दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका तंगी के दौर से गुजर रहा है। अपनी साख बचाने के लिए उसके पास एक महीने से भी कम का समय बचा है। अमेरिकी ट्रेजरी सचिव जेनेट येलेन ने चेतावनी दी है कि अगर बाइडेन प्रशासन कर्ज की सीमा को बढ़ाने या निलंबित करने में विफल रहता है तो अमेरिका के पास की नकदी 1 जून तक खत्म हो सकती है। सरल शब्दों में इसका मतलब ये है कि अमेरिकी सरकार ने खर्च करने की अपनी सीमा को पार कर लिया है और अगर उसने तुरंत कर्ज लेने की सीमा को नहीं बढ़ाया तो 1 जून 2023 को सरकार के पास देश चलाने के लिए पैसे खत्म हो जाएंगे यानी अमेरिकी सरकार कैशलेस हो जाएगी। ऐसी स्थिति को टालने के लिए येलेन ने सरकार से जल्द-से-जल्द कार्रवाई करने की अपील की है।
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस मुद्दे पर 9 मई को कांग्रेस नेताओं की बैठक बुलाई है। अमेरिकी संसद में विपक्ष में बैठे हाउस रिपब्लिकन ने पिछले सप्ताह कर्ज की सीमा को बढ़ाने के लिए एक विधेयक पारित किया था जिसमें गरीबों के लिए स्वास्थ्य सेवा से लेकर अमीरों के हवाई उड़ानों तक के खर्च में भारी कटौती का सुझाव शामिल है, लेकिन सरकार चला रहे डेमोक्रेट्स ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन कर्ज की सीमा बढ़ाने के बाद ही बजट में कटौती पर किसी तरह की चर्चा के अपने रुख पर कायम हैं।
अतीत में नजर डालें तो अमेरिका में 1960 के बाद से ऋण सीमा को 78 बार बढ़ाया या संशोधित किया गया है। रोनाल्ड रीगन ने इसे 19 बार, बिल क्लिंटन ने आठ बार, जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने सात बार और बराक ओबामा ने पांच बार बढ़ाया। यानी सरकार किसी की भी हो, कर्ज संकट अमेरिका के लिए नई बात नहीं है। अमेरिका में कर्ज की सीमा क्या हो, इस पर बहस का एक नया अध्याय 2011 में शुरू हुआ था, जब राष्ट्रपति बराक ओबामा और रिपब्लिकन सांसदों के बीच खर्च घटाने पर विवाद के कारण एक लंबा गतिरोध हुआ। अमेरिकी संसद आखिरकार डिफॉल्ट होने की तारीख से केवल दो दिन पहले कर्ज सीमा बढ़ाने के फैसले पर पहुंच पाई थी।
इस बार भी ऐसा ही कुछ होना चाहिए लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता है और डिफॉल्ट होने की नौबत आती है तो ऐसा अमेरिकी इतिहास में पहली बार होगा। चूंकि ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं हुई इसलिए इसके प्रभाव का ठीक-ठीक अनुमान लगाना भी मुश्किल हो रहा है। ऐसा अंदेशा है कि डिफॉल्ट होने से अमेरिका मंदी की चपेट में आ सकता है, जीडीपी पांच फीसद का गोता मार सकती है और बेरोजगारी सारी हदें पार कर सकती है। करीब 70 लाख नौकरियों पर तो तुरंत ही तलवार लटक जाएगी। अमेरिका अपने सरकारी कर्मचारियों और सैन्य कर्मियों के वेतन, सामाजिक सुरक्षा या रक्षा भुगतान जैसे अन्य दायित्वों के भुगतान के लिए नया कर्ज नहीं ले पाएगा। मौटे तौर पर इसका मतलब ये होगा कि दुनिया को सुरक्षित रखने का ठेका लेने वाला अमेरिका खुद अपनी जरूरतों का भुगतान नहीं कर पाएगा जिसके कारण अमेरिकियों का सामान्य जनजीवन ऐसी असामान्य क्षति का सामना करेगा जिसकी भरपाई दशकों तक नहीं हो पाएगी।
हालत ये है कि अमेरिका के कर्ज और जीडीपी का अनुपात 120 फीसदी तक पहुंच गया है जो दूसरे विश्व युद्ध के दौर से भी ज्यादा है। हाल ही में अमेरिका के दो बड़े बैंक डूब गए और कई डूबने के कगार पर हैं। लोगों ने कुछ ही दिनों में बैंकों से लगभग एक लाख करोड़ से अधिक डॉलर निकाल लिए हैं। इससे बैंकों की हालत और खस्ता हो गई है। लेकिन अमेरिका के अंदर दिख रही यह समस्या उतनी भी घरेलू नहीं है। इससे दुनिया भर के बाजारों में कोहराम मच सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अमेरिकी डॉलर को दुनिया की रिजर्व करेंसी का दर्जा हासिल है। इसका मतलब है कि दुनिया के कई देश अपनी करेंसी