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पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ ने मचा दिया था तहलका, फर्स्ट शो के लिए लोगों ने खाई थीं लाठियां, 14 मार्च को हुई थी रिलीज

Alam Ara Craze: भारतीय सिनेमा के इतिहास को देखें तो अलग-अलग दौर में अनगिनत फिल्में ऐसी आई हैं, जिन्हें लेकर दर्शकों में क्रेज था. कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जब वे रिलीज हुईं तो उनकी वजह से उस दौर को आज भी याद किया जाता है.

आज हम भारतीय सिनेमा के ऐसे ही एक जमाने में आपको ले जा रहे हैं, जब देश में फिल्मों का निर्माण शुरुआत दौर में था और लोगों में इसके प्रति दीवानगी का आलम सिर चढ़कर बोल रहा था.

हम बात कर रहे हैं आज से करीब 93 साल पहले की, जब ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्मों का दौर था और सिनेमा के नाम पर लोग सिर्फ बेआवाज फिल्मों से परिचित थे. 1913 में पहली भारतीय​ फिल्म राजा हरिश्चंद्र के रिलीज हुई थी, जो कि एक मूक यानी बिना आवाज और साउंड वाली फिल्म थी.

इसके तकरीबन 18 साल बाद 1931 में ‘आलम आरा’ (Alam Ara) फिल्म आई, जो कि भारत की पहली बोलती फिल्म थी. दर्शकों ने जब रूपहले पर्दे पर कलाकारों को बोलते देखा तो वह इसके जादुई असर में ही कैद होकर रह गए. साल 1931 में आज की तारीख यानी 14 मार्च को इस फिल्म में अपनी रिलीज के साथ भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर रख दिया था.

ब्लैक में बिके थे फिल्म के टिकट

उस जमाने में पहली बार किसी बोलती फिल्म को देखने के लिए लोगों में इतना क्रेज था कि उनमें टिकट के लिए तब मारामारी तक हो गई थी. पहले दिन फिल्म के टिकट ब्लैक में बिके थे और तब के जमाने में टिकट को लोगों ने 50 रुपये देकर खरीदा था, जबकि तब अधिकांश लोगों का वेतन ही 50 से 100 और बहुत हुआ तो 200 रुपये मासिक हुआ करता था. 5-10 पैसे में तो लोग घर का पूरा राशन ही खरीद लिया करते थे.

यानी साल 1931 में 50 रुपये में तमाम लोग पूरे महीने का खर्च चलाते थे. इस तरह से कह सकते हैं कि अगर किसी फिल्म के लिए लोगों ने 50 रुपये खर्च किए तो बहुत बड़ी बात थी. इस तरह ‘आलम आरा’ ने एक नई मिसाल कायम की थी.

भीड़ पर लाठियां चलानी पड़ी थीं

बताया जाता है कि ‘आलम आरा’ जब रिलीज हुई तो मुंबई के लोग ब्लैक में टिकट खरीदकर 6 घंटे पहले ही सिनेमाघरों में पहुच गए थे. फिल्म के पहले शो को देखने के लिए लोग सुबह से ही थियेटर पहुंचने लगे थे, जबकि शो का समय दोपहर 3 बजे का था. भीड़ कंट्रोल से बाहर होने के कारण पुलिस को लाठियां तक चलानी पड़ गई थीं. मुंबई में उस दिन किसी मेले सा माहौल था.

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मैजेस्टिक सिनेमा में था पहला शो

‘आलम आरा’ फिल्म 124 मिनट की थी. इसका निर्माण इम्पीरियल मूवीटोन नाम की प्रोडक्शन कंपनी ने किया था. जैसे ही इस फिल्म को लेकर खबर सार्वजनिक हुई थी कि कोई ऐसी फिल्म आ रही है, जिसमें कलाकारों के बोलने की आवाज भी आएगी तो उस समय के युवाओं में इसे लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया था. इससे पहले रिलीज हुई फिल्मों में कोई आवाज नहीं होती थी. फिल्मनगरी मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में इसका पहला शो चला था. सिनेमा हाल के बाहर लोगों की भीड़ बता रही थी कि यह फिल्म कई रिकॉर्ड तोड़ने वाली था.

