणों को बेहतर बनाया जा सकता है और उनकी पोषण क्षमता को बढ़ाया जा सकता है. इसे व्यावसायिक फसलों की कटाई अवधि को कम करने के लिए भी उपयोग किया जा सकता है, जैसे वर्नलाइजेशन तकनीक के साथ.
  • पशु प्रजनन में, यह तकनीक पशु उत्पादों की गुणवत्ता बढ़ाने और पशुओं को बीमारियों के प्रति अधिक सहनशील बनाने में सहायक हो सकती है.
  • पर्यावरण में, जीन एडिटिंग से बने जैविक रूप से संशोधित सूक्ष्मजीवों का उपयोग बायोरिमेडिएशन के जरिए प्रदूषित क्षेत्रों को साफ करने के लिए किया जा सकता है.

अगर जीन थैरेपी के इतने फायदे हैं, तो इसे हर जगह लागू क्यों नहीं किया गया? इस प्रक्रिया की नवीनता और सफलता दर के अलावा, इसका मुख्य कारण यह है कि कई लोग इसे अनैतिक (unethical) मानते हैं.

नैतिक दुविधा पर सर्वेक्षण

नैतिक दुविधा को समझने के लिए मैंने एक सर्वेक्षण किया, जिसमें अधिकांश प्रतिभागी 11-20 और 31-40 आयु वर्ग के थे.

  • 46.8% प्रतिभागियों का मानना था कि मानव जीन एडिटिंग को अमेरिका, रूस, चीन और जापान जैसे विकसित देशों में कानूनी रूप से लागू किया जाना चाहिए.
  • 36.2% प्रतिभागी इसके खिलाफ थे, खासकर अविकसित देशों में, क्योंकि उन्हें जैव-चिकित्सा डेटा के दुरुपयोग और बायोपायरेसी (जैविक संसाधनों की चोरी) का डर था.
  • अधिकांश प्रतिभागी चाहते थे कि जीन थैरेपी का उपयोग मानसिक बीमारियों और ऑटिज़्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) जैसे न्यूरोडेवलपमेंटल विकारों के इलाज के लिए किया जाए और न्यूरोट्रांसमीटर को नियंत्रित करने में मदद मिले.
  • 57.4% प्रतिभागियों का मानना था कि जीन एडिटिंग से सामाजिक-आर्थिक खाई और बढ़ जाएगी, और यह केवल एक छोटे से वर्ग के लिए ही किफायती होगी. इसे आम जनता के लिए सुलभ बनाना बेहद कठिन होगा.
  • 80% प्रतिभागियों को लगा कि जीन एडिटिंग समाज को मानवीय गलतियों के प्रति कम सहिष्णु बना देगी और हमारी सबसे बड़ी पहचान – हमारी कमियां – खत्म हो जाएंगी.
  • इस बात पर 50-50 की राय थी कि क्या इंसान इस स्तर पर पहुंच चुका है, जहां जीन थैरेपी जैसी प्रक्रियाएं और मानवीय मूल्य, जैसे सहानुभूति और करुणा, एक साथ सह-अस्तित्व में रह सकते हैं.

यह भी ध्यान देना जरूरी है कि जीन थैरेपी केवल शरीर की कोशिकाओं (somatic cells) पर प्रभावी होती है, न कि जनन कोशिकाओं (germ cells, जैसे शुक्राणु और अंडाणु) पर. इसका मतलब है कि संपादित जीन केवल एक पीढ़ी तक मान्य रहेगा और आने वाली पीढ़ियों में स्थानांतरित नहीं होगा.

