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मेजर धन सिंह थापा: भारतीय सेना का वह जांबाज जो 1962 भारत-चीन युद्ध में मृत घोषित होने के बाद लौटा था जिंदा

भारत ने कभी किसी देश पर हमला नहीं किया, लेकिन जब भी इसकी संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता, और आजादी को चुनौती दी गई, तब-तब यह देश अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए डटकर खड़ा हुआ.

1962 का भारत-चीन युद्ध भारतीय जवानों के अदम्य साहस की दास्तां है. दुश्मन के छल के कारण यह युद्ध भारतीय सेना के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण साबित हुआ था. यह वह समय था, जब भारत आर्थिक और सैन्य दृष्टि से एक नवजात राष्ट्र था और चीन ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए आक्रमण किया था.

यह युद्ध लद्दाख और NEFA (उत्तर-पूर्वी सीमांत एजेंसी, जो अब अरुणाचल प्रदेश है) के दुर्गम पहाड़ों और बर्फीली चोटियों पर लड़ा गया, जहां मौसम और भौगोलिक परिस्थितियां दुश्मन से कम चुनौतीपूर्ण नहीं थीं. उस समय भारतीय सेना हथियार, गोला-बारूद, राशन, परिवहन और यहां तक कि सर्दियों के कपड़ों की भारी कमी से जूझ रही थी. इसके बावजूद हमारे सैनिकों ने असाधारण बहादुरी और दृढ़ निश्चय का परिचय दिया.

धन सिंह थापा की गोरखा टुकड़ी

इस युद्ध में भले ही भारत को हार का सामना करना पड़ा, लेकिन भारतीय सैनिकों और निचले स्तर के अधिकारियों ने साहस और दृढ़ संकल्प में शायद ही कभी कमी दिखाई. भारतीय सैनिकों ने बहादुरी की ऐसी कहानियां लिखीं, जो आज भी हमें प्रेरणा देती हैं. इनमें से एक कहानी है मेजर धन सिंह थापा और उनकी गोरखा टुकड़ी की, जिन्होंने पांगोंग झील के पास सृजाप-1 चौकी पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के खिलाफ वीरता और साहस का ऐसा परिचय दिया, जो आज भी हर भारतीय के दिल में गर्व की भावना भर देता है.

विवाद की शुरुआत


1947 में भारत की स्वतंत्रता के समय तिब्बत के साथ भारत की सीमा का मुद्दा पूरी तरह सुलझा नहीं था. ब्रिटिश शासन के दौरान भारत और तिब्बत के बीच सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध तो थे, लेकिन कोई स्पष्ट और औपचारिक सीमा रेखा तय नहीं थी. इस अनिश्चितता के बीच 1950 में, जब कम्युनिस्ट चीन ने तिब्बत पर हमला कर उसे अपने कब्जे में ले लिया, तो स्थिति और भी जटिल हो गई.

इसी दौरान भारत और चीन के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए. इसके बाद दोनों देशों के संबंधों में उतार-चढ़ाव चलता रहा. जल्द ही चीन के विस्तारवादी मंसूबे साफ हो गए. उसने लद्दाख के अक्साई चिन इलाके पर अपना दावा ठोंकना शुरू कर दिया, वह इस क्षेत्र को शिनजियांग प्रांत का हिस्सा मानता था. 1950 के दशक में चीन ने अक्साई चिन में एक सड़क बनाई और धीरे-धीरे अपने सैनिकों की मौजूदगी बढ़ाना शुरू कर दिया.

यह सड़क शिनजियांग और तिब्बत को जोड़ने वाली सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सड़क थी. यह भारतीय क्षेत्र से होकर गुजरती थी, लेकिन उस समय भारत को इसकी भनक तक नहीं लगी. धीरे-धीरे चीन ने इस क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ानी शुरू कर दी, जिससे दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने लगा.

दलाई लामा को भारत ने दी शरण

कूटनीतिक प्रयासों से संकट सुलझने की उम्मीद दिखी. 1954 में दोनों देशों के बीच पंचशील समझौते (शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच सिद्धांत) पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके तहत भारत ने तिब्बत पर चीन के शासन को स्वीकार किया था. यही वो समय था जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया था. दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते भले ही सुधरते नजर आ रहे थे लेकिन चीन ने अक्साई-चिन क्षेत्र में सड़कें और इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण जारी रखा. दोनों देशों के बीच सुधरते रिश्तों को एक बड़ा झटका तब लगा जब 1959 में 14वें दलाई लामा तिब्बत में एक असफल विद्रोह के बाद भारत भाग आए और उन्हें यहां शरण दी गई. भारत द्वारा दलाई लामा को शरण देने से चीन नाराज हो गया और सीमा पर झड़पें आम हो गईं.