आसान नहीं था उस दौर में फिल्म बनाना

उस समय की मीडिया रिपोर्टों और खबरों को खंगालें तो पता चलता है कि इस फिल्म का निर्माण करना तब के दौर में आसान काम नहीं था. ‘आलम आरा’ को बनाने के लिए अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी, क्योंकि तब मूक फिल्में ही प्रदर्शित हुआ करती थीं. हालांकि मूक फिल्मों के लिए संवाद लेखक, गीतकार और संगीतकार का कोई जुड़ाव होता ही नहीं था. ‘आलम आरा’ को बनाने के दौरान कलाकारों के संवाद के समय माइक को छिपाना और संगीत तैयार करना भी एक बड़ी चुनौती थी, क्योंकि तब तकनीक इतनी उन्नत नहीं थी.

क्या थी फिल्म की कहानी

फिल्म एक राजा और उनकी दो पत्नियों की कहानी है, जिनका नाम नवबहार और दिलबहार था, दोनों निःसंतान हैं. जल्द ही एक फकीर नवबहार से कहता है कि वह एक लड़के को जन्म देगी, लेकिन अगर वह चाहती है कि बेटा अपने 18वें जन्मदिन के बाद भी जीवित रहे, तो उसे एक मछली के गले में बंधा हार ढूंढना होगा, जो एक बार महल की झील में दिखाई देगा. इस लड़के का नाम कमर रखा जाता है.

इसके अलावा दिलबहार का महल के सेनापति आदिल के साथ भी अफेयर होता है. राजा को इसके बारे में पता चलता है तो दिलबहार उसे बताती है कि आदिल ने ही उसे सबसे पहले बहकाया था. इसके बाद राजा अपने सेनापति को गिरफ्तार करा लेता है और उसकी गर्भवती पत्नी मेहर निगार को महल से निकाल दिया जाता है. निगार आलम आरा को जन्म देती है और मर जाती है. इस दौरान एक शिकारी उसे उसके पति के अफेयर के बारे में बता देता है. निगार की मौत के बाद शिकारी आलम आरा को अपना लेता है.

यह फिल्म जोसेफ डेविड के लिखे पारसी प्ले पर बेस्ड थी. जोसेफ को लोग दादा के नाम से बुलाते थे. उन्होंने हिंदी, उर्दू, गुजराती और मराठी भाषा में कई सारी कहानियां व स्क्रिप्ट लिखीं. इसके अलावा उन्हें ग्रीक, ईरानी, चीनी, यहूदी, मिस्र और भारतीय साहित्य की गहरी जानकारी थी. फिल्म की पटकथा स्क्रीनप्ले इसके निर्देशक आर्देशिर ईरानी लिखी थी. इसके डायलॉग हिंदी और उर्दू के मिश्रण हिंदुस्तानी में लिखे गए थे.

क्या आज देख सकते हैं फिल्म

फिल्म को 40 हजार रुपये के बजट में बनाया गया था. मास्टर विट्ठल, जुबैदा, जिल्लो, सुशीला और पृथ्वीराज कपूर ने फिल्म में अभिनय करके इसमें जान डाल दी थी. इस फिल्म में 7 गाने थे. यही कारण है कि फिल्म के ‘दे दे खुदा के नाम पे’ गाने को भारतीय सिनेमा का पहला गाना कहा जाता है. इस गाने को वजीर मोहम्मद ने आवाज दी थी.

इस फिल्म को लेकर आज अफसोस करने वाली जो बात है, वह ये है कि आज की पीढ़ी अगर इस फिल्म को पूरा देखना चाहे तो नहीं देख सकती, क्योंकि इसका एक भी प्रिंट सही सलामत नहीं बचा है.

-भारत एक्सप्रेस

Archana Sharma

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