हर प्राकृतिक आपदा के पीछे कोई-न-कोई संदेश छिपा होता है। तुर्की और सीरिया का भूकंप इससे अलग नहीं है। प्रभावित क्षेत्र से हर नई भोर के साथ विभीषिका की नई और भयावह जानकारी दुनिया को नए सिरे से कुदरत के साथ खिलवाड़ के सबक याद दिला रही है। इस खौफनाक त्रासदी में अब तक 25 हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। इनमें 21 हजार से अधिक तो केवल तुर्की के लोग हैं जहां मृतकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन को आशंका है कि प्रभावितों का आंकड़ा दो करोड़ से ऊपर जा सकता है।
तुर्की ने अतीत में कई भूकंप देखे हैं। जब भी वहां धरती हिलती है तो साल 1939 के दिसंबर में देश के पूर्वी शहर एरजिनकन में आए भूकंप का जिक्र अवश्य होता है। 8.0 तीव्रता के उस भूकंप में भी 20 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। इस बार का भूकंप वहां की अब तक कि भीषणतम त्रासदी को भी पीछे छोड़ता दिख रहा है। ये जानकारी इसलिए जरूरी थी क्योंकि इससे पता चलता है कि तुर्की ने अपने पिछले अनुभव से कोई खास सबक नहीं सीखा।
लेकिन हमें इस तरह के भूकंपों से सबक सीखने की जरूरत है। वजह ये है कि भूकंप के लिहाज से भारत भी अत्यंत सक्रिय जोन में है। खासकर कश्मीर घाटी, पश्चिमी हिमाचल, पूर्वी उत्तराखंड, पूर्वोत्तर और कच्छ के रण को तो जोन V में रखा गया है जो भूकंप के लिहाज से सबसे खतरनाक श्रेणी मानी जाती है। वैज्ञानिक हिमालयी क्षेत्र को लेकर पिछले साल नवंबर से ही लगातार जान-माल पर भारी पड़ने वाले एक बड़े भूकंप की चेतावनी दे रहे हैं। कोई नहीं जानता कि यह आपदा कब आएगी। यह कल हो सकता है, महीने-भर बाद हो सकता है या इसमें 100 साल भी लग सकते हैं लेकिन इससे बचने के लिए आज से ही काम करने की जरूरत है।
जम्मू-कश्मीर के ज्यादातर क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं विशेषकर भूकंप के प्रति संवेदनशील हैं। इस समय भी जम्मू में डोडा जिले के ठाठरी गांव के नई बस्ती इलाके में कई घरों में दरारें आने से निवासियों में दहशत फैली हुई है। पहले माना जा रहा था कि इसकी वजह पानी रिसने के कारण हुआ भू-धंसाव है लेकिन मौके पर पहुंची विशेषज्ञों की टीम ने जांच के बाद खुलासा किया है कि ये दरारें जमीन खिसकने से आई हैं। डोडा पहाड़ी जिला है और अपनी अनूठी भू-जलवायु परिस्थितियों के कारण जम्मू-कश्मीर में सबसे अधिक पर्यावरण-नाज़ुक क्षेत्र माना जाता है। पिछले साल अगस्त में यहां केवल 60 घंटों के भीतर नौ बार भूकंप के झटके आए थे।
विशेषज्ञ डोडा की घटना को उत्तराखंड के जोशीमठ से जोड़ कर भी देख रहे हैं जहां एक हजार से ज्यादा घरों में दरारें आने से सैकड़ों परिवार विस्थापित हुए हैं। अब नई दरारें मिलने और पुरानी दरारें चौड़ी होने के कारण जोशीमठ में पिछले कुछ दिनों से थमा दहशत का दौर फिर लौट आया है। क्या उत्तराखंड से लेकर जम्मू-कश्मीर में एक साथ हो रही ये घटनाएं किसी बड़ी आपदा के पूर्व संकेत तो नहीं हैं? उत्तराखंड में बड़े भूकंप की आशंका बनी हुई है क्योंकि यहां पर पिछले 200 साल से कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है। इस कारण इस क्षेत्र में जमीन के नीचे काफी ऊर्जा जमा हो रही है जो कभी भी भूकंप के रूप में फूट सकती है। अंदेशा है कि ये भूकंप उत्तराखंड के लिए तो विनाशकारी साबित होगा ही, उससे करीब 300 किलोमीटर का क्षेत्र भी प्रभावित होगा। खास तौर पर दिल्ली-एनसीआर तक इसका बड़ा प्रभाव पड़ सकता है।
