कुदरत इंसान को संभलने, सुधरने और सावधान हो जाने का संकेत बार-बार दे रही है, बार-बार आगाह कर रही है कि प्रकृति से छेड़छाड़ विनाश का कारण बन सकता है। 2013 में में केदारनाथ त्रासदी और 2021 में चमोली त्रासदी के रूप में उत्तराखंड प्रकृति के रौद्र रूप के दर्शन कर चुका है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में एक बार फिर ये चेतावनी देखने को मिली है। भारी बारिश, बादल फटने और भूस्खलन से अब तक 70 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, हजारों बेघर हो गए हैं। हिमाचल के मंडी-कुल्लू नेशनल हाईवे पर भी तबाही ने दस्तक दी है। ऊपर पहाड़ों से बड़े-बड़े पत्थर गिरने के कारण ये राष्ट्रीय राजमार्ग बर्बाद हो गया। कालका-शिमला नेशनल हाईवे-5 का हिस्सा, सोलन-परवाणु फोरलेन सड़क धंस गई जिसका मलबा कई घरों तक पहुंच गया।
एक अनुमान के मुताबिक इस खौफनाक बारिश, बाढ़ और लैंडस्लाइड के चलते 7,500 करोड़ का नुकसान हो चुका है। यहां हुए नुकसान की भरपाई कब होगी, कैसे होगी, कहना मुश्किल है, लेकिन दूर-दराज के इलाकों में भी भयानक मंजर है। जो लोग फंसे हैं उन्हें वायुसेना के हेलिकॉप्टर से रेस्क्यू किया जा रहा है। हर एक जान बचाने की कोशिश हो रही है। खतरा अभी टला नहीं है। मौसम विभाग की मानें तो अभी अगले हफ्ते तक दोनों राज्यों को बारिश का कहर झेलना पड़ सकता है। मौसम में असामान्य बदलाव केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में देखा जा रहा है, जिसके लिए पूरी तौर पर इंसान जिम्मेदार है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ पर बन रही सड़कें, पहाड़ तोड़ने में विस्फोट, नदियों में गिरने वाली सड़क और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण का मलबा, पहाड़ों की गलत तरीके से कटाई, पहाड़ के नीचे लंबे सुरंग प्रोजेक्ट, पहाड़ी शहरों पर बढ़ती आबादी, पहाड़ में घर निर्माण की नई शैली, बिजली कारखाने, पर्यटन और पर्यटक का बोझ, क्लाइमेट चेंज, टूटते ग्लेशियर और ज्यादा बारिश का बड़ा कारण बन रहा है।
हिमाचल प्रदेश में पिछले दो साल में भू-स्खलन की घटनाओं में छह गुना वृद्धि हुई है। स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट डिपार्टमेंट के जुटाए आंकड़ों के मुताबिक 2020 में हिमाचल प्रदेश में भू-स्खलन की 16 घटनाएं हुईं जो 2021 में 100 और 2022 में बढ़कर 117 हो गईं। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के सर्वे में सामने आया है कि हिमाचल प्रदेश की 17,120 साइट भू-स्खलन प्रभावित हैं। इनमें से 675 साइट रिहायशी इलाकों और महत्वपूर्ण इंफ्रास्ट्रक्चर ठिकानों के निकट हैं। इसरो (ISRO ) के मुताबिक चंबा, मंडी, शिमला से लेकर किन्नौर, सिरमौर तक सभी 12 ज़िले भू-स्खलन प्रभावित क्षेत्र में आते हैं।
एक्सपर्ट्स का मानना है कि दोनों पहाड़ी राज्य भूगर्भीय और पारिस्थितिकी के हिसाब से काफी कमजोर और संवेदनशील हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ अभी उम्र के हिसाब से बहुत युवा हैं। हिमालय करीब 50 मिलियन वर्ष पहले बनना शुरू हुआ जो अब भी जारी है, जबकि पश्चिमी घाट के पहाड़ 150 मिलियन साल पुराने हैं। पश्चिमी हिमालय कायांतरित यानी मेटामोरफिक चट्टानों से बने हैं। ये चट्टानें इतनी मजबूत नहीं होतीं जितनी पश्चिमी घाटों की चट्टानें।
