विश्लेषण

त्योहारों की तिथियों में विवाद क्यों?

Festivals Controversy: बीते कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि जब भी कोई त्योहार आता है तो उसकी स्थिति को लेकर काफ़ी विवाद पैदा हो जाते हैं। इन विवादों को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया की भूमिका को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसी संदर्भ में आज के लेख का विषय कई पाठकों की उत्सुकता के कारण चुना है। इस दीपावली पर मुझे कई फ़ोन आए और सभी ने इस विषय को छेड़ा और मुझे इस मुद्दे पर लिखने को कहा। मैंने शास्त्र आधारित तथ्यों पर वृंदावन में जानकारों से चर्चा की। उन विद्वानों के अनुसार इसके पीछे कई कारण हैं।

त्योहारों की तिथियों में विवाद की वजह क्या है

कई वर्षों के अनुभवी और ज्योतिष व कर्मकांड के विशेषज्ञ आचार्य राजेश पांडेय जी का कहना है कि, इसका मुख्य कारण है भारत की भौगोलिक स्थिति। सूर्योदय और सूर्यास्त होने के समय में अंतर होने से तिथियों का घटना व बढ़ना हो जाता है। इससे त्योहार मनाने का समय बदल जाता है। कहीं पर वही त्योहार पहले मनाया लिया जाता है और कहीं पर बाद में। इसके साथ ही एक अन्य कारण है पंचांग का गणित भेद। कुछ पंचांगकर्ता ‘सौर पंचांग’ के अनुसार गणित रचना कर त्योहारों को स्थापित करते हैं। लेकिन अधिकतर अनन्य पंचांग द्रिक पद्धति से देखे जाते हैं। इसीलिए त्योहारों में मतेकता नहीं हो पाती है।

सौर पंचांग एक ऐसा कालदर्शक है जिसकी तिथियां ऋतु या लगभग समतुल्य रूप से तारों के सापेक्ष सूर्य की स्पष्ट स्थिति को दर्शाती हैं। ग्रेगोरी पंचांग, जिसे विश्व में व्यापक रूप से एक मानक के रूप में स्वीकार किया गया है, सौर कैलेंडर का एक उदाहरण है। पंचांग के अन्य मुख्य प्रकार चन्द्र पंचांग और चन्द्रा-सौर पंचांग हैं, जिनके महीने चंद्रकला के चक्रों के अनुरूप होते हैं। ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीने चन्द्रमा के चरण चक्र के अनुरूप नहीं होते।

त्योहारों की तिथि के भेद का कारण

इसके अलावा त्योहारों की तिथि के भेद का एक अन्य कारण संप्रदाय भेद भी है। विभिन्न संप्रदायों में मतभेद के पीछे कई कारण हैं। संप्रदायों में विभिन्नता या ज़िद्द के कारण भी त्योहारों की तिथि में अंतर आने लग गये हैं। एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय की तिथि से अक्सर अलग ही तिथि की घोषणा कर देता है और उस संप्रदाय को मानने वाले आँख मूँद कर उसका पालन करते हैं। इसके साथ ही संप्रदायों में धृष्टता होना भी एक कारण माना गया है। कई मठ-मंदिर आदि के मानने वाले इतने कट्टर होते हैं कि वे अपने मठाधीशों के फ़रमान के अनुसार ही त्योहारों को मनाने की ठान लेते हैं। फिर वो चाहे पंचांग आधारित हो या स्वयंभू सद्गुरुओं या जगद्गुरुओं की सुविधानुसार हो, उसी का पालन किया जाता है।

मीडिया पर चलने वाला अधपका ‘ज्ञान’

इन सबसे हट कर एक और अहम कारण है सोशल मीडिया पर चलने वाला अधपका ‘ज्ञान’। ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी द्वारा बाँटे जा रहे इस ज्ञान ने भी तिथि विवाद की आग में घी डालने का काम किया है। अधपके ज्ञान को इस कदर फॉरवर्ड किया जाता है कि मानो वही वास्तविक और शास्त्र आधारित तथ्य हो। इतना ही नहीं एक घर परिवार में भी इस सोशल मीडिया की महामारी ने ऐसा असर किया है कि बाप-बेटे में ही विवाद उत्पन्न हो चले हैं। जबकि इस विवाद और ऐसे अन्य विषयों पर विवाद पैदा होने के पीछे ‘भेड़-चाल’ प्रवृत्ति एक मूल कारण है। किसी भी स्थिति में अधपके ज्ञान और संदेश को सत्य मन लेना नासमझी ही कहलाती है। वहीं यदि हम तथ्यों पर आधारित प्रमाणों को माने तो अधपके ज्ञान से बच सकते हैं।