जीन एडिटिंग पर विवाद का असली कारण

गहन विश्लेषण से पता चलता है कि समस्या वास्तव में मानव जीन एडिटिंग से नहीं है, बल्कि इस डर से है कि कानूनी और चिकित्सा ढांचा इतना मजबूत नहीं होगा कि गलत प्रथाओं को रोका जा सके. उदाहरण के लिए, जर्मलाइन एडिटिंग, जिसमें भ्रूण को आनुवंशिक रूप से बदलकर ‘डिज़ाइनर बेबीज़’ बनाए जाते हैं – ऐसे बच्चे जो परिपूर्ण, बुद्धिमान, स्वस्थ और संतुलित हों. कई लोग उन इलेक्टिव सर्जरीज़ के खिलाफ थे, जिनका उद्देश्य केवल कौशल को सुधारना या परिपूर्ण बनाना था, न कि बीमारियों का इलाज करना. कुछ के अनुसार, मानव जीन एडिटिंग नैतिकता और सहानुभूति जैसे सिद्धांतों के साथ मेल नहीं खाती, जिन्हें कोई व्यक्ति अनुभव, रिश्तों और कठिन परिस्थितियों से लड़कर विकसित करता है. इसके अलावा, अनपेक्षित प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं और म्यूटेशन का खतरा भी है, जिसमें इम्यून सिस्टम नए जीन को अस्वीकार कर देता है और कोशिकाओं का आत्म-विघटन (autolysis) शुरू कर देता है. विभिन्न देशों के बीच सहमति बनाना और विशिष्ट नियमों पर एकमत होना भी एक बड़ी चुनौती है. वैश्विक स्तर पर इस असमानता से समस्या और बढ़ सकती है, और नियामक खामियों (regulatory loopholes) को जन्म दे सकती है. उदाहरण के लिए, बेलारूस, कनाडा, स्विट्जरलैंड और स्वीडन जैसे देशों ने पहले ही जर्मलाइन एडिटिंग ट्रायल्स पर प्रतिबंध लगा दिया है.

जीन एडिटिंग पर अनसुलझे सवाल

हालांकि जानवरों पर सफल प्रयोग किए गए हैं, जैसे वैज्ञानिकों ने जेलीफ़िश का डीएनए बिल्लियों में इंजेक्ट किया और पाया कि वे अंधेरे में चमक सकती हैं, लेकिन क्या यह तकनीक वास्तव में इंसानों पर लागू करने के लिए पर्याप्त उन्नत है? क्या हमारा समाज इतना विकसित हो गया है कि हम हर प्रकार के इंसानों को स्वीकार कर सकें, चाहे वे किसी दोष के साथ हों या बिना भावनाओं वाले रोबोट हों? क्या मानव जीन एडिटिंग हमारे सभी दोषों और असमानताओं को मिटाने की एक हताश कोशिश है? क्या यह नैतिक है कि भ्रूण पर जीन थैरेपी का उपयोग किया जाए, जब भ्रूण से इलाज के लिए अनुमति लेना संभव ही नहीं है? क्या यह सही है कि कुछ लोग अपनी लंबाई बढ़ाने या एथलेटिक क्षमता सुधारने के लिए जीन थैरेपी का उपयोग करें, जबकि हजारों अन्य लोगों को इस तकनीक से इलाज की सख्त जरूरत है? क्या वैज्ञानिकों को जर्मलाइन एडिटिंग पर प्रयोग करने की अनुमति दी जानी चाहिए? ये सभी ऐसे सवाल हैं, जिन पर विचार करना जरूरी है, इससे पहले कि मानव जीन थैरेपी को वैधता दी जाए. जहां बहुत से लोग चिकित्सा और कृषि क्षेत्र में जीन थैरेपी के भविष्य को लेकर आशान्वित हैं, वहीं अन्य अभी भी इसके नियम, आर्थिक असमानता, इलाज की उपलब्धता और दीर्घकालिक प्रभाव को लेकर संदेह में हैं. संभावनाएं बहुत बड़ी हैं, लेकिन जोखिम भी उतने ही बड़े हैं. यह जरूरी है कि तकनीक को नैतिकता के साथ संतुलित किया जाए और जीन एडिटिंग की शक्ति का उपयोग पूरे समाज के लाभ के लिए किया जाए.

(इशाना शर्मा 11वीं की छात्रा हैं. यह उनके मूल लेख का हिंदी अनुवाद है.)

-भारत एक्सप्रेस

Ishana Sharma

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