सुप्रीम कोर्ट ने (Supreme Court) संविधान की प्रस्तावना (Preamble) में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया है. कोर्ट ने कहा कि संसद के पास यह अधिकार है कि वह बदलाव कर सकती है.
सीजेआई संजीव खन्ना (CJI Sanjeev Khanna) और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने कहा कि संसद की संशोधन शक्ति प्रस्तावना तक भी फैली हुई है. प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति को सीमित नहीं करती है. यही कहते हुए कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया है.
सीजेआई संजीव खन्ना ने सुनवाई के दौरान कहा कि लगभग इतने साल हो गए है, अब इस मुद्दे को क्यों उठाया जा रहा है. इन शब्दों को 1976 में 42वें संशोधन के दौरान विवादास्पद परिस्थितियों में जोड़ा गया. मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि समाजवाद और पंथनिरपेक्षता शब्दों की आज अलग-अलग व्याख्याएं है. यहां तक कि हमारी अदालतें भी इन्हें बार-बार बुनियादी ढांचे का हिस्सा घोषित कर चुकी है.
यह याचिका बलराम सिंह, भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की ओर से दायर की गई थी. याचिका में कहा गया था कि यह असंवैधानिक है.
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया है कि प्रस्तावना में इन शब्दों को जोड़ना संसद को अनुच्छेद 368 के तहत मिली संविधान संशोधन की शक्ति से परे है. वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा कि इस मुद्दे पर संसद में बहस नहीं हुई थी, यह संविधान सभा में हुए विचार के विरुद्ध है. वहीं याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में जो बदलाव हुआ, वह मूल संविधान की भावना के खिलाफ था. स्वामी ने कोर्ट से अनुरोध किया की वो अपनी दलील विस्तार से रखना चाहते है.
याचिका में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़े जाने की वैधानिकता को चुनौती दी गई थी. कहा गया था कि प्रस्तावना में इन शब्दों को जोड़ना संसद को अनुच्छेद 368 के तहत मिली संविधान संशोधन की शक्ति से परे है.
-भारत एक्सप्रेस
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