विश्लेषण

क्या इस देश को अदालतें चला रही हैं?

हमारे देश में जब-जब सरकारी तंत्र फेल होता है तो उसके ख़िलाफ़ कोई न कोई अदालत का रुख़ कर लेता है। इस उम्मीद से कि संविधान की रक्षा और नागरिकों के अधिकारों के हित में यदि कोई फ़ैसला कर सकता है तो वह न्यायपालिका ही है। परंतु क्या कभी किसी ने यह सोचा है कि जहां देश भर की अदालतों में करोड़ों मुक़दमें लंबित पड़े हैं, वहाँ सरकारी तंत्र के काम न करने के कारण अदालतों पर अतिरिक्त मुक़दमों का ढेर लगता जा रहा है। ऐसा क्यों है कि सरकारी तंत्र अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभा रहा जिस कारण नागरिकों को कोर्ट का रुख़ करने को मजबूर होना पड़ता है?

न्यायपालिका का बढ़ता बोझ

जब भी किन्हीं दो पक्षों में कोई विवाद होता है तो उनका आख़िरी वाक्य होता है कि “आई विल सी यू इन कोर्ट”। यानी जब भी किसी को किसी दूसरे से आहत पहुँचती है वह इस उम्मीद में अदालत जाता है कि उसके साथ न्याय होगा। परंतु हमारे देश के न्यायालयों में लंबित पड़े केसों की संख्या इतनी ज़्यादा है कि, न्याय मिलते-मिलते या फ़ैसला आते-आते बहुत देर हो जाती है। कई मामलों में तो याचिकाकर्ता दुनिया छोड़ कर भी चला जाता है लेकिन उसका केस अंतिम फ़ैसले तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे में कोर्ट में हर दिन बढ़ने वाले मामलों की संख्या पर रोक नहीं लग रही। विवाद चाहे किसी की ज़मीन जायदाद का हो या अन्य किसी मामले का हो। वादी-प्रतिवादी सीधा कोर्ट का रुख़ करते हैं और कई मामलों में तो वकील भी अपने मुवक्किल को गुमराह करने में पीछे नहीं हटते। ऐसे में किसी न किसी कारण से न्याय मिलने में देरी हो जाती है।

सरकारी अधिकारियों की लापरवाही

बीते कुछ वर्षों से न्यायपालिका पर काम का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ने का एक और कारण है कि सरकारी तंत्र में तैनात कई अधिकारी जो अपने राजनैतिक आकाओं को खुश करने की नीयत से देश की जनता के साथ धोखा करते हैं। वे संविधान को एक तरफ़ रख कर अपने राजनैतिक आकाओं को भी गुमराह कर उनसे कुछ ऐसे फ़ैसले दिलवा देते हैं जो जनता के हित में नहीं होते। केवल निहित स्वार्थों के लिए लिए गये ऐसे फ़ैसले राजनैतिक रूप से अक्सर घातक साबित हो जाते हैं। ऐसे में सत्तापक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर जनता को असल मुद्दों से भटकाने का काम करने लगते हैं। अंततः दोनों में से एक पक्ष अदालत का रुख़ कर लेता है। ऐसे में मुक़दमों के दबाव से भरी हुई अदालतें इन सरकारी तंत्र के ख़िलाफ़ दायर याचिकाओं को प्राथमिकता पर सुनने के लिए मजबूर हो जाती हैं।

ग़ौरतलब है कि यदि किसी लंबित पड़े मामले में कोई अहम सुनवाई की तारीख़ लगी हो और उसी बीच कोर्ट के सामने कोई ऐसा ‘राजनैतिक’ केस आ जाए जिसे, सुनने के लिए उस अदालत को अपनी पहले से तय सूची में फेर-बदल करना पड़े तो सोचिए कि न सिर्फ़ अदालत के क़ीमती समय और पैसे की बर्बादी होती है, बल्कि अदालत में न्याय की उम्मीद कर रहे फ़रयादी की हिम्मत और न्यायपालिका पर भरोसा भी डगमगाने लगता है। सोचने वाली बात यह है कि यदि सरकारी मशीनरी अपना काम ज़िम्मेदारी से करे तो अदालतें भी अपना काम बिना किसी विघ्न के करने लगेंगी। ऐसे में लंबित पड़े करोड़ों मामलों में भी गिरावट आएगी।

राजनीतिक मामलों का अदालतों पर प्रभाव

आजकल ऐसा भी देखा जा रहा है कि यदि किसी राजनैतिक दल को उसकी पूर्ववर्ती सरकार द्वारा लिए गए किसी ख़ास फ़ैसले से एतराज होता है तो वे उसमें कोई न कोई कमी निकाल कर देश भर में एक नया विवाद पैदा करने में कसर नहीं छोड़ते। फिर वो मामला चाहे किसी विशेष क़ानून को लेकर ही क्यों न हो। ग़ौरतलब है कि जब ऐसे किसी विधेयक को संसद में पास करके क़ानून बनाया जाता है, तो उस समय सत्तापक्ष और विपक्ष, इस पर चर्चा करते हैं और यदि कुछ संशोधन करना हो तो उसे करके ही क़ानून का रूप दिया जाता है। ऐसे में यह माना जाए कि उस समय की विपक्षी पार्टी ने भी ऐसे विधेयक को अपनी सहमति प्रदान की है। लेकिन जैसे ही उस समय की विपक्षी पार्टी सत्ता में आती है तो उसी क़ानून का विरोध करने लगती है और देश में उथल-पुथल का माहौल बन जाता है। लेकिन क्या वह राजनैतिक दल इस बात पर ध्यान देता है कि उसने विपक्ष में बैठे हुए क्या इस क़ानून का विरोध किया था? यदि नहीं तो आज वह ऐसा क्यों कर रहा है? उस क़ानून के ख़िलाफ़ अराजकता फैला कर उसे क्या मिल रहा है?

जनहित याचिकाओं में निजहित

वहीं ऐसे विवादों में बात-बात पर अदालतों का रुख़ करने वाले याचिकाकर्ता के राजनैतिक संबंधों की जाँच होना भी ज़रूरी है। इस बात की भी जाँच होनी चाहिए कि अदालत में पहुँचने वाला जनहित का मामला क्या वास्तव में ‘जनहित’ का है या ‘निजहित’ का? यदि यह बात सिद्ध हो जाती है कि कोई याचिकाकर्ता जनहित की आड़ में किसी राजनैतिक दल के निजहित में याचिका कर रहा है तो ऐसी याचिका को देश की किसी भी अदालत में दाखिल नहीं होने दिया जाए। वहीं यदि कोई निचली अदालत किसी क़ानून या संवेदनशील मामले के ख़िलाफ़ किसी याचिका को दाखिल करती है तो उसे ऐसा सोच-समझ कर और किसी उच्च श्रेणी की अदालत के पूर्व न्यायाधीश या संविधान विशेषज्ञ की राय लेकर ही करना चाहिए। किसे क्या पता कि ऐसे संवेदनशील मामले देश में कैसी आग लगा दें। इसलिए एक स्वस्थ लोकतंत्र को सही सलामत रखने के लिए लोकतंत्र के हर स्तंभ को मिल-जुलकर ही काम करना चाहिए न कि किसी विशेष समुदाय या राजनैतिक दल के हित में रह कर। यदि ऐसा होता है तो शायद हम अपने संविधान के मूल ढाँचे का पालन कर पाएँ और अपने देश को वास्तव में एक ‘संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाने के दिशा में बढ़ सकें।

लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के संपादक हैं।

-भारत एक्सप्रेस

रजनीश कपूर, वरिष्ठ पत्रकार

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