हाईकोर्ट ने कहा कि लैंगिक समानता एवं सांस्कृतिक विविधता जैसे मुद्दों को दिल्ली न्यायिक अकादमी के पाठय़क्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए. क्योंकि पूर्वाग्रह निष्पक्ष एवं न्यायसंगत फैसलों के दुश्मन हैं. न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि न्यायिक शिक्षा और प्रशिक्षण न केवल कानूनी सिद्धांतों पर बल्कि अदालत के सामने आने वाले लोगों के विविध पृष्ठभूमि एवं उसकी वास्तविकताओं पर भी केंद्रित होनी चाहिए.इससे समाज की रूढ़िवादी सोच को बदलने एवं एक बेहतर फैसला देने में मदद मिलेगी. अगर फैसला पूर्वाग्रहों या धारणाओं पर आधारित होता है तो न्यायिक पण्राली को देखने वाला समुदाय भी उसे ही वास्तविकता मान लेगी.
न्यायमूर्ति ने कहा कि इस तरह के प्रशिक्षण से विभिन्न दृष्टिकोणों और अनुभवों की गहरी समझ भी विकसित होगी और न्यायाधीशों को अधिक जानकारी व न्यायसंगत निर्णय लेने में मदद मिलेगी. इससे कानूनी प्रणाली में जनता का विश्वास और भरोसा बढ़ेगा.इसलिए न्यायिक शिक्षा प्रदान करते समय न्यायिक अकादमियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि न्यायाधीशों के लिए उनके सतत न्यायिक शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के हिस्से के रूप में वे लैंगिक पूर्वाग्रहों या रूढ़ियों से मुक्त फैसला लिखने के लिए जागरूकता पैदा करे.इसके लिए वह जागरूकता सम्मेलन तथा प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करें. उन्होंने इससके साथ ही अपने फैसले की प्रति आवश्यक कार्रवाई और अनुपालन के लिए दिल्ली न्यायिक अकादमी के निदेशक को भेजने का निर्देश दिया.
न्यायमूर्ति ने उक्त टिप्पणी करते हुए कहा कि एक महिला पुलिस अधिकारी भी घरेलू हिंसा का शिकार हो सकती है और अदालतों को भी पेशे से जुड़ी लिंग-आधारित या रूढ़िवादी धारणाओं से अंधा नहीं होना चाहिए. उन्होंने इसके साथ ही एक व्यक्ति को उसकी पत्नी के प्रति क्रूरता के आरोप से बरी करने के सत्र अदालत के फैसले को रद्द कर दिया. पत्नी ने आरोप लगाया था कि शादी के तुरंत बाद पति और ससुराल वालों ने उसे दहेज न लाने के लिए ताना मारना और चिढ़ाना शुरू कर दिया और अधिक दहेज की भी मांग की. शादी के समय पति और पत्नी दोनों दिल्ली पुलिस में सब इंस्पेक्टर थे.
-भारत एक्सप्रेस
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