विश्लेषण

क्या पुलिस बलात्कार रोक सकती है?

काम की जगह पर या देश में कभी भी कहीं भी महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ तेज़ी बढ़ती जा रही हैं। विशेषकर छोटी उम्र की बच्चियों का बलात्कार करके उनकी हत्या करने के मामले भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हमारे समाज का ये नासूर इतना गहरा है कि पिछले चार-पाँच दिनों में ही देश के अलग-अलग प्रांतों में हुई ऐसी वारदातों को सुनकर आपका कलेजा हिल जाएगा।

पंजाब में एक युवा अपनी प्रेमिका को भगा करे ले गया तो उसकी प्रेमिका के घरवालों ने उस युवक की बहन के साथ सामूहिक बलात्कार किया। उत्तराखण्ड में एक नर्स अस्पताल से ड्यूटी ख़त्म कर घर जा रही थी तो उसके साथ बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गई। तमिलनाडू के तंजोर ज़िले में 22 वर्षीय युवती का तीन मित्रों ने सामूहिक बलात्कार किया। उड़ीसा में एक मशहूर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर को दो मरीज़ों के बलात्कार के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है। मुंबई के साकी नाका में 3 साल की बच्ची से 9 साल के लड़के ने बलात्कार किया। राजस्थान के जोधपुर में 11 साल की लड़की के साथ उसके पड़ोसी ने उससे बार-बार बलात्कार किया। हरियाणा में बलात्कार और हत्या के आरोपी राम रहीम को हर चुनाव के पहले पैरोल पर रिहा किया जा रहा है। इस तरह वो अब तक 235 दिन की आज़ादी का मज़ा ले चुका है।

उत्तर प्रदेश में एक बाप ने अपने 13 साल की बेटी के साथ बलात्कार किया। इसके अलावा उत्तर प्रदेश में एक सरकारी अफ़सर ने दलित लड़की के घर में उससे बलात्कार किया और पुलिस ने एक बुजुर्ग मौलाना को एक बच्ची से बलात्कार से कोशिश करते हुए गिरफ़्तार किया। बिहार में 14 साल की दलित लड़की को सामूहिक बलात्कार के बाद मुज़फ़्फ़रपुर में मार डाला गया। झारखंड में एक स्कूल बस ड्राइवर ने 3 साल की छात्र के साथ बलात्कार किया। कर्नाटक में एक अध्यापक ने 11 साल की बच्ची से बलात्कार की कोशिश की और गिरफ़्तार हुआ। ये सब हादसे पिछले चार पाँच दिनों में हुए हैं। इसके अलावा सैंकड़ों अन्य मामले दबा दिए जाते हैं और महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के हज़ारों मामले रोज़ होते हैं। हमारे समाज की ये भयावह तस्वीर सिद्ध करती है कि हम घोर कलयुग में जी रहे हैं।

महिलाओं के साथ बलात्कार की ये सारी वारदातें देश भर में पिछले हफ़्ते में ही हुई हैं। क्या कहीं भी पुलिस या प्रांतीय सरकार इन बलात्कारों को रोक पायी? कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज की ट्रेनी डॉक्टर से हुई दरिंदगी की खबर ने देश भर में एक बार फिर महिला सुरक्षा को लेकर कई सवाल उठा दिए हैं। देश भर में मेडिकल के छात्र दिल्ली के निर्भया काण्ड की तर्ज़ पर इस हादसे के खिलाफ सड़क पर उतरे हुए हैं।

हर कोई पुलिस की नाकामी पर सवाल उठा रहा है। परन्तु सोचने वाली बात यह है कि क्या हमारे देश में इतना पुलिस बल है कि वो देश के हर नागरिक को सुरक्षित रख सकता है? जिस तरह कोलकाता पुलिस ने अपनी सूझबूझ और तत्परता से आरजी कर मेडिकल कॉलेज की ट्रेनी महिला डॉक्टर के साथ दरिंदगी करने वाले मुख्य अभियुक्त संजय रॉय को हिरासत में लिया वो सराहनीय है। परन्तु इससे यह साबित नहीं होता कि पुलिस अपराध होने से पहले ही घटनास्थल पर पहुँच कर अपराध को रोक सकती थी।

यदि ऐसे अस्पतालों में या ऐसे ही किसी अन्य स्थान, में जहां नाईट शिफ्ट में महिलाओं की कर्मचारी मौजूद होती हैं, वहाँ पर सुरक्षा को लेकर अतिरिक्त प्रबंध भी किए जाने चाहिए। उल्लेखनीय है कि प्रायः यहाँ पर आपको सीसीटीवी कैमरे लगे ज़रूर दिखाई देंगे। परंतु ये तो अपराध होने के बाद ही सहायक साबित होते हैं। लेकिन ऐसा कुछ होना चाहिए कि यदि इन स्थानों पर लगे सीसीटीवी कैमरों की कंट्रोल रूम में निगरानी होती रहे और कैमरों के साथ एक अलार्म भी लगा हो। कंट्रोल रूम में बैठा सुरक्षाकर्मी किसी भी अप्रिय घटना को देखते ही अलार्म बजाए और तुरंत उस स्थान पर मदद भी पहुँचाए तो ऐसे अपराध होने से पहले रोके जा सकते हैं। ज़रूरत केवल लीक से हट कर सोचने की है। यदि ऐसा होता है तो देश में हज़ारों की तादाद में अस्पतालों, होटलों, स्कूल व कॉलेज में इसका प्रबंधन किया जा सकता है। ऐसा करने से रोज़गार के अतिरिक्त मौक़े भी उत्पन्न होंगे। अपराध पर भी नियंत्रण पाने में आसानी होगी।

कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में हमारे पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कामोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं।

पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वीआईपी बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वीआईपी अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए।

-भारत एक्सप्रेस

विनीत नारायण, वरिष्ठ पत्रकार

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