तो हम इस आपदा के लिए कितने तैयार हैं? पुरानी कहावत है कि भूकंप लोगों को नहीं मारता, बल्कि इमारतें लोगों को मारती हैं। तुर्की का मामला ऐसा ही है जहां ज्यादातर इमारतें सदियों पुरानी हैं और घटिया सामग्री से बनी हैं। ऐसी तमाम इमारतें इस भूकंप में ताश के पत्तों की तरह ढह गई और कल तक जो हजारों हंसते-खेलते परिवारों की ढाल थी, आज वही उनके लिए काल बन गई। हिमालय क्षेत्र को लेकर हमारे भूगर्भ विज्ञानी बार-बार इस बात की ताकीद करते रहे हैं कि भूकंप सक्रिय क्षेत्रों में अमानक सामग्री और संकरी घाटियों में इमारतों और बस्तियों के विकास को हतोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि ये इस उद्देश्य के लिए बिल्कुल ठीक नहीं हैं। ऐसे गांवों और भवनों को तत्काल सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। समतल मैदान या कम ढलान वाली जमीन भवनों के निर्माण के लिए सबसे उपयुक्त जगह होती हैं। इन जमीनों का इस्तेमाल क्षतिग्रस्त गांवों और इमारतों के पुनर्वास के लिए भी किया जाना चाहिए। ठाठरी और जोशीमठ के विस्थापितों को ऐसे ही सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है।
कुल मिलाकर पहाड़ों और ढलानों पर मकानों के निर्माण में विशेष रूप से उचित योजना बनाने की आवश्यकता है। मकानों का डिजाइन इस तरह से बनाया जाना चाहिए कि भले ही दीवारें गिर जाएं, मगर छत ना गिरे क्योंकि ज्यादा नुकसान छत गिरने से ही होता है। जो निर्माण हो वो प्राकृतिक जलमार्ग को अवरुद्ध न करे क्योंकि आपदा के समय यह फ्लैश फ्लड की वजह बनते हैं जो अत्यंत विनाशकारी हो सकता है। यही बात हिमालयी क्षेत्रों में चल रही विकास योजनाओं और उनमें इस्तेमाल हो रही भारी मशीन को लेकर कही जा सकती है। पहाड़ी क्षेत्रों की नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को देखते हुए नियंत्रित ब्लास्टिंग और ढलान को स्थिर बनाए रखने के उपायों को प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए। विकास जरूरी है, पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क नेटवर्क और कनेक्टिविटी भी महत्वपूर्ण है लेकिन इसके लिए विनाश को बैठे-बिठाए आमंत्रण देना भी समझदारी नहीं। अच्छी बात है कि पहाड़ों में भवनों को अब भूकंपरोधी बनाया जा रहा है, ताकि आपदा के समय जानमाल के नुकसान को सीमित किया जा सके। भूकंप आने पर लोगों को सतर्क करने के लिए गढ़वाल और कुमाऊं में सायरन भी लगाए गए हैं जो भूकंप के समय काफी फायदेमंद हो सकते हैं।
देखने वाली बात यह भी है कि इन दिशा-निर्देशों का देश के बाकी हिस्सों में किस हद तक पालन किया जा रहा है, खासकर नई दिल्ली और मुंबई जैसे घनी आबादी वाले शहरों में? बेशक भूकंप से बेहतर मुकाबले के लिए मकानों के निर्माण और डिजाइन को लेकर हमने साल 2016 में एक नेशनल बिल्डिंग कोड (एनबीसी) बनाया था, लेकिन इसे लागू करने वाला कोई कानून नहीं होने के कारण इस दिशा में हम आज भी चिंताजनक मुहाने पर खड़े हैं।
एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में 90% इमारतों को तेज भूकंप की स्थिति में गिरने का खतरा है। 2019 में एमसीडी ने इमारतों को भूकंप से बचाने के लिए सेफ्टी ऑडिट पॉलिसी का मसौदा तैयार किया था। लेकिन यह शुरू नहीं हो सका क्योंकि सेफ्टी ऑडिट करने और भुगतान करने का जिम्मा जनता पर डाल दिया गया था। यह सही है कि इमारतों में भूकंप प्रतिरोधी परिवर्तनों को शामिल करने पर खर्चा आता है लेकिन निश्चित रूप से, यह जीवन और जीवन भर की कमाई की रक्षा के नजरिए से काफी कम है। इस पर जागरुकता बढ़ाने की जरूरत है। बेशक भूकंप की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है, लेकिन सतर्कता और समझदारी के साथ जानमाल के नुकसान को कम तो किया ही जा सकता है।
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