नेफा और अक्साई चिन

हालांकि चीन ने पहले में नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) में मैकमोहन रेखा को आधिकारिक सीमा के रूप में स्वीकार किया था, लेकिन समय के साथ चीन ने अपने रुख में बदलाव किया. चीनी सेना, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) ने मैकमोहन रेखा के पास गश्त शुरू कर दी और अक्सर सीमा पार करके दक्षिण में घुसपैठ करने लगी. स्थिति और गंभीर तब हो गई जब सितंबर 1959 में चीन ने एक नया नक्शा जारी किया, जिसमें उसने भारत के नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) और अक्साई चिन को अपनी क्षेत्रीय सीमा का हिस्सा दिखाया.

इसके जवाब में भारत सरकार ने फॉरवर्ड पॉलिसी की घोषणा की. इस नीति के तहत भारतीय सशस्त्र बलों को पश्चिमी (लद्दाख) और पूर्वी (अरुणाचल प्रदेश) क्षेत्रों में नई सीमा चौकियां स्थापित करने का निर्देश दिया गया. साथ ही जरूरत पड़ने पर बल प्रयोग करके चीनी सेना को भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ से रोकने की जिम्मेदारी सौंपी गई.

भारत सरकार ने यह मान लिया कि चीन का वास्तविक इरादा गंभीर सैन्य कार्रवाई करने का नहीं है. भारत का यह मानना था कि फॉरवर्ड पॉलिसी से चीन पर दबाव बनेगा और वह पीछे हटने पर मजबूर हो जाएगा. लेकिन यह आक्रामक नीति न केवल चीन को उकसाने वाली साबित हुई, बल्कि यहीं से 1962 में भारत-चीन युद्ध की नींव पड़ी.

सृजाप-1 पोस्ट की चुनौती

फॉरवर्ड पॉलिसी के तहत जो कई चौकियां स्थापित की गईं, उनमें से एक सृजाप-1 थी. इसे पांगोंग त्सो झील के उत्तरी किनारे पर 1/8 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन द्वारा स्थापित किया जाना था. रणनीतिक दृष्टि से यह चौकी बेहद महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इसका उद्देश्य चूशुल एयरफील्ड की सुरक्षा सुनिश्चित करना था. सृजाप-1 पोस्ट स्थापित करने की जिम्मेदारी 1/8 गोरखा राइफल्स की डेल्टा (डी) कंपनी के मेजर धन सिंह थापा को सौंपी गई. दुर्भाग्यवश, आदेश देते समय पीएमओ ने इलाके की कठिन भौगोलिक स्थितियों और सप्लाई पहुंचाने में होने वाली मुश्किलों पर विचार नहीं किया.

सृजाप-1 तक जमीन के रास्ते कोई सीधा संपर्क नहीं था. वहां सिर्फ झील के रास्ते ही पहुंचा जा सकता था. इसके अलावा, सीमा पर दूसरी चौकियां बनाने में पहले ही बहुत सारे सैनिक व्यस्त थे. इसलिए सृजाप-1 पर सिर्फ 28 गोरखा सैनिक ही तैनात किए जा सके, जिनका नेतृत्व मेजर थापा कर रहे थे.

भारतीय खुफिया विभाग ने चीनी सेना की तैनाती का सही आकलन नहीं किया और स्थिति की गंभीरता को कम आंक लिया. जब इस गलती का एहसास हुआ और नई चेतावनियां जारी की गईं, तो कई महत्वपूर्ण सूचनाएं अग्रिम मोर्चों तक नहीं पहुंच पाईं.

19 अक्टूबर 1962 की शाम को, मेजर धन सिंह थापा और उनकी डेल्टा कंपनी ने चीनी सेना की भारी तैनाती देखी. दुश्मन की ताकत को बढ़ता देख, मेजर थापा ने अपने गोरखा सैनिकों को आदेश दिया, “जल्दी और गहराई से खुदाई करो.” उन्हें यह आभास हो चुका था कि हमला कभी भी हो सकता है.

सृजाप-1 भीषण लड़ाई

20 अक्टूबर 1962 की सुबह 4:30 बजे, चीनी सेना (पीएलए) ने लद्दाख और नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) दोनों पर हमला शुरू कर दिया. सृजाप-1 चौकी पर ढाई घंटे तक तोपखाने और मोर्टार से भारी गोलाबारी होती रही. भारतीय गोरखा सैनिकों के पास तोपखाने का कोई सपोर्ट नहीं था और वे सिर झुकाकर किसी तरह अपनी जान बचाने की कोशिश कर रहे थे. इस दौरान, पीएलए की सेना सृजाप-1 चौकी से मात्र 150 मीटर की दूरी तक पहुंच गई. गोरखा सैनिकों ने दुश्मन के पास पहुंचते ही भारी गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे चीनी सेना को तगड़ा नुकसान हुआ. इसके जवाब में, पीएलए ने एक बार फिर तोपखाने से हमला किया. इस बार भारतीय सैनिकों को बड़ा नुकसान हुआ, और उनका संचार उपकरण भी नष्ट हो गया. इस हमले से उनका बटालियन मुख्यालय से संपर्क टूट गया, और वे अपने हाल पर छोड़ दिए गए थे.

