2 अक्टूबर को महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के साथ ही भारत के एक ऐसे प्रधानमंत्री का जन्मदिन है, जिन्हें उनकी जीवटता, सादगी, उच्च आदर्श और शालीनता के लिए जाना जाता है. 5 फुट 2 इंच का कद और ऊंचे हौसलों वाले भारत के ये प्रधानमंत्री थे लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shashtri).
भारत के दूसरे प्रधानमंत्री शास्त्री की आवाज का मजाक कभी पाकिस्तान (Pakistan) के राष्ट्रपति मोहम्मद अयूब खान (Mohammad Ayub Khan) ने उड़ाया था, लेकिन उनके निधन पर भारत के साथ न केवल पाकिस्तान बल्कि सोवियत संघ (Soviet Union) का झंडा भी झुक गया था और अयूब खान उस दिन दुनिया के गमगीन व्यक्तियों में एक थे.
साल 1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965 India-Pakistan War) लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल की अहम घटना थी, जिसमें उन्होंने सफलतापूर्वक भारत का नेतृत्व किया था. इस युद्ध की समाप्ति के चार दिन बाद जब वह दिल्ली (Delhi) के रामलीला मैदान (Ramleela Maidan) पर बोल रहे थे तो उनका आत्मविश्वास देखने लायक था. जिस आवाज का एक साल पहले अयूब खान ने मजाक उड़ाया था, वह तब हजारों लोगों के सामने दहाड़ रही थी.
उस समय शास्त्री ने कहा था, ‘अयूब साहब का इरादा अपने सैकड़ों टैंकों के साथ टहलते हुए दिल्ली पहुंचने का था. जब ऐसा इरादा हो तो हम भी थोड़ा लाहौर (Lahore) की तरफ टहलकर चले गए. मैं समझता हूं कि ऐसा करके हम लोगों ने कोई गलत बात तो नहीं की.’
लाल बहादुर शास्त्री से पहले जवाहर लाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) को देश की आवाज माना जाता था. पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त रहे शंकर वाजपेयी ने बताया था कि अयूब नेहरू के निधन के बाद दिल्ली सिर्फ इसलिए ही नहीं आए थे कि भारत में अब नेहरू के जाने के बाद वह किससे बात करेंगे. उस समय शास्त्री ने कहा था, ‘आप मत आइए, हम आ जाएंगे.’
तब शास्त्री गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भाग लेने काहिरा गए हुए थे और लौटते वक्त वह कुछ घंटों के लिए कराची में भी रुके. हालांकि तब तक भी अयूब खान, लाल बहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व को पूरी तरह से नहीं समझ पाए थे. उन्होंने भारत को कमजोर सोचना शुरू कर दिया था. लेकिन 1965 के युद्ध ने पाकिस्तान की इस सोच को कुचलकर रख दिया था.
युद्ध के दौर में शास्त्री की जीवटता का एक और उदाहरण तब मिला, तब उन्होंने अमेरिका (America) के आगे भी झुकने से मना कर दिया था. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन (Lyndon B. Johnson) ने भारत को इस युद्ध से पीछे हटने को कहा था. भारत तब गेहूं के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था. तब लाल गेंहू अमेरिका से निर्यात होता था और जॉनसन ने धमकी दी थी कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध नहीं रोका गया तो गेंहू भी भारत नही भेजा जाएगा. स्वाभिमानी शास्त्री को यह दिल में चुभी थी.
उन्होंने विदेशी मुल्क के आगे हाथ फैलाने से इनकार कर दिया और भारतवासियों से हफ्ते में एक समय भोजन नहीं करने का आह्वान किया था. लेकिन इससे पहले उन्होंने अपने घर में एक समय का खाना बनाने से मना किया था. जब उनके खुद के बच्चे एक समय भूखे रह पाए तो उन्होंने अगले दिन देशवासियों से इसका अनुसरण करने की अपील की थी.
उनके आदर्श इतने ऊंचे थे कि 1963 में कामराज योजना के तहत जब उनको नेहरू मंत्रिमंडल (Nehru Cabinet) से इस्तीफा देना पड़ा था, तब उन्होंने अपने घर पर बिजली जलाना बंद कर दिया था. सिर्फ जहां वह बैठे होते थे वहां पर लाइट जलती थी. वह सरकारी खर्चे से बिजली जलाना नहीं चाहते थे और पूरे घर की बिजली का खर्च उठाने की गुंजाइश उनके पास नहीं थी. इसलिए घर में बेहद सीमित जगह पर बिजली जलती थी.
ऐसा ही एक किस्सा ताशकंद सम्मेलन (Tashkent Conference) का है, जब लाल बहादुर शास्त्री सोवियत संघ गए थे. वह अपना खादी का ऊनी कोट पहनकर गए थे. तब सोवियत संघ के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोश्यिन ने उनको एक गर्म कोट भेंट किया था, लेकिन शास्त्री ने खुद वह कोट पहनने के बजाय अपने दल के उस साथी को दे दिया था, जिसके पास कोट नहीं था. कड़ाके की सर्दी में शास्त्री अपने साधारण ऊनी कोट में ही रहे थे.
11 जनवरी 1966 में ताशकंद समझौते पर साइन करने के कुछ ही घंटों बाद लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया था. आज भी यह समझौता उनके निधन के कारण अधिक याद किया जाता है. यह समझौता सोवियत संघ के पीएम की मौजूदगी में भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ था.
तब लाल बहादुर शास्त्री के साथ पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान भी मौजूद थे. शास्त्री के असमय निधन के समय उनके पार्थिव शरीर के पास पहुंचने वाले सबसे पहले शख्स में वह एक थे. अयूब खान ने शास्त्री के पार्थिव शरीर को देखकर कहा था, ‘यहां एक ऐसा शख्स लेटा हुआ है जो भारत और पाकिस्तान को साथ ला सकता था.’
जब शास्त्री के शव को भारत लाने के लिए ताशकंद हवाई अड्डे पर ले जाया जा रहा था तो रास्ते में हर सोवियत, भारतीय और पाकिस्तानी झंडा झुका हुआ था और शास्त्री के ताबूत को कंधा देने वालों में सोवियत प्रधानमंत्री के अलावा अयूब खां भी थे.
ऐसे उदाहरण कम है कि एक दिन पहले एक दूसरे के दुश्मन अगले ही दिन बिल्कुल अलग स्थिति में हों. शास्त्री के पार्थिव शरीर को कंधे पर ले जाते हुए अयूब खान अपने दुख का इजहार कर रहे थे. अपनी मौत के समय शास्त्री के पास भारत में न कोई पैसा था न ही कोई जमीन-जायदाद.
-भारत एक्सप्रेस
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