तिथियों के विवाद को लेकर का क्या मानना है

तिथियों के विवाद को लेकर विद्वानों का मानना है कि सौर पंचांग को मानने वाले इस बात पर ज़ोर देते हैं कि जिस रात्रि में दीपावली मिलती है वे उसी के अनुसार दीपावली मनाएँगे। वहीं द्रिक पद्धति और धर्म शास्त्र के अनुसार जिस तिथि में सूर्योदय हुआ है और उसी तिथि में सूर्यास्त हुआ है तो वह तिथि संपूर्ण मानी जाती है। परंतु जहां पर दो अमावस्या पड़ रहीं हों, तो धर्मशास्त्र के अनुसार परे विग्राहिया का पालन करना चाहिये । यदि दो अमावस्या परदोष को स्थापित हो रही हैं तो प्रथम दिवस की अमावस्या को छोड़ कर दूसरे दिन की अमावस्या को ही मानना चाहिए।

पद्म-पुराण में दीपावली का वर्णन

देखा जाए तो शास्त्रों के अनुसार दीपावली का अर्थ केवल नए कपड़े पहनना, मिठाई बाँटना, दीपोत्सव और आतिशबाजी ही नहीं है। दीपावली पितरों के स्वर्ग प्रस्थान का पर्व है और हम दीपक इसलिए प्रज्ज्वल्लित करते हैं ताकि पितरों का मार्ग प्रकाशित हो सके। पद्म-पुराण के उत्तर खण्ड में दीपावली का वर्णन है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में एकादशी से अमावस्या तक दीप जलाने का विशेष उल्लेख किया गया है। इन पाँच दिनों में भी अन्तिम दिन को वहाँ विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसके महात्म्य में इसे पितृ कर्म मानते हुए कहा गया है कि स्वर्ग में पितर इस दीप-दान से प्रसन्न होते हैं।

ज्वलते यस्यसेनानीरश्वमेधेन तस्य किम् ।
तेनेष्टं क्रतुभिः सर्वैः कृतं तीर्थावगाहनम् ॥
पितरश्चैव वाञ्छन्ति सदा पितृगणैर्वृतः।
भविष्यति कुलेऽस्माकं पितृभक्तः सुपुत्रकः॥
कार्तिके दीपदानेन यस्तोषयति केशवम् ।
घृतेन दीपको यस्य तिलतैलेन वा पुनः ॥

कार्तिक मास के इन दिनों में सूर्यास्त के बाद रात्रि में घर, गोशाला, देवालय, श्मशान, तालाब, नदी आदि सभी स्थानों पर घी और तिल के तेल से दीप जलाने का महत्व है। ऐसा करने से दीप जलाने वाले के उन पितरों को भी मुक्ति मिलती है जिन्होंने पापाचरण किया हो या जिनका श्राद्ध उचित ढंग से नहीं हुआ हो।
पापिनः पितरो ये च ये च लुप्तपिण्डोदकक्रियाः
तेऽपि यान्ति परां मुक्तिं दीपदानस्य पुण्यतः ॥

दीपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली प्रेतचतुर्दशी उत्तर भारत में व्यापक रूप से मनाई जाती है। वर्षक्रियाकौमुदी में उद्धृत एक कथा के अनुसार, एक धार्मिक व्यक्ति को तीर्थ यात्रा के दौरान पाँच प्रेत मिले, जो भयंकर कष्ट में थे। प्रेतों ने उसे बताया कि वे उन घरों में रहते हैं जहां गंदगी फैली हो, सामान बिखरा हो, झूठे बरतन हों और लोग शोक व गंदगी में डूबे हों। इस कथा का उद्देश्य लोगों को स्वच्छता और सकारात्मक वातावरण बनाए रखने की शिक्षा देना है।

एकजुट होकर ही निकालना होगा हल

कुल मिलाकर यह कहना सही होगा कि हमारे शास्त्रों में हर त्योहार के पीछे जो आधार हैं स्थापित हैं उन्हें सुविधानुसार तोड़-मरोड़ कर संशोधन करना सही नहीं है। इसलिए फिर वो चाहे पंचांग भेद हो या संप्रदाय भेद हो इनका समाधान निकालना है तो सभी संप्रदायों और विभिन्न पंचांग पद्धति के मानने वालों को एकजुट हो कर ही इसका हल निकालना होगा नहीं तो हर वर्ष इसी तरह के विवाद होते रहेंगे।

विनीत नारायण, वरिष्ठ पत्रकार

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