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बिहार में लाखों रुपये में बिकता है एक डिब्बा कूड़ा, यूपी और बंगाल से खरीदने आते हैं लोग, जानें क्या है वजह

क्या आपको पता है कि बिहार के गया में कूड़ा लाखों रुपये किलो बिक रहा है? यह कोई साधारण कूड़ा नहीं है, बल्कि गहनों की दुकान का कूड़ा है. इसे खरीदने के लिए कोलकाता, उत्तर प्रदेश और पटना जैसी तमाम जगहों से खरीदार आते हैं. ये विशेषज्ञ होते हैं जो हाथ से टटोलकर इस कूड़े की कीमत का अनुमान लगा लेते हैं. दीपावली के त्योहार के चलते, जब आभूषण की खरीदारी बढ़ती है, तब इन दुकानों के कूड़े की मांग बढ़ जाती है. इस आभूषण के कचरे को ‘न्यारा’ कहा जाता है.

कूड़े में होते हैं सोने-चांदी के कण

न्यारा, आभूषण दुकानों और कारखानों से निकलने वाली मिट्टी होती है, जिसमें सोने और चांदी के कण होते हैं. आभूषण बनाने के दौरान कारीगरी के दौरान जो छोटे कण गिरते हैं, उन्हें दुकानदार सहेज कर रखते हैं. गया में आभूषण बनाने वाली दुकान के कारीगर चंदन कुमार वर्मा बताते हैं कि ये कण मिट्टी में मिलकर भी कीमती होते हैं और इन्हें साल भर एकत्र किया जाता है. दीपावली से कुछ दिन पहले, जब लोग इनकी खरीदारी के लिए आते हैं, तब इन्हें बेचा जाता है.”

लाखों रुपये तक होती है कीमत

वह आगे कहते हैं, “इन कूड़ों की कीमत हजारों से लेकर लाखों रुपये तक होती है. न्यारा की एक डिब्बे की औसत कीमत लगभग एक लाख होती है. खरीदार, जो अक्सर दूसरे राज्यों से आते हैं, इसकी खरीदारी करते हैं. रमना रोड, बजाज रोड और मखाना गली के आसपास करीब 500 सोने-चांदी की दुकानें हैं, जहां इस कूड़े की बिक्री होती है. गया में इस व्यापार का कुल कारोबार लगभग पांच करोड़ रुपये तक पहुंच जाता है. खरीदार अपनी विधियों से इस कूड़े में से कीमती धातु के कण निकाल लेते हैं. सुनारों का कहना है कि न्यारा खरीदने वाले हमेशा लाभ में रहते हैं, जिससे उनकी दिलचस्पी इस धंधे में बनी रहती है.”

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उन्होंने कहा, “हर साल दीपावली के समय, जब लोग सुनारों की दुकानों से मिट्टी खरीदने के लिए आते हैं, तो बिक्री का यह सिलसिला चल पड़ता है. न्यारा, जो कि असल में एक कूड़ा है, अपने भीतर अनमोल कणों को छुपाए होता है. यही वजह है कि इसे इस तरह से बेचा जाता है और अच्छे दामों में बिकता है. इस व्यापार में कई तरह के लोग शामिल होते हैं. कुछ अपने खुद के रिफाइनरी व्यवसायों के माध्यम से सोने और चांदी के आभूषण का निर्माण करते हैं. न्यारा का यह धंधा सिर्फ व्यवसाय नहीं, बल्कि एक परंपरा भी बन चुका है, जहां सुनारों के कारीगर साल भर अपनी मेहनत के नतीजों को एकत्रित करते हैं और दीपावली पर उन्हें बाजार में उतारते हैं.”

-भारत एक्सप्रेस

आईएएनएस

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