Roti Movement 1857: आप लोगों ने आजादी की लड़ाई (Indian Freedom Struggle) के दौरान हुए बहुत सारे आंदोलनों के बारे में तो सुना ही होगा, जैसे- सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन, चंपारण सत्याग्रह, खिलाफत आंदोलन आदि. लेकिन क्या कभी आपने रोटी को लेकर हुए किसी आंदोलन के बारे में सुना है. अगर नहीं सुना है तो फिर आज जान लीजिए.
रोटी या चपाती (Roti/Chapati) हमारे खानपान का अभिन्न अंग है. भारत में भोजन की कल्पना रोटी के बिना अधूरी है. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हमारी साधारण सी दिखने वाली रोटी कुछ इस तरह से एक आंदोलन का हिस्सा बन गई कि अंग्रेज तक आतंकित हो गए थे.
1857 की क्रांति के बारे में तो आप जानते ही होंगे. इसे भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम (First Freedom Movement 1857) कहा जाता है. 10 मई 1867 को उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के मेरठ (Meerut) शहर में ब्रिटिश सेना (British Army) में शामिल भारतीय सैनिकों ने विद्रोह किया था. विद्रोह का कारण सैनिकों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली राइफल में गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूस थे.
1857 में भड़की क्रांति की ये ज्वाला जल्द ही विभिन्न रूपों में भारत (India) के अलग-अलग हिस्सों में फैल गई थी. मंगल पांडेय (Mangal Pandey), झांसी की रानी लक्ष्मीबाई (Laxmi Bai), तात्या टोपे (Tatya Tope), बेगम हजरत महल (Begum Hazrat Mahal) आदि इस संग्राम में योगदान देने वाले प्रमुख योद्धा थे.
कहा जाता है इस क्रांति से पहले रोटी से जुड़ा आंदोलन भी हुआ था, जिसने अंग्रेजों के सामने एक ऐसी पहेली खड़ी कर दी थी, जिसमें वे उलझ कर रह गए थे. यह आंदोलन भी उत्तर प्रदेश से जुड़ा हुआ है. इसकी शुरुआत मथुरा (Mathura) शहर से हुई थी.
हुआ यूं कि आंदोलनकारियों ने रोटी बनाकर इसे जितनी दूर हो सके वहां के लोगों तक पहुंचा देते थे. फिर वहां के लोग और रोटियां बनाकर उसे आगे के गांवों में पहुंचाते थे. ये काम देर रात या फिर भोर में होता था. इस काम को चौकीदार और स्थानीय पुलिसकर्मी अंजाम देते थे.
बताया जाता है कि ये आंदोलन जल्द ही पूरे भारत में फैल गया था और इसमें 90 हजार कॉन्स्टेबल शामिल हो गए थे, जो रोटी पहुंचाने काम करते थे. ये काम कुछ-कुछ आजकल की नेटवर्क मार्केटिंग की तरह था, जिससे रोटियां पहुंचाने की एक चेन शुरू हो गई थी.
बात इतनी आगे बढ़ गई कि इसके बारे में अंग्रेजों को पता चल गया. इतने बड़े पैमाने पर रोटियां एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के इस घटनाक्रम में उन्हें इतना परेशान कर दिया कि उन्होंने मामले की जांच बिठा दी.
फिर जांच की जिम्मेदारी मथुरा के मजिस्ट्रेट मार्क थॉर्नहिल (Mark Thornhill) को मिली और इसमें जो बात पता चली वो और हैरान कर देने वाली थी. पता लगा कि कुछ रोटियां हर रात लगभग 300 किमी तक ले पहुंचा दी जा रही थीं. देश के हर कोने और सभी दिशाओं में रोटियां पहुंचाई जाती थीं. हालांकि इससे भी हैरान कर देने वाली बात ये थी कि कोई भी इसके पीछे की असल वजह का पता नहीं लगा सका. ये आंदोलन किसने और क्यों शुरू किया, इसका रहस्य अब भी बरकरार है. हां, ये जरूर था कि इस आंदोलन ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था.
