Bismillah Khan: आज पूरा देश भारत रत्न से सम्मानित शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां की जयंती मना रहा है. देश के प्रति समर्पित उनके जीवन के उन पलों को भी याद किया जा रहा है, जो भारत के इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुके हैं. उन्होंने हमेशा भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को जिंदा रखा, जिसका उदाहरण है कि वो नमाज तो मस्जिद में करते थे, लेकिन रियाज मंदिर में किया करते थे. एक समय था कि जब बनारस में सुबह की पहली किरण के साथ शहनाई का एक अद्भुत सुर सुनाई पड़ता था और इसके साथ ही मंदिरों की घंटियां. दोनों मिलकर भारत में हर धर्म की समानता की मिसाल प्रस्तुत करती थी. खां की शहनाई की धुन केवल देश के लोग ही नहीं, बल्कि विदेश से भी लोग सुनने के लिए पहुंचते थे. आज बिस्मिल्लाह खान भले ही हमारे बीच नहीं पर उनका संगीत आज भी लोगों का मनोरंजन कर रहा है और हिंदू-मुस्लिम एकता की गाथा गा रहा है.
21 मार्च, 1916 को बिहार के बक्सर जिले में कमरुद्दीन खान का जन्म हुआ था. बिस्मिल्लाह खान का असली नाम कमरुद्दीन था. उन्हें बिस्मिल्लाह खान नाम अपने दादा से मिला था. कहते हैं कि जैसे ही कमरुद्दीन के दादा ने उन्हें गोद में उठाया, उनके मुंह से निकला “बिस्मिल्लाह”. उस दिन के बाद से सभी ने कमरुद्दीन को बिस्मिल्लाह कहना ही शुरू कर दिया. उनका निधन 21 अगस्त 2006 को 90 वर्ष की उम्र में हुआ था. भले ही बिस्मिल्लाह खान हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी शहनाई की मधुर गूंज आज भी हमें उनकी याद दिलाती है. उनके पिता का नाम पैगंबर खां और माता का नाम मिट्ठन बाई था. वे अपने माता-पिता के दूसरे संतान थे.
बिस्मिल्लाह खां एक संगीत घराने से ताल्लुक रखते थे. उनके चाचा, अली बक्श, काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाया करते थे. बचपन के दिनों में बिस्मिल्लाह अपने चाचा के पीछे-पीछे मंदिरों में जाते थे और उन्हें शहनाई बजाता देखते थे. इस तरह से उनका बचपन मंदिर के अंदर ही बीता. वह करीब छह साल के रहे होंगे, जब उन्होंने फैसला किया कि वह अपने चाचा की तरह शहनाई बजाएंगे. उस दिन लिए उनके इस फैसले ने उनकी जिंदगी को एक नया मोड़ दे दिया. जिस दिन बिस्मिल्लाह ने शहनाई बजाने का फैसला किया, उसी दिन से उन्होंने अपने चाचा को अपना गुरु बना लिया.
उस्ताद रोज़ सुबह अपने चाचा के साथ बनारस के घाट पर जाते और गंगा मां की गोद यानी घाट पर बैठकर शहनाई बजाना सीखते. इस तरह से बिस्मिल्लाह बेहतर होते गए. उनके चाचा ने उन्हें कशी विश्वनाथ मंदिर में अपने साथ शहनाई बजाने का मौका दिया. इसके बाद से दोनों मिलकर मंदिरों और हिंदू शादियों में शहनाई बजाने लगे.