पर संकट आने की स्थिति में डॉलर का बैकअप करेंसी के रूप में उपयोग कर सकते हैं। अब जब डिफॉल्ट होने की स्थिति में अमेरिका अपने बिलों का भुगतान नहीं कर पाएगा तो उस पर निवेशकों का भरोसा टूटेगा और वो अमेरिकी ट्रेजरी बॉन्ड बेचना शुरू कर देंगे। इससे दुनिया के बाजारों में डॉलर की कीमत और अमेरिका की हैसियत दोनों गिरनी शुरू हो जाएगी। इससे वो देश मुश्किल में पड़ जाएंगे जो अपनी आर्थिक गतिविधियों के लिए अमेरिका पर निर्भर हैं। आज दुनिया का 60 फीसद विदेशी मुद्रा का भंडार डॉलर में है यानी डॉलर गिरा तो आधी से ज्यादा दुनिया मुश्किल में फंस जाएगी। गरीब देश जिनकी अर्थव्यवस्था ही डॉलर में लिए गए कर्ज पर टिकी है वो दिवालिया हो सकते हैं। कमजोर डॉलर दूसरी करेंसी में लिए गए कर्ज को महंगा बनाएगा जिससे विकासशील देश एक तरह के नए कर्ज संकट में फंस सकते हैं। कम से कम 21 देश दिवालिएपन के कगार पर हैं या अपने कर्ज के भुगतान की शर्तों में बदलाव की मांग कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार कम आय वाले 15 फीसद देश कर्ज संकट में फंस गए हैं, 45 फीसद देश असुरक्षित हैं और एक चौथाई विकासशील देश तो उच्च जोखिम वाली श्रेणी में आ गए हैं।
अमेरिका की इस परेशानी का असर भारत पर भी दिखेगा। भारत को एक ही समय में अमेरिका और चीन दोनों पर नजर रखनी होगी। एक तरफ जी-20 के अध्यक्ष के रूप में अमेरिका के इस ऋण संकट का हल भारत की प्राथमिकता होगी, वहीं चीन इस मौके का फायदा उठाने की ताक में है। डॉलर की अस्थिरता ने चीन की महत्वाकांक्षा की चिंगारी को सुलगा दिया है। चीन लंबे समय से अपनी मुद्रा रेन्मिन्बी (युआन) को डॉलर की जगह दुनिया की रिजर्व करेंसी बनाने का सपना देखता रहा है। हालांकि वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार में अभी रेन्मिन्बी का हिस्सा तीन फीसद से भी कम है लेकिन चीन को लगता है कि अमेरिका का ऋण संकट उसके लिए अपनी मुद्रा को वैश्विक पहचान दिलाने का सुनहरा अवसर हो सकता है। दरअसल चीन ने पिछले दिनों कई देशों को भारी-भरकम कर्ज दिए हैं। डॉलर कमजोर होने से ये ऋण अब महंगे हो गए हैं और कई देश तो उन्हें चुकाने की स्थिति में भी नहीं हैं। इन ऋणों को माफ करने या भुगतान की शर्तों में बदलाव से चीन के इनकार के कारण इन देशों में गतिरोध की स्थिति पैदा हो गई है। पुराने अनुभवों को देखते हुए ये आशंका है कि चीन इन हालात को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकता है जिससे दुनिया में एक नई व्यवस्था के खड़े होने का खतरा भी बढ़ गया है। दुनिया के साथ-साथ ये भारत के लिए तो बिल्कुल भी अच्छी खबर नहीं है।
सबसे ताकतवर बने रहने की जिद कितनी महंगी हो सकती है, इसे चीन को अमेरिका से सीखना चाहिए। आठ दशकों से अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर और सबसे अमीर मुल्क बना रहा लेकिन युद्ध की तैयारियों और अत्याधुनिक और महंगे हथियारों के दम पर दुनिया पर राज करने के मंसूबे ने आज उसे भी कंगाली के कगार पर ला दिया है। आज अमेरिका भले ही अकेले दम पर कई मुल्कों को तबाह करने की ताकत रखता हो लेकिन तबाही के इस खेल में अमेरिका खुद भी आर्थिक मोर्चे पर तबाह हो रहा है। फिलहाल उस पर मंडरा रहा ऋण संकट भले ही सुलझ जाए, लेकिन ये समस्या आने वाले दिनों में अमेरिका को बार-बार परेशान करेगी क्योंकि उसके बजट का बड़ा हिस्सा मेडिकेयर और सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं पर भी खर्च होता है। जैसे-जैसे अमेरिका की आबादी बूढ़ी होती जाएगी, वैसे-वैसे इन खर्चों के और बढ़ने का अनुमान है जिसके कारण दबाव सिर्फ अमेरिकी इकॉनमी पर ही नहीं बना रहेगा बल्कि इसके साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए चुनौतियां भी लंबे समय तक बरकरार रहने वाली हैं।
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