विश्लेषण

किसान आंदोलन के समय याद आते हैं स्वामी सहजानंद सरस्वती

स्मरण…

गोपाल जी राय

जब जब देश में किसान आंदोलन की बात होती है या फिर आंदोलन की शुरुवात होती है तो उनके असली और पहले सफल मसीहा स्वामी सहजानन्द सरस्वती जी के जीवन आदर्शों और इस वास्ते किये गए अथक परिश्रमों की याद हर किसी को आ ही जाती है। जबकि उनको इस दुनिया से गए 73 साल हो गए।

ऐसा इसलिए कि उनके व्यक्तित्व और कृतीत्व से किसान समुदाय काफी लाभान्वित हुआ था और तत्कालीन सियासी धुरी का केंद्रबिंदु समझा जा रहा था। और आज एक बार फिर वही स्थिति समुपस्थित हो चुकी है। सवाल किसानों के सुलगते हुए प्रश्नों का तो है ही, साथ ही आर्यावर्त के उस समावेशी अस्तित्व का भी है जिसे देश-विदेश की धरती से लगातार चुनौतियां मिल रही हैं। इसलिए अन्न दाता किसानों और अमूमन सैनिक बनकर सुरक्षा करने वाले उनके नौनिहालों के ऊपर एक महती जिम्मेदारी आ पड़ी है।

यदि वे मौजूदा किसान आंदोलन को स्वामी सहजानंद सरस्वती के नक्शेकदम का अनुकरण करते हुए चलाएंगे तो निःसन्देह भारत मजबूत होगा और उनका प्रभुत्व बढ़ेगा। लेकिन यदि वह उनके बताए मार्गों से भटकेंगे तो जीवन संघर्ष बढ़ेगा। इससे समकालीन सत्ता की चुनौती भी बढ़ेगी, जो उनकी मांगों को पूरा करने में चुनावी दाव खेल सकती है।

मौजूदा किसान आंदोलन पर सवाल

कहना न होगा कि 21 वीं सदी के तीसरे दशक में भी कतिपय किसान नेता अपने क्षुद्र जातीय, साम्प्रदायिक व क्षेत्रीय सोच से आगे व्यापक राष्ट्रीय समझ को विकसित नहीं कर पा रहे हैं, जिससे किसान आंदोलन की रीति-नीति पर भी कई बार सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। जबकि, बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों और तीसरे दशक के प्रारंभिक वर्षों में फैली महामारी प्लेग के दौरान स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने संत के सामाजिक सरोकारों को उद्वेलित करते हुए किसान-मजदूर जैसे जनसाधारण की सेवा का और शासन को सहयोग का जो अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया था, उसकी दरकार आज हर कोई महसूस कर रहा है। खासकर मोदी-योगी-नीतीश सरकार की तिकड़ी को तो उनके जैसे जननेता के व्यवहारिक सपोर्ट की आज सख्त जरूरत है।

आज भारत भूमि पर भगवा सरकार है, भगवा संतों से यह सनातन भूमि आच्छादित है, लेकिन क्यों बार बार किसानों को आंदोलन का रुख करना पड़ रहा है, क्या यह महज राजनीतिक हथकंडा है या फिर किसानों के हितों के लिए लड़ाई । कहते हैं कि वर्तमान में ही इतिहास गढ़ा जाता है। लेकिन यह कैसी विडंबना है कि समकालीन वर्तमान अपने धवल अतीत को पुनः गढ़ पाने में असहाय प्रतीत होता दिखाई दे रहा है।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व अपवाद

यह कौन नहीं जानता कि अमूमन इतिहास खुद को दुहराता है, लेकिन स्वामी सहजानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व और कृतित्व अब तक अपवाद स्वरूप है। आगे क्या होगा भविष्य के गर्त में है, पर वर्तमान को उनकी याद सताती है। फिर भी इतिहास खुद को दुहरा नहीं पाया! जबकि लोगबाग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं किसी समतुल्य नायक का, जो उनकी जीवनधारा बदल दे। किसानी जीवन की सूखी नदी में दखल देने वाली व्यवस्था की रेत और छाड़न को किसी अग्रगामी चिंतनधारा से ऐसे लबालब भर दे कि पूंजीवाद और साम्यवाद के तटबंध बौने पड़ जाएं, समाजवादी उमड़ती दरिया और दरियादिली देख।