दूसरी बात यह है कि पहाड़ों पर घने वन मिट्टी और चट्टानों को सुरक्षित रखते हैं। डिजास्टर मैनेजमेंट विशेषज्ञ मानते हैं कि भूस्खलन की एक बड़ी वजह वनों की कटाई भी है। दरअसल पेड़ों की जड़ें मिट्टी पर मजबूती के साथ पकड़ बनाती हैं, पहाड़ों के पत्थरों को भी बांधकर रखती हैं। जब निर्माण कार्य होता है तो जंगल काटे जाते हैं और पेड़ों को काटने से ये पकड़ ढीली पड़ जाती है। इसी वजह से जब बारिश होती है तब पहाड़ों से टूटकर चट्टानें गिरती हैं जिससे भारी तबाही मचती है। निर्माण के दौरान पहाड़ों के ढलान को काटा जाता है जिसका मलबा नदी में गिरता है जो नदी का मार्ग अवरुद्ध करता है। नतीजा यह होता है कि भारी बारिश होने पर नदी विकराल रूप धारण कर तबाही मचाती है। पहाड़ के ढलान कटने से पूरा क्षेत्र अस्थिर होता है।
हिमाचल में 10 साल में सड़कों का निर्माण तेजी से हुआ है। सड़क परिवहन मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2014 में 2,196 किमी राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण हुआ था जो 2023 में बढ़कर 6,954 किमी हो गया। सड़क परिवहन मंत्रालय के पहाड़ों पर सुरंगों के आंकड़ों को देखें तो उत्तराखंड में 18 सुरंगें फंक्शनल हैं जबकि 66 बनाने की योजना है जबकि हिमाचल में 1 फंक्शनल है और 19 बनाने की योजना है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने चारधाम यात्रा के लिए सड़क को चौड़ा करने पर आपत्ति जतायी थी। सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देकर इसे जरूरी बताया था लेकिन विकास के नाम पर पहाड़ों से अवैज्ञानिक तरीके से छेड़छाड़ बहुत महंगा पड़ सकता है।
शिमला में आई तबाही के लिए कुदरत को कोसा जा रहा है, जबकि सच ये है कि यहां विकास के नाम पर विनाश लाया जा रहा है। एक तथ्य ये है कि यहां मकानों के कंस्ट्रक्शन से जमीन पर भार बढ़ रहा है। अंग्रेजों ने शिमला को 25 हजार की आबादी के हिसाब से बसाया था, लेकिन आज यहां 2.30 लाख से अधिक मकान हैं। करीब 90 फीसद से अधिक मकान 45 से 60 डिग्री की ढलान वाली पहाड़ियों पर बने हैं। कई इलाकों में मकान 70-75 डिग्री के ढलान पर बने हैं, जबकि NGT की तरफ से 45 डिग्री से अधिक ढलान पर निर्माण कार्य की मनाही है। बावजूद इसके 70 प्रतिशत से अधिक ढलान वाले इलाकों में भी मकान बनाने की इजाजत दे दी गई है।
पहाड़ों में तबाही का एक प्रमुख कारण हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट भी हैं। इसके लिए टनल बनाते समय विस्फोट किए जाते हैं, भारी मशीनों के इस्तेमाल से पहाड़ों में तेज कंपन होता है। तमाम चेतावनियों के बावजूद जोशीमठ के पास पीपलकोठी और विष्णुगढ़ में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट बनाने का काम चल रहा है। उत्तराखंड के जोशीमठ में जमीन खिसकने के लिए हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट को ही जिम्मेदार बताया गया है।
ओवर टूरिज्म भी पहाड़ों में तबाही का एक बड़ा कारण है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के बीते तीन साल के आंकड़ों पर गौर करें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाएगी। साल 2020 में कोरोना काल के दौरान हिमाचल प्रदेश में करीब 22 लाख पर्यटक पहुंचे थे। ये असर 2021 में भी देखने को मिला था। तब 19 लाख से अधिक पर्यटक हिमाचल प्रदेश घूमने गए थे। लेकिन जब साल 2022 में कोरोना का असर कम हुआ तो पर्यटकों का आंकड़ा बढ़कर 86 लाख पहुंच गया। ऐसा ही हाल उत्तराखंड का भी है। साल 2020 में यहां 78 लाख पर्यटक पहुंचे थे। साल 2021 में 2 करोड़ 80 लाख टूरिस्ट पहुंचे और साल 2022 में ये आंकड़ा ढाई गुना बढ़कर साढ़े पांच करोड़ तक पहुंच गया। पर्यटकों की बढ़ती संख्या ने होटल गेस्ट हाउस के निर्माण में भी तेजी ला दी है। हिमाचल के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल मनाली में 1980 में जहां 10 होटल हुआ करते थे, उनकी संख्या 2022 आते-आते 2500 तक पहुंच चुकी है। ज्यादातर होटल या गेस्ट हाउस बेतरतीब और बिना वैज्ञानिक आधार के बन रहे हैं। उत्तराखंड में चारधाम यात्रा के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा हेलिकॉप्टर टूरिज़्म भी पहाड़ों में कंपन पैदा कर उन्हें कमजोर करने का काम रहा है।