बिस्मिल्लाह यूं ही ‘भारत रत्न’ नहीं हैं. उन्होंने कभी भी हिंदू और मुस्लिम धर्म को अलग नहीं समझा. कहते हैं कि बिस्मिल्लाह खान माता सरस्वती को पूजते थे. उनसे अपनी कला को और बेहतर बनाने की दुआ मांगते थे. बिस्मिल्लाह जानते थे कि वह मुस्लिम हैं, पर वह एकता में विश्वास रखते थे. वह हर धर्म के भगवान को एक समान मानते थे. यही कारण रहा कि मां सरस्वती की कृपा बिस्मिल्लाह पर बरसी और वक़्त के साथ उनका हुनर बढ़ता गया. बनारस में उनकी शहनाई के चर्चे होने लगे थे. सब की ज़ुबान पर यही बात थी कि एक नया शहनाई उस्ताद, घाट पर शहनाई बजाने आया है. थोड़े ही वक़्त में उनका नाम इतना फेमस हो गया कि “ऑल इंडिया म्यूजिक कांफ्रेंस कलकत्ता” में संगीत के महारथियों के सामने उन्हें शहनाई बजाने का मौका मिलने लगा और वह बड़े-बड़ों को टक्कर देने लगे. कहा जाता है कि उस शाम बिस्मिल्लाह खान ने ऐसी शहनाई बजाई कि हर कोई उनका दीवाना हो गया. उस दिन के बाद से शहनाई के प्रति सब का नज़रिया बदल गया. कलकत्ता से बिस्मिल्लाह खान ने इतना नाम कमाया कि वह जैसे ही वापस लौटे ऑल इंडिया रेडियो, लखनऊ ने उन्हें नौकरी पर रख लिया.
ऑल इंडिया रेडियो में जब से बिस्मिल्लाह खान ने अपनी शहनाई का सुर छेड़ा, तो पूरा देश उनका कायल हो गया. जहां लोग उनकी धुन में खोये हुए थे, वहीं दूसरी ओर भारत में आज़ादी की जंग चल रही थी. वो साल 1947 था. अंग्रेजी हुक़ूमत हार चुकी थी और भारत को आज़ादी मिल गयी थी. भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा फहराकर आज़ादी का जश्न मनाया. वहीं, उन्होंने इस जश्न में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को भी बुलाया, ताकि वो पूरे भारत को आज़ादी की धुन सुना सके. साल 1950 में भारत अपने पहले गणतंत्र दिवस की तैयारी में था. झाकियों से लेकर सेना के टैंक तक गणतंत्र दिवस के लिए तैयार हो चुके थे. हालांकि, पहले गणतंत्र दिवस की तैयारियों में कुछ कमी थी और इस कमी को बिस्मिल्लाह खां ने अपनी शहनाई की धुन से पूरा किया और भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह के मौके पर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने लाल किले से ‘राग कैफ़ी’ छेड़ा. वो राग इतना बुलंद था कि आज तक उसका इस्तेमार गणतंत्र दिवस के मौके पर किया जाता है.
उस्ताद बिस्मिल्लाह खां हमेशा ही गंगा-जमुनी तहजीब का पालन करते थे. उनका धर्म भले ही अलग था मगर गंगा नदी और मंदिरों के लिए उनके दिल में बहुत इज्जत थी. खुद पर बनी एक डॉक्युमेंट्री में वह बनारस से अपने रिश्ते के बारे में बताते नज़र आ रहे हैं. अपनी उस विडियो में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कहते हैं कि “गंगा जी सामने है, यहाँ नहाइए, मस्जिद है, नमाज़ पढ़िए और बालाजी मंदिर में जा के रियाज़ करिए.” उनका यह बयान ये बताता है कि उनके जीवन में मंदिर और गंगा की क्या भूमिका थी. यह बिस्मिल्लाह खान का संगीत और व्यवहार ही था, जिसने उन्हें भारत रत्न, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और पद्म श्री जैसे सर्वोच्च पुरस्कार दिलवाए.