आप मानें या नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति में जब भी किसानों की चर्चा होती है तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार संगठित करने वाले दंडी स्वामी ‘स्वामी सहजानन्द सरस्वती’ की याद बरबस आ जाती है। यदि यह कहा जाए कि स्वामी जी किसानों के पहले और अंतिम अखिल भारतीय नेता थे तो गलत नहीं होगा। दरअसल, वो पहले ऐसे किसान नेता थे जिन्होंने किसानों के सुलगते हुए सवालों को स्वर तो दिया, लेकिन उसके आधार पर कभी खुद को विधान सभा या संसद में भेजने की सियासी भीख आमलोगों से कभी नहीं मांगी। इसलिए वो अद्वितीय हैं और अग्रगण्य भी।

समकालीन किसान नेताओं का जब सत्ता पक्ष या विपक्ष से संसर्ग स्थापित होता दिखाई देता है तो यही आशंका बलवती होती है कि कहीं ये लोग भी कृषक व कृषक मजदूरों के हितों से सौदेबाजी नहीं कर लें। क्योंकि उत्तर भारत के किसान नेता चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की सफलता से कृषक समाज चाहे जितना उत्साहित हुआ हो, लेकिन बाद के वर्षों में किसानों के वाजिब मुद्दों से भारतीय किसान यूनियन का भटकाव और उसके बाद भाकियू की असली धारा द्वारा देश विरोधी तत्वों को भी अपने साथ कर लिए जाने से उनकी लोकप्रियता चाहे जितनी भी बढ़ी हो, लेकिन राष्ट्रीय एकता व अखंडता के प्रति चिंतित भारतीय समाज में उनके इरादों के प्रति शक भी बढ़ा है, जो किसान आंदोलन की तात्कालिक सफलता के बावजूद एक निराशा भाव तो पैदा करता ही है।

खासकर तब जब भारतीय किसानों की दशा और दिशा को लेकर हमारी संसद और विधान सभाएं गम्भीर नहीं हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाएं भी अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी हैं। ये तमाम संस्थाएं जनविरोधी पूंजीपतियों के हाथों की ‘कठपुतली’ मात्र बनी हुई हैं। ये बातें तो किसानों की करती हैं, लेकिन इनके अधिकतर फैसले किसान विरोधी ही होते हैं। सम्भावित किसान विद्रोह से अपनी खाल बचाने के लिए इनलोगों ने किसानों को जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र में इस कदर बांट रखा है कि वो अपने मूल एजेंडे से ही भटक चुके हैं। इसलिए उनकी आर्थिक बदहाली भी बढ़ी है। सच कहा जाए तो जबसे किसानों में आत्महत्या का प्रचलन बढ़ा है, तबसे स्थिति ज्यादा जटिल और विभत्स हो चुकी है। इसलिए स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद हर किसी को बार बार आती है। किसान आंदोलन के साधन और सुचिता के बारे में स्वामी जी हमेशा सतर्क रहते थे।

स्वामी जी का सियासी कद

वैसे तो स्वामी जी का सियासी कद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समतुल्य है। लेकिन उन्हें मृत्यु के उपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने की जरूरत नहीं समझी गई। शायद इसलिए कि किसानों की आवाज जन्म-जन्मांतर तक दबी रहे। वह उनके नाम पर भी आगे अंतस ऊर्जा नहीं प्राप्त कर सके। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत में संगठित किसान आंदोलन को खड़ा करने का जैसा श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती जी को मिला, बाद में उसका हकदार कोई दूसरा नेता नहीं बन सका। ऐसा इसलिए कि सेवा और त्याग स्वामी जी का मूलमंत्र था। राष्ट्रीयता और मानवता के प्रति वह पूरी तरह से समर्पित थे। व्यवस्था से भ्रष्टाचार हटाने के लिए वह शतप्रतिशत आमादा दिखे। अब कोई भी इस मूलमंत्र को नहीं अपना पायेगा, क्योंकि कृषक समाज की प्राथमिकता बदल गई है।

आज किसानों के एक बड़े वर्ग के लिए आरक्षण जरूरी है, लॉलीपॉप वाली योजनाएं पसंद हैं, जबकि कृषि अर्थव्यवस्था को हतोत्साहित करने वाले और किसानों का परोक्ष शोषण करने वाले कतिपय कानूनों का समग्र विरोध नहीं। यही वजह है कि खेतों को बिजली, बीज, खाद, पानी, मजदूरी और उचित समर्थन मूल्य दिए जाने के मामलों में निरन्तर लापरवाही दिखा रही सरकारों का कोई ठोस विरोध आजतक नहीं हो पाया है। निकट भविष्य में होगा भी नहीं, क्योंकि अब नेतृत्व के बिक जाने का प्रचलन बढ़ा है! सच कहा जाए तो मनरेगा ने ‘गंवई हरामखोरी’ को ऐसा बढ़ाया है कि कृषि मजदूरों का मन भी अपने पेशे से उचट चुका है जिससे शिक्षित किसानों के किसानी कार्य बहुत प्रभावित हो रहे हैं। गांव में खेती का काम करने वाले श्रमिकों की कमी हो गई है ।मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों के विरोध के पीछे भी कुछ यही वजह है, लेकिन विरोध का तरीका बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय वाला नहीं है।

