दिल्ली हाई कोर्ट ने एक परित्यक्ता महिला के बच्चे को जाति प्रमाण पत्र दिलाने में मदद की. महिला को 15 साल पहले उसके पति ने बिना तलाक के छोड़ दिया था. संबंधित अधिकारियों ने उस बच्चे को इसलिए जाति प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया था कि उसकी मां ने तलाक होने का प्रमाण पत्र पेश नही कर सकी थी.
नियम के तहत ऐसी दशा में महिला को तलाक का प्रमाण पत्र पेश करना अनिवार्य होता है. इसी आधार पर अधिकारियों ने उसे जाति प्रमाण पत्र निर्गत करने से इनकार कर दिया था. वैसे उसके पति ने तलाक का मुकदमा दाखिल किया था, लेकिन उसके पेश न होने की वजह से उसे खारिज कर दिया गया था.
जस्टिस संजीव नरूला ने अधिकारियों के उस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि अकेली मां के साथ रह रहे बच्चे को जाति प्रमाण पत्र देने से इनकार किया जाना स्वीकार्य नही है. उन्होंने कहा कि अगर महिला परित्यक्ता है, तो उसके लिए उसके बच्चे को सजा नही दी जा सकती हैं. लड़के की मां अनुसूचित जाति से है.
उन्होंने लड़के से कहा कि वह नए सिरे से अधिकारियों के समक्ष जाति प्रमाण पत्र पेश करने पर जोर दिए बगैर उसके जाति प्रमाण पत्र देने पर दो सप्ताह के भीतर तथ्यों के आधार पर विचार करें.
अदालत ने कहा कि अलग/तलाकशुदा/एकल महिला (वर्ष 2020 और 2022 में जारी परिपत्रों में) की व्याख्या बच्चे को राहत से वंचित करने के लिए संकीर्ण मानसिकता से नही की जा सकती है. ऐसे व्याख्या होने से उन परिपत्रों के उद्देश्य को ही विफल कर देगी, जिनका उद्देश्य उन बच्चों को समायोजित करना है, जिनके पैतृक संबंध टूट चुके हैं.
भले ही वह कानूनी रूप से नही हो. उन्होंने स्पष्ट किया कि इस तरह के आवेदन को केवल इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि याचिकाकर्ता की मां के पास तलाक या न्यायिक पृथक्करण का औपचारिक डिक्री नही है.
-भारत एक्सप्रेस
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