चौकी से महज 50 मीटर की दूरी पर पहुंचकर, पीएलए ने गोरखा सैनिकों को उनके बंकरों से बाहर निकालने के लिए धुआं बमों का इस्तेमाल किया. इसके बावजूद, निडर गोरखा सैनिकों ने बहादुरी से लड़ाई जारी रखी और दुश्मन को भारी नुकसान पहुंचाया. मेजर थापा खुद एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाते रहे, अपने सैनिकों का हौसला बढ़ाते हुए उन्हें प्रेरित करते रहे कि वे रुकें नहीं और पूरी ताकत से दुश्मन को जवाब दें.

इस दौरान, कंपनी के सेकंड-इन-कमांड (2IC) सुबेदार मीन बहादुर गुरंग ने असाधारण साहस का परिचय दिया. उन्होंने हल्की मशीन गन (LMG) संभाल रखी थी और दुश्मनों के लिए खतरा बने हुए थे. लेकिन तोपखाने की फायरिंग ने उनके बंकर को नष्ट कर दिया, जिससे वे मलबे में दब गए. गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद, गुरंग मलबे से बाहर निकले और फिर से फायरिंग शुरू कर दी. उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक लड़ाई जारी रखी.

अंतिम चरण की लड़ाई

सृजाप-1 में अब केवल सात सैनिक ही बचे थे. जब पीएलए ने देखा कि लड़ाई समाप्ति की ओर है, उन्होंने भारी मशीन गन (HMG) और रॉकेटों के साथ एक और बड़ा हमला किया. इसके साथ ही, झील की ओर से भी दो एंफीबियस क्राफ्ट पर सवार चीनी सैनिकों ने HMG से हमला किया. इस बीच, बटालियन मुख्यालय ने चौकी की स्थिति जानने के लिए दो स्टॉर्म बोट भेजीं. पीएलए ने दोनों पर फायरिंग की. एक बोट पूरी तरह डूब गई, जबकि दूसरी बुरी तरह क्षतिग्रस्त होकर किसी तरह बच निकली.

आखिरकार, एक और बड़े हमले के बाद चौकी पर केवल तीन सैनिक जीवित बचे. इनमें से एक मेजर धन सिंह थापा थे. जब उनके पास गोला-बारूद खत्म हो गया, तो मेजर थापा दुश्मन पर टूट पड़े और खुखरी से कई दुश्मनों को मार गिराया. लेकिन अंत में उन्हें और उनके दो साथियों को चीनी सेना ने पकड़ लिया.

सृजाप-1 की लड़ाई के बाद, जो स्टॉर्म बोट किसी तरह बच निकली, उसने बटालियन मुख्यालय को यह सूचना दी कि सृजाप-1 चौकी पर अब चीनी सेना ने कब्ज़ा कर लिया है और कोई भी सैनिक जीवित नहीं बचा. इस सूचना के आधार पर, मेजर धन सिंह थापा को मृत मान लिया गया.

परमवीर चक्र से सम्मानित किए गए मेजर थापा


हालांकि, मेजर थापा की मृत्यु नहीं हुई थी, बल्कि उन्हें और और उनके दो साथियों को चीन ने युद्ध बंदी बना लिया था. कैद में, मेजर थापा को अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ा. अपने देश और सेना के खिलाफ बयान देने से इनकार करने पर उन्हें शारीरिक यातनाएं दी गईं. लेकिन गोरखा अधिकारी डटे रहे. कैदियों में से एक राइफलमैन तुलसी राम थापा कैद से भागने में सफल रहे और उन्होंने भारतीय मुख्यालय को मेजर धन सिंह थापा के जीवित होने की खबर दी. युद्ध समाप्त होने के बाद मेजर थापा को रिहा किया गया.

भारत सरकार ने मेजर धन सिंह थापा को मरणोपरांत सर्वोच्च सैन्य सम्मान, परमवीर चक्र से सम्मानित किया, क्योंकि उन्हें युद्ध में मृत मान लिया गया था. उनकी वापसी के बाद भी यह सर्वोच्च सैन्य सम्मान उन्हें प्रदान किया गया. 1980 में, वे लेफ्टिनेंट कर्नल के पद से सेवानिवृत्त हुए. उनके सम्मान में, पांगोंग झील के उत्तरी किनारे पर चांगछेनमो रेंज के फिंगर-3 के पास स्थित एक सीमा चौकी का नाम “धन सिंह थापा पोस्ट” रखा गया. यह बहादुर सैनिक 2005 में दुनिया को अलविदा कह गया.

-भारत एक्सप्रेस

Prashant Rai

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