राहुल गांधी के ताजा विवाद पर पक्ष और विपक्ष तलवारें भांजे आमने-सामने खड़ा है। इस विवाद के क़ानूनी व राजनैतिक पक्षों पर मीडिया में काफ़ी बहस चल रही है। इसलिए उसकी पुनरावृत्ति यहाँ करने की आवश्यकता नहीं है। पर इस विवाद के बीच जो विषय ज़्यादा गंभीर है उस पर देशवासियों को मंथन करने की ज़रूरत है। चुनाव के दौरान पक्ष और प्रतिपक्ष के नेता सार्वजनिक रूप से एक दूसरे पर अनेक आरोप लगाते हैं और उनके समर्थन में अपने पास तमाम सबूत होने का दावा भी करते हैं। चुनाव समाप्त होते ही ये खूनी रंजिश प्रेम और सौहार्द में बदल जाती है। न तो वो प्रमाण कभी सामने आते हैं और न ही जनसभाओं में उछाले गये घोटालों को तार्किक परिणाम तक ले जाने का कोई गंभीर प्रयास सत्ता पर काबिज हुए नेताओं द्वारा किया जाता है। कुल मिलाकर ये सारा तमाशा मतदान के आख़िरी दिन तक ही चर्चा में रहता है और फिर अगले चुनावों तक भुला दिया जाता है।
हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता का यह एक उदाहरण है जो हम आज़ादी के बाद से आजतक देखते आए हैं। हालाँकि चुनावों में धन तंत्र, बल तंत्र व हिंसा आदि के बढ़ते प्रयोग ने लोकतंत्र की अच्छाइयों को काफ़ी हद तक दबा दिया है। पिछले चार दशकों में लोकतंत्र को पटरी में लाने के अनेक प्रयास हुए पर उसमें विशेष सफलता नहीं मिली। फिर भी हम आपातकाल के 18 महीनों को छोड़ कर कमोवेश एक संतुलित राजनैतिक माहौल में जी रहे थे। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में राजनीति की भाषा में बहुत तेज़ी से गिरावट आई है और इस गिरावट का सूत्रपात्र सत्तापक्ष के दल और संगठनों की ओर से हुआ है। ‘ट्रॉल आर्मी’ एक नया शब्द अब राजनैतिक पटल पर हावी हो गया है। किसी भी व्यक्ति को उसके पद, योग्यता, प्रतिष्ठा, समाज और राष्ट्र के लिए किए गये योगदान आदि की उपेक्षा करके ये ‘ट्रॉल आर्मी’ उस पर किसी भी सीमा तक जा कर अभद्र टिप्पणी करती है। माना जाता है कि हर क्रिया की विपरीत और समान प्रक्रिया होती है। परिणामत: अपने सीमित संसाधनों के बावजूद विपक्षी दलों ने भी अपनी-अपनी ‘ट्रॉल आर्मी’ खड़ी कर ली है। कुल मिलाकर राजनैतिक वातावरण शालीनता के निम्नतर स्तर पर पहुँच गया है। हर वक्त चारों ओर उत्तेजना का वातावरण पैदा हो गया है जो राष्ट्र के लिए बहुत अशुभ लक्षण है। इससे नागरिकों की ऊर्जा रचनात्मक व सकारात्मक दिशा में लगने की बजाय विनाश की दिशा लग रही है। पर लगता है कि राष्ट्रीय नेतृत्व को इस पतन की कोई चिंता नहीं है।
जिस आरोप पर सूरत कि अदालत ने राहुल गांधी को इतनी कड़ी सज़ा सुनाई है उससे कहीं ज़्यादा आपराधिक भाषा का प्रयोग पिछले कुछ वर्षों में सत्ताधीशों के द्वारा सार्वजनिक मंचों पर बार-बार किया गया है। मसलन किसी भद्र महिला को ‘जर्सी गाय’ कहना, किसी राज्य की मुख्य मंत्री को उस राज्य के हिंजड़ों की भाषा में संबोधन करना, किसी बड़े राजनेता की महिला मित्र को ‘50 करोड़ को गर्ल फ्रेंड’ बताना, किसी बड़े राष्ट्रीय दल के नेता का बार-बार उपहास करना और उसे समाज में मूर्ख सिद्ध करने के लिए अभियान चलाना, किसी महिला सांसद को सांकेतिक भाषा में सूर्पनखा कह कर मज़ाक उड़ाना। ये कुछ उदाहरण हैं ये सिद्ध करने के लिए कि ऊँचे पदों पर बैठे लोग सामान्य शिष्टाचार भी भूल चुके हैं।
यहाँ 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय की एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। जब पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधान मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने भारत के संदर्भ में घोषणा की थी कि वे भारत से एक हज़ार साल तक लड़ेंगे। इस पर भारत कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रामलीला मैदान की एक विशाल जनसभा में बिना पाकिस्तान या भुट्टो का नाम लिये बड़ी शालीनता से ये कहते हुए जवाब दिया कि, “वे कहते हैं कि हम एक हज़ार साल तक लड़ेंगे, हम कहते हैं कि हम शांतिपूर्ण सहअस्तित्व से रहेंगे।” ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब भारत के प्रधानमंत्रियों ने अपने ऊपर तमाम तरह के आरोपों और हमलों को सहते हुए भी अपने पद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। चाहे वे किसी भी दल से क्यों न आए हों। क्योंकि प्रधान मंत्री पूरे देश का होता है, किसी दल विशेष का नहीं। इस मर्यादा को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।(3.21)’ अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी वैसा ही अनुकरण करते हैं।
इस संदर्भ में सबसे ताज़ा उदाहरण जम्मू कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा का है जिन्होंने पिछले हफ़्ते ग्वालियर के एक शैक्षिक संस्थान में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि, “महात्मा गांधी के पास कोई लॉ की डिग्री नहीं थी। क्या आप जानते हैं कि उनके पास एक भी यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं थी। उनकी एकमात्र योग्यता हाई स्कूल डिप्लोमा थी।” बीएचयू वाराणसी के इंजीनियरिंग ग्रेजुएट का गूगल युग में ऐसा अहमक बयान किसके गले उतरेगा? जबकि सारा विश्व जानता है कि महात्मा गांधी कितने पढ़े लिखे थे और उनके पास कितनी डिग्रियां थी? सिन्हा के इस वक्तव्य से करोड़ों देशवासियों की भावनाएँ आहत हुई हैं। क्या देशभर की अदालतों में सिन्हा के ख़िलाफ़ मानहानि के मुकदमें दायर किए जायें या राष्ट्रपति महोदया से, अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए, उन्हें पद मुक्त किए जाने की अपील की जाए? क्योंकि मनोज सिन्हा कोई बेपढ़े-लिखे आम आदमी नहीं हैं बल्कि वे एक संवैधानिक पद को सुशोभित कर रहे हैं।
जब शासन व्यवस्था में सर्वोच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों की भाषा में इतना हल्कापन आ चुका हो तो ये पूरे देश के लिए ख़तरे की घंटी है। इसे दूर करने के लिए बिना राग द्वेष के समाज के हर वर्ग और राजनैतिक दलों के नेताओं को सामूहिक निर्णय लेना चाहिए कि ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना शब्दावली के लिए भारतीय लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होगा। अन्यथा अभद्र भाषा की परिणीत निकट भविष्य में पारस्परिक हिंसा के रूप में हर जगह दिखने लगेगी। यदि ऐसा हुआ तो देश में अराजकता फेल जाएगी जिसे नियंत्रित करना किसी भी सरकार के बस में नहीं होगा।
-भारत एक्सप्रेस
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