सियासत में अदावत की रवायत सदियों पुरानी है. राजनीति की बुलंदियों पर पहुंचने वाले हर शख्स के अतीत की कहानियां ऐसी अदावतों से भरी होती हैं. जिसमें किसी अपने को या तो मोहरा बनाकर या फिर उसे रास्ते से हटाकर आगे बढ़ने की परंपरा रही है. कुछ ऐसी ही कहानी है यूपी के दो ऐसे सियासी दिग्गजों की जिन्होंने राजनीति की नर्सरी में एक साथ बढ़ना शुरू किया, लेकिन तमाम सियासी उठा-पटक के बाद भी एक नेता अपने पिता की बनाई विरासत से आगे नहीं बढ़ सका और दूसरे ने राजनीति के शिखर पर पहुंचकर सफलता की नई इबारत लिख दी. राजनीति की नूराकुश्ती के दो किरदार. एक आईआईटी से पढ़ाई करके आया युवा लड़का, जो भारत के प्रधानमंत्री का बेटा था और दूसरा गांव के दंगल के अखाड़े में विरोधियों को चित करने वाला एक युवा, जिसने एक प्रधानमंत्री से राजनीति के दांव-पेंच सीखे और आगे चलकर अपने सियासी गुरु के बेटे को धोबिया पछाड़ दांव से परास्त कर दिया. ये दोनों शख्सियत भले ही अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके सियासी सफर और योगदान के किस्से आज भी प्रासांगिक बने हुए हैं.
वो साल था 1987 का. जब लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष और किसानों के मसीहा के तौर पर पहचान रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का निधन हो गया. जिसके बाद पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष बनाये गए हेमवती बहुगुणा. दूसरी तरफ चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह राज्यसभा से सांसद थे और वह पूरी तरह से पार्टी पर अपना कंट्रोल बनाने की कवायद में लगे थे, लेकिन दिक्कत यह थी कि पार्टी के ज़्यादातर बड़े नेता, जिसमें नाथूराम मिर्धा, कर्पूरी ठाकुर, चौधरी देवीलाल, और उत्तर प्रदेश विधानसभा के तत्कालीन नेता विपक्ष मुलायम सिंह यादव बहुगुणा के पक्ष में खड़े थे. मुलायम सिंह यादव का पार्टी में बड़ा कद था. इस कारण से वह अजीत सिंह के सियासी भविष्य की सफलता में बड़ा रोड़ा बने हुए थे. बस यहीं से दोनों के बीच में अदावत का दौर शुरू हो गया.
कहा जाता है कि अजीत सिंह, मुलायम सिंह यादव को नेता विपक्ष के पद से हटाने की कोशिश में जुटे थे. जिसकी भनक मुलायम को लग गई. ऐसे में एक मझे हुए सियासी खिलाड़ी की तरह मुलायम ने अपने भाई शिवपाल सिंह यादव को पार्टी के तमाम दफ़्तरों को कब्जे में लेने का निर्देश दिया..बड़े भाई से मिले फरमान के बाद तमाम दफ़्तर शिवपाल के कब्जे में आ गए. उधर अजीत सिंह ने साम, दाम, दण्ड, भेद की राह पर चल कर पार्टी विधायकों से एक सादे कागज पर उनसे हस्ताक्षर ले लिए और बिना समय गंवाए राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष को विधायकों के समर्थन का पत्र सौंप दिया. इस चाल ने अजित सिंह को फ्रंट पर लाकर खड़ा कर दिया और मुलायम को नेता विपक्ष की कुर्सी गवानी पड़ी.
हालांकि मुलायम सिंह यादव भी इस घटनाक्रम के बाद चुप बैठने वाले नहीं थे, जो अजित सिंह भी बाखूबी जानते थे, और हुआ भी कुछ ऐसा ही. मुलायम सिंह यादव ने इसका बदला उस समय लिया, जब केंद्र में वी.पी. सिंह की सरकार थी और वह उत्तर प्रदेश में अजित सिंह को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने इसका खुला विरोध कर दिया.
दिल्ली से आये पर्यवेक्षकों ने दोनों नेताओं को समझाने की तमाम कोशिशें की, लेकिन जब कोई भी बात नहीं बनी तो विधायकों की वोटिंग से मुख्यमंत्री बनाने का रास्ता तय हुआ. जिसमें बाहुबली नेता डी. पी. सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा ने मुलायम के पक्ष में कई विधायकों को एकजुट करते हुए अजीत गुट के 11 विधायकों को अपनी तरफ खींच लिया. जब वोटों की गिनती हुई तब अजीत सिंह को 110 विधायकों का समर्थन मिला और मुलायम सिंह यादव को 115 विधायक का वोट. जिसके बाद मुलायम सिंह का मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया.
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मुलायम सिंह से मिली सियासी हार के बाद प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह ने सांत्वना के तौर पर अजीत सिंह को केंद्र में मंत्री बना दिया, लेकिन दोनों ही सरकारें ज़्यादा दिन नही चलीं. अजीत सिंह और मुलायम सिंह यादव के समय से चली आ रही अदावत की खाई को उनके बेटों अखिलेश और जयंत ने पाटने की कोशिश की, काफी समय तक गठबंधन में रहने के बाद अब एक बार दोनों नेताओं के सियासी रास्ते अलग हो गए हैं. जयंत चौधरी ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ चले आ रहे सालों के गठबंधन को तोड़कर एनडीए के साथ चुनाव लड़ने का ऐलान किया है.
-भारत एक्सप्रेस
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