मजबूत किसान नेता

बावजूद इसके, इन ज्वलन्त सवालों को स्वर देने वाला कोई मजबूत राष्ट्रीय नेता नहीं दिखता, बल्कि किसी अवसरवादी गठजोड़ की झलक जरूर मिलती है। भाकियू नेता राकेश टिकैत के तेवर कुछ उम्मीद जरूर बंधाते हैं, लेकिन उत्तर भारत के दायरे से आगे बढ़कर पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, मध्य भारत और दक्षिणी भारत के किसानों के बीच उनकी पहुंच अत्यल्प है, जिससे उनका आंदोलन परिपूर्ण नहीं समझा जा रहा है।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि मौजूदा दौर में एक दो संगठन नहीं, बल्कि दो-तीन सौ संगठन मिलकर किसान हित की बात को आगे बढ़ा रहे हैं या फिर अपनी सियासी रोटियां किसी अन्य दल के लिए सेंक रहे हैं, यह बात किसी की भी समझ में नहीं आती। इसलिए कहा जाता है कि स्वामी जी के बाद कोई ऐसा किसान नेता पैदा नहीं हुआ जो चुनावी राजनीति से दूर रहकर सिर्फ किसानों की ही बात करे। उनके भावी हितों-जरूरतों की ही चर्चा परिचर्चा करे और उन्हें आगे बढ़ाए।

किसान संगठनों की भूमिका

कहने को तो आज प्रत्येक राजनीतिक दल में किसान संगठन हैं लेकिन किसान हित में उनकी भूमिका अल्प या फिर नगण्य है। इस स्थिति को बदले बिना कोई राष्ट्रीय किसान नेता पैदा होना सम्भव ही नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दण्डी संन्यासी होने के बावजूद उन्होंने ‘रोटी को भगवान’ कहा और ‘किसानों को देवता’ से भी बढ़कर बताया। इससे किसानों को भी अपनी महत्ता का भी पता चला। किसानों के प्रति स्वामी जी इतने संवेदनशील थे कि तत्कालीन असह्य परिस्थितियों में उन्होंने स्पष्ट नारा दिया कि “जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब वो कानून बनाएगा। ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलाएगा।”

निःसन्देह, स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने आजादी कम और गुलामी ज्यादा देखी थी। इसलिए काले अंग्रेजों से ज्यादा गोरे अंग्रेजों के खिलाफ मुखर रहे। समझा जाता है कि किसानों से मालगुजारी वसूलने की प्रक्रिया में जब उन्होंने सरकारी मुलाजिमों का आतंक और असभ्यता देखी तो किसानों की दबी आवाज को स्वर देते हुए कहा कि “मालगुजारी अब नहीं भरेंगे, लट्ठ हमारा जिंदाबाद।” इतिहास साक्षी है कि किसानों के बीच यह नारा काफी लोकप्रिय रहा और ब्रिटिश सल्तनत की चूलें हिलाने में अधिक काम आया।

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स्वामीजी का परिचय संक्षिप्त है, लेकिन व्यक्तित्व विराट। वे जन्म तो उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के देवां गांव में महा शिवरात्रि के दिन 1889 को हुवे थे,और अंतिम सांस बिहार के मुजफ्फरपुर में 25 जून 1950 को लिए थे ।हालांकि परवर्ती जातिवादी किसान नेताओं और उनके दलों ने उनके व्यक्तित्व को वह मान-सम्मान नहीं दिया, जिसके वे असली हकदार हैं। यही वजह है कि किसान आंदोलन हमेशा लीक से भटक गया। समाजवादी और वामपंथी नेता इतने निखट्टू निकले की, उनलोगों ने किसान आंदोलन का गला ही घोंट किया। उनके बाद चौधरी चरण सिंह और महेंद्र टिकैत किसान नेता तो हुए, लेकिन किसी को अखिल भारतीय पहचान नहीं मिली, क्योंकि इनकी राष्ट्रीय पकड़ कभी विकसित ही नहीं हो पाई। दोनों पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ही सिमट कर रह गए। भाकियू नेता राकेश टिकैत की स्थिति उनसे भी कमतर है, किसान हित में एक उल्लेखनीय उपलब्धि उनके खाते में है, लेकिन अन्य उपलब्धियों को हासिल करने वाली बेचैनी उनमें दिखाई नहीं दे रही है।

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