बहरहाल कुछ लोगों का अंदाजा है कि इन रोटियों में गुप्त कोड होते थे, जिनका इस्तेमाल संदेश और गोपनीय जानकारी देने के लिए किया जाता था, लेकिन चपातियों पर कोई कोड या चिह्न नहीं मिल सका, इस कारण से यह सिद्धांत गलत साबित हो गया.
वहीं, कुछ का कहना है कि चपाती आंदोलन लोगों को संगठित करने और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उन्हें एकजुट करने का एक तरीका था. ऐसा भी कहा जाता है कि 1857 के विद्रोह की नींव वास्तव में चपाती आंदोलन द्वारा ही रखी गई थी. इस क्रांति से कुछ महीने पहले इसकी शुरुआत हुई थी. कहा जाता है कि 1857 की क्रांति में ये रोटियां रसद पहुंचाने का काम करती थीं.
उस जमाने में ये अफवाह भी चल पड़ी कि रोटी बांटने के पीछे अंग्रेजी हुकूमत (British Rule) की ही कोई साजिश है. अंग्रेज आटे में गाय और सूअर की हड्डियां पीसकर मिला रहे हैं और उसकी रोटियां बंटवा रहे हैं. इतना ही नहीं इस आंदोलन को प्लासी की लड़ाई (Battle of Plassey) से भी जोड़ दिया गया. दरअसल 1857 में प्लासी की लड़ाई को 100 साल पूरे हो रहे थे. इस युद्ध को जीतकर ही अंग्रेजों ने भारत में अपनी नींव मजबूत की थी. ऐसे में कुछ लोगों का मानना था या ऐसी भविष्यवाणी की गई थी कि 100 साल बाद अंग्रेजी हुकूमत का सफाया हो जाएगा. 1857 में ये बातें भी खूब फैली थीं.
कुछ लोगों का मानना था कि 1857 का रोटी आंदोलन मध्य भारत में हैजे के प्रकोप (Cholera Outbreak) को रोकने की एक कोशिश थी. इसके प्रसार को ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना की गतिविधियों से जोड़ा गया था, और कुछ भारतीयों ने प्रकोप के लिए अंग्रेजों को जिम्मेदार ठहराया था.
डेनिश-ब्रिटिश इतिहासकार किम वैगनर ने तर्क दिया कि आंदोलन का उद्देश्य शुरू में लोगों को हैजा से बचाना था. हालांकि उन्होंने इस धारणा को खारिज कर दिया कि चपातियां भविष्य में होने वाले विद्रोह का संकेत थीं.
ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के आर्मी सर्जन गिलबर्ट हेडो में मार्च 1857 में इसका जिक्र अपनी बहन को लिखी गई एक चिट्ठी में किया था. उन्होंने लिखा था कि भारत में हजारों की संख्या में लोग एक-दूसरे को रोटियां बांट रहे हैं. किसी को नहीं पता कि ये कहां से, किसने और क्यों शुरू किया. ये कोई धार्मिक परंपरा है या कुछ और.
उस समय फतेहपुर के कलेक्टर रहे जेडब्ल्यू शेरर (JW Sherer) ने अपनी पुस्तक ‘डेली लाइफ डूरिंग द इंडियन म्यूटिनी’ में लिखा है, ‘चपाती आंदोलन के पीछे का उद्देश्य रहस्यमय बेचैनी का माहौल बनाना था और यह प्रयोग बहुत सफल रहा था.’
उनका कहना था, ‘कई अंग्रेज अफसर ये मान चुके थे कि ये आंदोलन महज उन्हें परेशान करने के लिए किया जा रहा है.’ आंदोलन के अपने चरम पर पहुंचने के बाद उन्हें इस बात का यकीन हो गया कि ये सब सिर्फ उन्हें चिढ़ाने के लिए किया जा रहा है.
-भारत एक्सप्रेस
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