कुछ फैसले ऐसे होते हैं जो इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो जाते हैं. ऐसे ही कई फैसले समाजवादी नेता मुलायम सिंह के नाम दर्ज हैं. कुछ विवादित रहे तो कुछ ऐसे कि जिनका कर्ज कभी चुकाया नहीं जा सकता. इन्हीं में से एक था हमारे सैनिकों का पार्थिव शरीर उनके घर तक आना. आज की तरीख में शहीद हुए सैनिकों का पार्थिव शरीर उनके घर पहुंचता है और राजकीय सम्मान के बीच परिजन दाह संस्कार करते थे. लेकिन, 1997 से पहले बहुत सारे परिवारों को उनके लाल के आखिरी दर्शन भी नहीं हो पाते थे. शहीद सैनिक के परिजनों को सिर्फ टोपी और बेल्ट नसीब होता था.
मुलायम सिंह यादव ने शहीद सैनिकों के परिवारों का दर्द समझा और देश का रक्षा मंत्री रहते हुए ऐसा फैसला लिया जो कालजयी बन गया. उनके कुछ अहम फैसलों से हम आपको रूबरू कराते हैं, जहां बेहद ही जमीनी और अड़ियल फैसले लेते मुलायम सिंह से आपका परिचय होगा.
मुलायम सिंह 1 जून 1996 से 19 मार्च 1998 तक देश के रक्षा मंत्री रहे थे. इसी दौरान उन्होंने शहीदों के परिजनों के लिए एक बड़ा फैसला लिया. मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने कानून बनाया कि अगर कोई जवान शहीद होता है तो उसका पार्थिव शरीर राजकीय सम्मान के साथ उसके घर पर पहुंचाया जाए. इससे पहले शहीद जवान की टोपी ही उसके घर पहुंचती थी. इसके अलावा मुलायम के रक्षा मंत्री रहते ही भारत ने सुखोई-30 लड़ाकू विमान का सौदा भी किया था.
अपने शुरुआती राजनीतिक सफर में मुलायम सिंह यादव जनता समाजवादी विचारधारा के नेताओं के साथ किया. राम मनोहर लोहिया और राज नरायण जैसे समाजवादी विचारधारा के नेताओं की छत्रछाया में राजनीति की बारिकियों को समझा. 1967 में महज 28 साल की उम्र में पहली बार विधायक बन गए थे. उनकी सियासी पारी तब परवान चढ़ी जब उन्होंने जनता दल से किनारा करके नए राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी का गठन किया. यह वह दौर था जब पिछड़ी जातियां तेजी से आगे बढ़ रही थीं और तब तक मुलायम सिंह ने अपना वोट बैंक तैयार कर लिया था. वो सियासत की सीढ़ी में साल दर साल ऊपर चढ़ते गए.
मुलायम सिंह यादव कई बार पार्टी लाइन से बाहर जाकर काम करते दिखाई दिए. हालांकि, यूपीए में जब कई पार्टियां न्यूक्लियर डील को लेकर गठबंधन से किनारा कर रही थीं. तब मुलायम सिंह यादव ने यूपीए-1 की सरकार का साथ दिया था.
साल 2008 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर संकट में आ गई थी तब वामपंथी दलों ने समर्थन वापस ले लिया था. ऐसे में यूपीए सरकार पर सत्ता से बाहर होने का खतरा मंडराने लगा था. ऐसे समय पर मुलायम सिंह यादव काग्रेस के लिए संजीवनी बूटी साबित हुए. उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देकर सरकार बचाई थी. जानकारों का कहना था कि उनका ये क़दम समाजवादी सोच से अलग था और व्यवहारिक उद्देश्यों से ज़्यादा प्रेरित था.
यह फैसला अक्सर विवादों में रहा. दरअसल, इस फैसले के पीछे की पृष्ठभूमि को समझने के लिए उस दौर के सियासी बवंडर को समझना भी बहुत जरूरी है. वर्ना एक खास एंगल से इसकी समीक्षा मुलायम सिंह की शख्सियत के साथ अत्याचार बी होगा. दरअसल, यह वो दौर था जब देश में मंडल और कंमडल की राजनीति चरम पर थी. साल था 1989 और उतर-प्रदेश की बागडौर मुलायम सिंह के हाथों में थी. इस दौरान देश में अयोध्या मंदिर और बाबरी मस्जिद के बीच लगी नफरती आग पूरे देश में फैल रही थी. कारसेवक अयोध्या में घुसने के लिए लामबंद थे और प्रशासन को सख्त हिदायत थी कि उन्हें अयोध्या से बाहर रखा जाए.
अक्टूबर, 1990 में आक्रोशित कारसेवकों पर मुलायम सिंह यादव ने गोली चलाने का आदेश दिया. इस घटना में आधिकारिक रूप से एक दर्जन से ज्यादा लोग मारे गए थे. इस पर बाद में मुलायम सिंह ने अपने बयान में कहा था कि यह फैसला बेहद कठिन था लेकिन समय और परिस्थितियों को देखते हुए उन्हें यह फैसला मजबूरी में लेना था क्योंकि इसके अलावा उनके पास और दूसरा कोई विकल्प मौजूद नहीं था.
यह बात किसी से छुपी नहीं है कि मुलायम सिंह अपने बेटे अखिलेश यादव से बेहद प्यार करते थे. मुलायम के कहने पर ही अखिलेश सियासत में आए. ऐसा इसलिए भी क्योकि मुलायम के द्वारा बनाए गए विशाल सियासत का उतराधिकारी अखिलेश यादव ही थे. मुलायम सिंह यादव तब तक तीन बार यूपी के मुख्यमंत्री बन चुके थे और साल 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने 403 सीटों में से 226 सीटे जीतकर यूपी का ताज अपने बेटे अखिलेश यादव के सर पर पहना दिया था. हालांकि सियासी गलियारों में यह कहा जाता है कि बेटे के मोह में उन्होंने पार्टी को खड़ा करने में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले अपने छोटे भाई शिवपाल यादव को नजरअंदाज कर दिया
एक दौर ऐसा आया जब मुलायम सिंह यादव के हाथों बनाई गई उनकी समाजवादी पार्टी में भीतरी फूट पड़ गई. भाई शिवपाल यादव और बेटे अखिलेश यादव में जमकर तनातनी देखी गई. इससे उनके चचेरे भाई रामगोपाल यादव भी अछूते नहीं रहे. मुलायम ने रामगोपाल को पार्टी से निकालकर सबको चौंका दिया था. मुलायम सिंह की बिगड़ती तबीयत के कारण पार्टी में वह सक्रिय नहीं रह सके,नतीजतन पार्टी की अंदरूनी खीेंचतान बढ़ती गयी, जिसका भारी नुकसान पार्टी को 2017 और 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में हार के साथ चुकाना पड़ा.
-भारत एक्सप्रेस
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