भारत के चुनाव आयोग में चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक बेंच ने पिछले गुरुवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया. इस फैसले के बाद केंद्रीय चुनाव आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति पर केंद्र का सीधा हस्तक्षेप घटेगा. कोर्ट ने इस फैसले को सुनाते समय इस बात पर जोर डाला कि संविधानिक संस्थाओं का निष्पक्ष होना लोकतंत्र के लिए बहुत आवश्यक है. सभी राजनैतिक दलों द्वारा इस फैसले का स्वागत किया जा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के 378 पन्नों के इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे 1997 का ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ का फैसला है. इस फैसले में प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई व सीवीसी के निदेशकों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल को लेकर दिशा निर्देश दिये गये थे. जिससे जाँच एजेंसियों को सरकारी दखल से अलग रख कर निष्पक्ष व स्वायत्त रूप से कार्य करने की छूट दी गई थी. परंतु सवाल उठता है कि क्या जाँच एजेंसियाँ सरकार के दबाव से मुक्त हुई? ऐसा क्या हुआ कि उसी सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे का तोता’ कहा?
दरअसल, पिछले कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर विपक्षी दलों में ही नहीं बल्कि लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर जागरूक नागरिक के मन में भी अनेक प्रश्न खड़े हो रहे थे. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति की फाइल माँग कर भारत सरकार की स्थिति को असहज कर दिया था. पर इसका सकारात्मक संदेश देश में गया. सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग की विवादास्पद भूमिका पर टिप्पणी करते हुए 1990-96 में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन को याद किया और कहा है, “देश को टी एन शेषन जैसे व्यक्ति की ज़रूरत है”.
सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी 2018 से लंबित कई जनहित याचिकाओं की संवैधानिक पीठ के सामने चल रही सुनवाई के दौरान की. इन याचिकाओं में माँग की गई है कि चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन भी एक कॉलोजियम की प्रक्रिया से होना चाहिये. इस बहस के दौरान पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा कि ये चयन सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ फ़ैसले के अनुरूप भी क्यों नहीं हो सकता है? जिससे चयनकर्ता समिति में तीन सदस्य हों, भारत के मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री व लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष. यह माँग सर्वथा उचित है क्योंकि चुनाव आयोग का वास्ता देश के सभी राजनैतिक दलों से पड़ता है. अगर उसके सदस्यों का चयन केवल सरकार करती है तो जाहिरन ऐसे अधिकारियों को चुनेगी जो उसके इशारे पर चले. इस फ़ैसले के आधार पर जब तक संसद द्वारा क़ानून पास नहीं हो जाता तब तक इसी फ़ैसले के दिशा निर्देशों के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियाँ होंगी.
पिछले कुछ वर्षों से सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करते हुए जिस तरह मुख्य जाँच एजेंसियों के निदेशकों की नियुक्ति व सेवा विस्तार किए जा रहे हैं उससे इन जाँच एजेंसियों की स्वायत्ता और निष्पक्षता पर स्वाल उठ रहे हैं. यदि किसी जाँच एजेंसी के निदेशक को इस बात का पता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत उसकी नियुक्ति पारदर्शिता से हुई है तो उसे उसके दो साल के निश्चित कार्यकाल से कोई नहीं हटा सकता. ऐसी स्थित में वो बिना किसी सरकारी दखल या दबाव के अपना काम निष्पक्षता से कर सकता है. परंतु यदि उस निदेशक के नियुक्ति पत्र में कुछ ऐसा लिखा जाए कि उस निदेशक का कार्यकाल एक निश्चित अवधी ‘या अगले आदेश तक’ वैध है तो उस पर अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी दबाव बना रहता है. ऐसे में वो निदेशक कितना स्वायत्त या निष्पक्ष रहेगा कहा नहीं जा सकता.
भाजपा के वरिष्ठ नेता स्व. अरुण जेटली ने राज्यसभा में दिए एक बयान में कहा था, “ये ख़तरा बड़ा है, रिटायर होने के बाद सरकारी पद पाने की इच्छा रिटायर होने से पहले के जज के फ़ैसलों को प्रभावित करती है, ये न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ख़तरा है.” एक अन्य बयान में जेटली ने कहा था, “रिटायर होने से पहले दिए जाने वाले फ़ैसले रिटायर होने के बाद मिलने वाले पद के प्रभाव में दिए जाते हैं.” जेटली का ये बयान न सिर्फ़ जजों पर लागू होता है बल्कि जाँच एजेंसियों और कुछ संविधानिक पदों पर नियुक्त लोगों पर भी लागू होता है. ऐसे में यदि सुप्रीम कोर्ट ने इन नियुक्तियों को लेकर एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है तो ये एक अच्छी पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए.
परंतु सरकार जिस भी दल की हो वो ऐसी नियुक्तियों के लिए भेजे जाने वाले नामों के पैनल में केवल अपने चहेते अधिकारियों के ही नाम भेजती है. ऐसे में नियुक्त करने वाली समिति के पास इन्हीं नामों में से एक का चयन करने का विकल्प रहता है. यदि महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की सूची को सार्वजनिक किया जाए और बेदाग छवि वाले सेवानिवृत अधिकारियों की राय को भी लिया जाए तो ऐसी नियुक्तियों को निष्पक्ष माना जा सकता है. इस दिशा में व्यापक दिशा निर्देशों की भी आवश्यकता है. यदि ऐसा होता है तो आम जनता का विश्वास न सिर्फ़ नियुक्ति की प्रणाली में बढ़ेगा बल्कि इन संस्थाओं की कार्यशैली पर भी बढ़ेगा.
जाँच एजेंसियाँ हो या चुनाव आयोग या कोई अन्य सांविधानिक संस्था यदि वो निष्पक्ष और स्वायत्त रहती है तो लोकतंत्र मज़बूत रहता है. यदि ऐसा नहीं होता तो लोकतंत्र ख़तरे में आ सकता है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्वागत करते हुए इस क़ानून का रूप दिया जाना चाहिए और इसे सुनिश्चित किया जाए कि सभी नियुक्तियों को पारदर्शिता से किया जाए न कि पक्षपात के साथ.
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अपने हर चुनाव अभियान में इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सभी विपक्षी दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं. जबकि भाजपा ईमानदार सरकार देने का वायदा करती है. पिछले हफ़्ते कर्नाटक के भाजपा विधायक के बेटे को किसी ठेकेदार से 40 लाख की रिश्वत लेते लोकायुक्त ने गिरफ़्तार करवाया. बाद में उसी विधायक के बेटे के घर से 8 करोड़ रुपये भी बरामद हुए. इसी राज्य में पिछले वर्ष एक ठेकेदार ने सार्वजनिक रूप से यह आरोप लगाया था कि भाजपा सरकार का मंत्री उससे 40 प्रतिशत कमीशन माँग रहा है.
दावा तो हर राजनैतिक दल यही करता है कि वो एक ईमानदार सरकार देगा पर सत्ता में आते ही हर दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है. कर्नाटक का तो यह एक उदाहरण है पर क्या जनता ये कह सकती है कि उनके राज्य में भाजपा के सत्ता के आने बाद भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया या कम हो गया? ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता. तो क्या वजह है कि पिछले वर्षों में सीबीआई और ईडी के छापे केवल विपक्षी दलों के नेताओं पर ही पड़े हैं, सत्तारूढ़ नेताओं पर नहीं? इन विवादों से बचने के लिए ये ज़रूरी है कि मोदी जी जाँच एजेंसियों और संविधानिक संस्थाओं की पारदर्शिता और स्वायत्ता सुनिश्चित करें.
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