पहाड़ों पर कुदरत के कोहराम के पीछे ग्लोबल वॉर्मिंग भी बहुत बड़ा कारण है. हिन्दुकुश हिमालय क्षेत्र के तापमान एक्सपर्ट्स का मानना है कि हिमालय का औसत तापमान देश के बाकी हिस्सों के तापमान की अपेक्षा अधिक बढ़ रहा है। 2020 में भारत सरकार के अर्थ साइंस विभाग की एक रिपोर्ट में बताया गया कि 1951 से 2014 के बीच हिन्दुकुश हिमालय के औसत तापमान में जहां 1.3 डिग्री वृद्धि हुई, वहीं देश के बाकी हिस्सों में ये वृद्धि 0.7 डिग्री सेल्सियस थी।
जलवायु परिवर्तन के चलते पिछले कई साल से कम बर्फबारी और ग्लेशियर के सिकुड़ने की खबरें आ रही हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक बर्फबारी में 19 से 27 फीसद की कमी आई है जिससे हिमालय की तीन प्रमुख नदियां रावी, ब्यास, सतलुज प्रभावित हुई हैं।
ग्लोबल वॉर्मिंग का एक और दुष्परिणाम ग्लेशियर के फटने से आने वाली बाढ़ भी है। हिमाचल प्रदेश में 500 वर्ग मीटर वाली करीब 958 ग्लेशियर झीलें हैं जिनमें से 109 पिछले कुछ साल में ही बनी हैं। इन झीलों के टूटने से बाढ़ का ऐसा मंजर हो सकता है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। ISRO ने हिमाचल के ग्लेशियर, झीलों का अध्ययन करने के बाद चेतावनी दी है कि 935 ग्लेशियर और झीलों के टूटने का खतरा है। 7 फरवरी, 2021 को उत्तराखंड में चमोली त्रासदी का कारण ग्लेशियर झील के टूटने को ही माना गया था।
नासा ने फरवरी 2022 में एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें बताया गया था कि हिमालय क्षेत्र में भारी बारिश के साथ क्लाइमेट चेंज की वजह से भूस्खलन की घटनाएं बढ़ सकती हैं। तापमान बढ़ने की वजह से मौसमी घटनाओं में यहां तेजी देखी जा सकती है।
पूरी दुनिया में विनाशलीला
मौसम में असामान्य परिवर्तन सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में देखने को मिल रहा है। कहीं भारी बारिश और बाढ़ का मंजर है तो कहीं तापमान सारे रिकॉर्ड तोड़ रहा है। यूरोपीय देश गर्मी से बेहाल हैं। नॉर्वे में बाढ़ ने कोहराम मचा रखा है तो अमेरिका के हवाई द्वीप में आग का तांडव दिख रहा है। कुदरत के कहर से ना चीन बच पाया है ना अमेरिका। नॉर्वे में आए तूफान से नदियों और झीलों का जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। कुछ दिन पहले इसी तरह के विनाशकारी हालात चीन में थे। तापमान बढ़ने की वजह ग्लोबल वार्मिंग बताई जा रही है जिससे ना सिर्फ यूरोपीय देश बल्कि अमेरिका के कई इलाके प्रभावित हुए हैं, जहां तापमान 50 डिग्री से भी ज्यादा पहुंच गया था।
सुरक्षा के उपाय
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पूरी धरती पर स्थिति भयावह है। पेरिस समझौते के मुताबिक इस सदी के अंत तक तापमान को 1.5 डिग्री कम करने का लक्ष्य है लेकिन हालात तब भी संभलता नहीं दिख रहा है। हिमाचल उत्तराखंड के पहाड़ों पर तबाही रोकने के लिए इन बिंदुओं पर गौर करना जरूरी है-
विकास के नाम पर सरकारें जिस तरह नियमों में बदलाव करती हैं वो भी प्रकृति को नुकसान पहुंचाने का बड़ा कारण है। सार यही है कि विकास जरूरी है लेकिन इंसानी जीवन को दांव पर लगाकर अगर ऐसा किया जाएगा तो ये विनाश को न्योता देने जैसा होगा।
-भारत एक्सप्रेस
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