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को दुनिया में शहनाई के बेताज फनकार के रूप में अभी भी जाना जाता है. बताते हैं कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने गंगा के घाट से लेकर अमेरिका तक शहनाई की गूंज को स्थापित किया था. उन्हें दुनिया के प्रख्यात शहनाई वादकों में शुमार किया जाता है. बताया जाता है कि एक बार उन्हें अमेरिका से इसको लेकर ऑफर भी आया था. उन्हें कहा गया था कि आप सिर्फ हमारे यहां आ जाओ, लेकिन बिस्मिल्लाह खान ने अमेरिका के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. इसका सबसे बड़ा कारण था कि बिस्मिल्लाह मानते थे कि अमेरिका जाने से वह गंगा और काशी के घाटों से बिछड़ जाएंगे. बिस्मिल्लाह खान ने शहनाई वादकों के लिए एक कमाई का जरिया भी स्थापित किया. उन्होंने बड़े-बड़े संगीतकारों के साथ जुगलबंदी की. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को आजाद भारत के पहले शहनाई बजाने का भी गौरव प्राप्त है. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से 15 अगस्त 1947 को शहनाई बजाने का आग्रह किया था जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया.
बिस्मिल्लाह खान ने पारंपरिक गीतों पर ही शहनाई को पहले बजाया जिसमें कजरी, चैता और झूला की धूने शामिल थीं. बाद में उन्होंने अपनी कला में और निखार करने लाने की कोशिश की. उन्होंने शहनाई को नए गाने में पेश करने की भी शुरुआत कर दी थी. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शादी महज 16 साल की उम्र में हो गई थी. हालांकि, शहनाई के प्रति उनका प्यार हमेशा बहुत बड़ा रहा. तभी वे शहनाई को अपनी दूसरी बेगम भी कहते थे. उनका बहुत बड़ा परिवार था जिसका भरण पोषण की जिम्मेदारी भी बिस्मिल्लाह खान के ऊपर थी. इसमें हमेशा बिस्मिल्लाह खान अव्वल साबित हुए.
बता दें कि वर्षों से जो दूरदर्शन और आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून हमें सुनाई देती है, उसकी भी धुन अपनी शहनाई के जरिए बिस्मिल्लाह खान ने ही तैयार की थी. बिस्मिल्लाह खान की शहनाई में एक जादू ही तो था जो सभी को आकर्षित करता था.
इस शहनाई की वजह से ही उन्होंने प्रसिद्धि पाई और अपने आपको शहनाई वादक के तौर पर स्थापित भी किया. इसके साथ ही उन्होंने संगीत की दुनिया में शहनाई को एक अलग पहचान भी दिलाई. उनके इसी अथक प्रयास और शहनाई बजाने की अद्भुत कला को देखते हुए शांति निकेतन और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी थी.
साल 2001 में संगीत के क्षेत्र में उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था. इसके अलावा उन्हें साल 1980 में ‘पद्म विभूषण’ और साल 1968 में ‘पद्म भूषण’ से भी सम्मानित किया गया था. जबकि साल 1961 में उन्हें ‘पद्म श्री’ के पुरस्कार से भी नवाजा गया.
बिस्मिल्लाह खां के शहनाई वादन को हर साल 15 अगस्त को दूरदर्शन पर भी पुनर्प्रसारण किया जाता है. बताया जाता है कि वो शहनाई बजाकर जो कुछ भी कमाते थे, उससे वो लोगों की या तो मदद कर देते थे या फिर अपने बड़े परिवार के पालन-पोषण पर खर्च कर देते थे. वो अपने लिए कभी नहीं सोचते थे. शायद यही वजह रही कि उन्हें आर्थिक रूप से भी मुसीबतों का सामना करना पड़ा. इसके बाद सरकार को उनकी मदद के लिए आगे आना पड़ा था. बताते हैं कि उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दिनों में दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा जाहिर की थी, लेकिन उनकी ये इच्छा पूरी न हो सकी और 21 अगस्त 2006 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया. बताया जाता है कि शहनाई के प्रति उनके प्रेम को देखते हुए ही उनके निधन के बाद उनके साथ शहनाई को भी दफन किया गया था.
-भारत एक्सप्रेस
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