महाकुंभ 2025

संगमनगरी में महाकुंभ का आयोजन, लाव-लश्कर के साथ महिला अखाड़ा लगाएगा डुबकी

Maha Kumbh 2025: प्रयागराज एक बार फिर तैयार है. शाही सवारी, अखाड़ों का जलसा, साधू-संतों की संगत और देश दुनिया से आने वाले करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए. जनवरी माह में संगमनगरी में महांकुभ की अलग दुनिया बसने जा रही है. सनातनियों के लिए महाकुंभ क्या है इसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे महाकुंभ की अलौकिकता की व्याख्या नहीं की जा सकती. महाकुंभ की शान, भव्यता, और गौरवपूर्ण इतिहास इसके वैभव को दिव्यशाली बना देता है.

परंपरा, संस्कृति और भव्यता का मंच

हर चार साल में कुंभ, 6 साल में अर्धकुंभ और 12 साल में महाकुंभ के दौरान अखाड़े शानो-शौकत, संस्कृति और परंपरा के साथ सम्मलित होते हैं. बात अखाड़ों के प्रकार की करें तो 13 अखाड़ों में सात अखाड़े शैव सन्यासी तीन अखाड़े बैरागी वैष्णव और चार अखाड़े उदासीन संप्रदाय के हैं. शैव अखाड़े भगवान शिव, वैष्णव अखाड़े भगवान विष्णु और उदासीन अखाड़े पंचतत्व के उपासक होते हैं.

2013 में अस्तित्व में आया महिला अखाड़ा

आठवीं सदी में चार मुख्य अखाड़े थे. लेकिन 1954 में अखाड़ा परिषद की स्थापना के बाद इनकी संख्या बढ़ाकर 13 कर दी गई. वहीं साल 2013 में देश का पहला महिला अखाड़ा अस्तित्व में आया. महिला शंकराचार्य त्रिकाल भवंता ने प्रयागराज जो पहले इलाहाबाद के नाम से प्रसिद्ध था, में इसकी स्थापना की. हर अखाड़े की तरह इस अखाड़े का भी अपना नाम है. इसे श्रीसर्वेश्वर महादेव बैकुंठ धाम मुक्ति द्वार अखाड़े के नाम से जाना जाता है. गुरु दत्तात्रेय को इस अखाड़े के आराध्य और गायत्री माता ईष्ट देवी मानी जाती है.

क्यों बना महिला अखाड़ा ?

महिला अखाड़े से पहले भी कई अखाड़ों में महिला साधू-संत होती थी. महिला अखाड़े की प्रमुख त्रिकाल भवंता के मुताबिक अखाड़ों में महिला साधू-संतों को सम्मान और स्थान मिलता था. लेकिन समाज की बाकी संस्थाओं की तरह महिलाओं का शोषण होता था. उन्हें वो स्थान नहीं मिल पाता था जो उन्हें मिलना चाहिए था. जिसके बाद 2013 में अखाड़ों और कई तरह के विरोध के बावजूद महिला अखाडा गठित किया गया.

मोह का त्याग पहली सीढ़ी

महिला अखाड़े में दीक्षा लेने से पहले हर महिला सन्यासी को संकल्प लेना पड़ा है. संकल्प समाज, परिवार, रिश्ते-नातों और मोह माया से दूर होने का. उन्हें साध्वी बनने से पहले साबित करना पड़ता है कि वे परिवार और समाज का त्याग कर चुकी हैं. इसके बाद ही उन्हें आचार्य द्वारा दीक्षा दी जाती है. दीक्षा संपूर्ण होने के बाद परंपरा के मुताबिक महिला संन्यासी को पीला वस्त्र धारण करना पड़ता है. इतना ही नहीं महिला साधु अपने केश उतारकर खुद ही अपना पिंडदान भी करती है. सबसे बड़ी बात ये है कि हर जाति की महिला बिना किसी भेदभाव के दीक्षा ग्रहण कर सकती है.

महिला सन्यासिन का शिक्षा और प्रशिक्षण

महिला अखाड़े में महिला सन्यासिनों को दीक्षा देने के दौरान शिक्षित और प्रशिक्षित किया जाता है. उन्हें सांस्कृतिक पहलुओं से रुबरु कराने के साथ धार्मिक और आध्यातिमक ज्ञान दिया जाता है. साथ ही कई तरह के प्रशिक्षण में भी निपुण बनाया जाता है.

आसान नहीं अखाड़े की डगर

दीक्षा ग्रहण करने के बाद अवधूतानी मां के रूप में सन्यासिन दिनभर भगवान का जप करती हैं. सुबह भगवान शिव और शाम को भगवान दतात्रेय की अराधना करती हैं. इस साधना के पूर्ण होने के बाद महिला साधू को माता की उपाधि दी जाती है. महाकुंभ में महिला साधुओं का भी अखाड़ा भी सम्मलित होता है. जिनके लिए विशेष प्रकार की व्यवस्थाएं की जाती हैं.

-भारत एक्सप्रेस

रेनू शिरीष शर्मा

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