देश में लोकतंत्र के महापर्व के उत्सव की तैयारियां जोर-शोर से की जा रही हैं. सभी सियासी दल चुनावी चौसर पर अपनी-अपनी गोटियां सेट करने में जुटे हुए हैं. सत्ता का स्वाद चखने के लिए दूसरे दलों में सेंध लगाने से लेकर जनता के दिलों को जीतने की कोशिश कर रहे हैं. इन सब के बीच चुनाव आते ही अतीत के पन्नों में दबी तमाम ऐसी कहानियां और किस्सों से पर्दा उठने लगता है, जिनकी वजह से सियासत के अलग रंग देखने को मिले. कुछ ऐसा ही साल था 1999. जब एक 13 महीने की अल्पायु वाली सरकार इसलिए गिर गई क्योंकि बहुमत में एक वोट की कमी रह गई थी.
“13 महीने में हमने ऐसी रेखाएं खींची हैं, जो काल के कपाल पर अमिट रहेंगी, जिन्हें बदला नहीं जा सकता.” ये बातें तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उस दौरान कही थीं, जब उनकी 13 महीने की सरकार के खिलाफ लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था. इस अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में वोटिंग हुई. जिसमें वाजपेयी सरकार को 269 वोट मिले और अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 270 वोट. एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरी तो इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया कि आखिर वो एक वोट किसका था, जिसकी वजह से वाजपेयी को सत्ता खोनी पड़ी.
सत्ता पक्ष के विरोध में वोट डालने वालों को लेकर अलग-अलग दावे किए जाते रहे हैं, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में रहने वालों की फेहरिस्त में दो नाम जमकर उछले. जिसमें सबसे पहला नाम तत्कालीन कांग्रेस सांसद गिरधर गमांग का आता है. दूसरे नंबर पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के सैफुद्दीन सोज. हालांकि यहां पर दोनों के अपने-अपने किस्से हैं.
पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के निजी सचिव रहे शक्ति सिन्हा ने अपनी किताब ‘वाजपेयी: द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया’ सरकार गिरने के को लेकर कई दावे किए हैं. उन्होंने इस किताब में लिखा है कि कैसे बीजेपी सरकार से असहमत होकर अन्नाद्रमुक की नेता जे. जयललिता ने अपना समर्थन वापस ले लिया और अटल बिहारी के नेतृत्व वाली 13 महीने पुरानी सरकार अल्पमत में आकर गिर गई.
शक्ति सिन्हा अपनी किताब ‘वाजपेयी: द ईयर्स दैट चेंज्ड इंडिया’ में लिखते हैं कि वाजपेयी सरकार को गिराने में उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गमांग जिम्मेदार थे, इसके लिए कुछ और नेता भी जिम्मेदार थे, जिन्होंने सरकार गिराने में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन इसमें बड़ी भूमिका छोटे दलों की थी. जिसे साध पाने में भाजपा असफल रही थी.
शक्ति सिन्हा अपनी किताब में आगे लिखते हैं कि “अरुणाचल कांग्रेस के वांगचा राजकुमार ने अविश्वास प्रस्ताव से पहले ही ये भरोसा दिलाया था कि दल में फूट होने के बाद भी सरकार को उनका समर्थन जारी रहेगा. हालांकि जब समर्थन जुटाने की बारी आई तो बीजेपी वांगचा राजकुमार से संपर्क करना ही भूल गई. जिसका परिणाम ये हुआ कि वांगचा राजकुमार ने सरकार के विरोध में वोट दे दिया.
इसी किताब में इस नेशनल कॉन्फ्रेंस के तत्कालीन सांसद सैफुद्दीन सोज को लेकर शक्ति सिन्हा ने दावा किया है कि जो घटनाक्रम अरुणाचल कांग्रेस के वांगचा राजकुमार के हुआ, कुछ वैसा ही सैफुद्दीन सोज के साथ भी घटित हुआ. जिसकी कीमत अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी सरकार खोकर चुकानी पड़ी. ये अलग बात है कि सैफुद्दीन सोज की अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मीटिंग न होने के चलते सोज ने सरकार के खिलाफ वोटिंग की, लेकिन फारूक अब्दुल्ला ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया.
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अब आते हैं ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरघर गमांग पर. गिरधर गमांग 90 के दशक से एक ऐसे आदिवासी नेता थे, जो 1972 से लेकर 2004 तक सांसद रहे. गमांग साल 1999 में जब ओडिशा के मुख्यमंत्री बने थे, तब भी वह लोकसभा के सदस्य थे. उन्होंने सीएम पद की शपथ ले ली थी, लेकिन उन्होंने लोकसभा सदस्य के पद से इस्तीफा नहीं दिया था. ऐसे में जब अटल सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया तो उनका एक वोट भी अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में पड़ा. जिसके चलते सरकार गिर गई.
-भारत एक्सप्रेस
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