दिल्ली विधानसभा की तैयारी जोरों पर हैं. आप, बीजेपी और कांग्रेस तीनों अपनी तरह से तैयारी कर रही हैं. इस बार दिल्ली चुनाव में मुद्दा बदलाव का है. तीनों पार्टियां (ABC यानी AAP, BJP और Congress) अलग-अलग अंदाज में बदलाव की बात कर रही हैं, आम आदमी पार्टी को बीजेपी की तानाशाही से बदलाव चाहिए, भाजपा को केजरीवाल के भ्रष्टाचार से दिल्ली को निजात दिलाने के लिए बदलाव चाहिए और कांग्रेस को संविधान बचाने, मुस्लिम और दलितों को आरक्षण की सुविधा दिलाने के लिए भाजपा और आप के शासन से मुक्ति चाहिए.
हालांकि सूत्र ये बताते हैं कि चुनाव आते-आते आप और कांग्रेस का दिल्ली में गठबंधन हो जाएगा और स्लोगन होगा, दिल्ली को बचाना है, इसलिए बीजेपी को हराना है. लेकिन बीजेपी इस बार दिल्ली फतह के लिए पूरी तरह से ठीक उसी तरह आश्वस्त है, जैसे उनका काडर हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव से पहले कॉन्फिडेंट था.
10 साल से सत्ता में विराजमान आम आदमी पार्टी के लिए ‘मधुशाला घोटाला’ (शराब घोटाला) का जवाब देना भारी पड़ रहा है. कभी पाठशाला के नाम पर सत्ता में आई आप शराब घोटाले में इस कदर फंस गई है कि उसे जवाब देते नहीं बन रहा. दिल्ली में शिक्षा क्रांति के जनक कहे जाने वाले मनीष सिसोदिया अपनी सीट छोड़कर पटपड़गंज से भोगल चले गए, अब मधुशाला के दंश को अवध ओझा शांत करेंगे.
किसी जमाने में आम आदमी पार्टी की मैसकॉट रहीं दिल्ली विधानसभा की डिप्टी स्पीकर राखी बिड़लान मादीपुर में किस्मत आजमा रही हैं. कांग्रेस के पूर्व विधायक वीर सिंह धिंगान जिनके नाम करप्शन के सारे रिकॉर्ड थे, उन्हें केजरीवाल ने अपनी पार्टी से टिकट देकर कट्टर ईमानदार बना दिया.
आम आदमी पार्टी के पाले में सिर्फ फ्री बिजली और पानी का लॉलीपॉप देने के अलावा कुछ नहीं है. केजरीवाल एक फॉर्मूले की तलाश में हैं कि शायद उन्हें दलित और मुस्लिम (DM) का साथ मिल जाए जो पिछले नगर निगम के चुनाव में उनसे छिटक गया था. मुख्यमंत्री के तौर पर आतिशी में वो करिश्मा नहीं है कि वो आप को जीत दिला सकें. ऐसे में सारा दारोमदार केजरीवाल पर है.
वैसे एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक केजरीवाल का सपोर्ट बेस फिलहाल 22 प्रतिशत पर आकर अटक गया है, जो पिछले चुनाव में 62% के करीब था, जो वोटिंग के समय घटकर 52% हो गया था. मोहल्ला क्लीनिक फेल है, महिलाओं को फ्री बस सर्विस हिट है, लेकिन ये चुनाव है क्या होगा किसे मालूम.
बीजेपी का लंबा वनवास!
साल 1998 में सुषमा स्वराज के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया था और भाजपा बुरी तरह से हार गई थी. 70 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को मात्र 14 सीटें मिली थीं, उसके बाद से अब तक भाजपा का सूखा दिल्ली में खत्म नहीं हुआ. एक के बाद एक हार ने भाजपा के काडर को दिल्ली में पस्त कर दिया. भाजपा लोकसभा जीतती गई और विधानसभा लागातार हारती रही, कभी विजय कुमार मल्होत्रा के नाम पर तो कभी किरन बेदी के नाम पर.
एक मौका ऐसा आया जब लगा कि शायद हर्षवर्धन की अध्यक्षता में भाजपा दिल्ली में सरकार बना लेगी. 2013 के चुनाव में कांग्रेस को 8 केजरीवाल को 28, भाजपा 33 और निर्दलीय एक विधायक की जीत हुई. बीजेपी चाहती तो सरकार बना सकती थी, लेकिन तब अरुण जेटली ये नहीं चाहते थे कि दिल्ली में उनसे बड़ा कोई नेता पनप सके, इसलिए उन्होंने हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया. लिहाजा कांग्रेस और आप ने मिलकर भाजपा को दिल्ली में साफ कर दिया.
इस बार भाजपा चुनाव की तैयारी को लेकर काफी सावधानी और बारीकी बरत रही है. मुद्दा करप्शन का है, दिल्ली की बदहाली का है, केजरीवाल के चेहरे का है, विकास के नाम पर ढोंग का है और दिल्ली में एक साफ सुथरी सरकार बनाकर इसे बेहतरीन बनाने का है. इसलिए भाजपा ने अपने सभी दिग्गजों डॉ. हर्षवर्धन, मीनाक्षी लेखी, रमेश विधूड़ी और परवेश वर्मा को चुनाव मैदान में उतारने का फैसला किया है.
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मुख्यमंत्री कौन होगा इसका फैसला चुनाव के बाद विधायक दल करेगा, लेकिन पार्टी ने मोटे तौर पर तय कर दिया है कि मुख्यमंत्री विधायकों में से कोई एक होगा और जो दो बार विधानसभा का चुनाव हार गए हैं, उन्हें टिकट नहीं दिया जाएगा. भाजपा का सपोर्ट बेस दिल्ली में फिलहाल 42 प्रतिशत है अगर यह कम नहीं हुआ तो वर्किंग मेजोरिटी के साथ भाजपा दिल्ली में सरकार बना सकती है.
शीला दीक्षित की दिल्ली जो कभी विश्व पटल पर अपना नाम कमाने लगी थी, बस संदीप दीक्षित के एक CWG घोटाले ने दिल्ली में कांग्रेस का काम तमाम कर दिया. शीला दीक्षित खुद चुनाव हार गईं, पार्टी शिखर से शून्य पर पहुंच गई. पहले दलितों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया, फिर मुसलमानों ने और उसके बाद एक-एक करके सभी सीनियर नेताओं ने अपनी संपत्ति को संभालने की जुगत में पार्टी को ‘मृत्यु शैय्या’ पर लिटा दिया.
कांग्रेस के पास खोने के लिए क्या है?
कांग्रेस के पास खोने के लिए अब सिर्फ राहुल-प्रियंका-सोनिया और इंदिरा का नाम है. कांग्रेस दिल्ली में आम आदमी पार्टी से बार-बार गठबंधन करके अपना सब कुछ लुटा चुकी है. अब आसरा राहुल गांधी से है, उनकी न्याय यात्रा सफल है. दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष देवेंद्र यादव ने संगठन को जिंदा करने की कोशिश की है. उनका सपोर्ट बेस फिलहाल दिल्ली में करीब 10 प्रतिशत है और किसी तरह पार्टी अपना सपोर्ट बेस 4 प्रतिशत और बढ़ा लेती है तो मुश्किल आम आदमी पार्टी के लिए है, क्योंकि पिछले चुनाव में कांग्रेस का सपोर्ट बेस मात्र 4 प्रतिशत ही था. ऐसे में आम आदमी पार्टी को उम्मीद कांग्रेस से है और कांग्रेस को उम्मीद राहुल गांधी से है.
बात दिल्ली में तीनों पार्टियों के सपोर्ट बेस की हुई है, लेकिन सवाल ये उठता है कि बाकी के बचे करीब 20 प्रतिशत लोगों का सपोर्ट किसके लिए है. ये अभी स्पष्ट नहीं है कि आखिर ऊंट किस करवट बैठेगा, क्योंकि बूथ प्रबंधन में भाजपा का अगर कोई जवाब नहीं है तो आम आदमी पार्टी का बूथ प्रबंधन भी दिल्ली में कम से कम भाजपा से कमतर नहीं है. ऐसे में जो जिताऊ उम्मीदवार को टिकट देगा उसकी प्रार्टी जीत जाएगी. हालांकि जिस तरह की हड़बड़ी में आप दिल्ली में दिख रही है, उससे ऐसा लगता है कि दिल्ली की हवा में बदलाव की सुगंध व्याप्त है, जिसे जनता ने सूंघ लिया है.
-भारत एक्सप्रेस
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