UP Politics: उत्तर प्रदेश में दलित समाज का वोट राज्य की सभी राजनीतिक दलों की किस्मत और सूबे में सत्ता किसके हाथ में रहेगी, इसको हमेशा से तय करता आया है. यूपी का दलित समाज अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक जागृत (पॉलिटिकलि अवेयर) समाज है, और ये अभी से नहीं बल्कि कांशीराम की मेहनत एवं उसके बाद चार बार BSP की आई सत्ता ने उसको राजनीतिक तौर पर ताकतवर बनाया, लेकिन अब BSP का वोटर दूसरे दलों की ओर रुख कर रहा है.
कहने को यूपी में 21 प्रतिशत दलित वोटर हैं, लेकिन ये 66 उपजातियों में बंटे हैं, जिसमें सबसे ज्यादा तादाद जाटव वोटरों के हैं. अगर सिर्फ दलित वोटरों की बात करें तो इनकी आबादी में 56 फीसदी सिर्फ जाटव वोटर हैं. पहले ये तबका बीएसपी के लिए एकजुट होकर वोट करता था, लेकिन पिछले कुछ चुनावों में जाटवों के साथ ये तमाम दलित जातियों के वोटिंग पैटर्न में बड़ा बदलाव आया है. ऐसे में BJP की जबरदस्त रणनीति की वजह से ये सब मुमकिन हुआ. इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस BSP को 2012 में राज्य में 26 फीसदी वोट मिले थे. उसे 2022 में करीब 12-13 फीसदी वोट से संतोष करना पड़ा. अब SP की नजर बीएसपी को बड़ा झटका देने का है.
मिशन 2024 को तैयार करने बैठे अखिलेश यादव ने ऐसा राजनीतिक दांव चला है जो BSP की नींद उड़ाने वाला साबित हो सकता है. ये दांव है दलित वोट बैंक को अपने पाले में करने का है. इसके लिए कोलकाता में हाल ही में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में फॉर्मूला तैयार हुआ था. इस बैठक में अखिलेश यादव ने कहा था कि सबने मिलकर ये फैसला लिया है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ जो गठबंधन दल हैं, उनसे मिलकर 80 की 80 सीटें भारतीय जनता पार्टी को हराने का काम करेंगी.
कोलकाता की बैठक में मैनपुरी मॉडल खूब चर्चा में रहा, क्योंकि जिस तरह से मैनपुरी में समाजवादी पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की उसमें अहम भूमिका दलित वोट बैंक की भी रही है. केवल मैनपुरी में ही नहीं, बल्कि खतौली में भी सपा गठबंधन को जो जीत मिली उसमें भी दलित खासतौर से जाटव समाज की भूमिका अहम रही.
अब 2024 लोकसभा चुनाव को लेकर समाजवादी पार्टी 50 सीटें जो जितने की बात कर रही है उसमें दलित वोट बैंक काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है. इसलिए पार्टी ने अपना फोकस दलित समाज से आने वाले दो वरिष्ठ नेताओं पर किया है. जिसमें एक हैं अवधेश प्रसाद जो अक्सर अखिलेश यादव के साथ दिखाई देते हैं. वो जाटव समाज से आते हैं. और दूसरे हैं केंद्र सरकार में मंत्री रहे रामजी लाल सुमन.
सपा ने ये तय किया है दोनों नेताओं को पार्टी के दलित नेताओं के तौर पर आगे रखा जाएगा. इसका ट्रेलर कोलकाता में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी में देखने को मिली. जहां दोनों नेता मंच पर दिखें. राष्ट्रीय कार्यकारिणी के मंच पर स्वामी प्रसाद मौर्या, लालजी वर्मा और रामअचल राजभर जैसे दिग्गजों के मुकाबले रामजी लाल सुमन और अवधेश प्रसाद को कहीं ज्यादा तरजीह दी गई. अब सपा की कोशिश है कि इन दो नेताओं के जरिए खासतौर से दलित समाज पर अपने साथ जोड़ा जाए.
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जो समाजवादी पार्टी कभी ‘M’ ‘Y’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण पर चुनावी रणनीति तैयार करती थी, अब उसके दलित वोट बैंक पर शिफ्ट होने के पीछे एक बड़ी वजह है. सपा को लग रहा है कि 2022 में जिस तरह से BSP का वोट प्रतिशत से घटकर 12 फीसदी के आस-पास रह गया है इसका फायदा वो 2024 में उठा सकती है. सपा को ये भी पता कि 2014 से लेकर 2022 तक BJP को जो जीत मिली है उसमें दलित वोट बैंक की अहम भूमिका है. वो इसलिए अब वो इस रणनीति पर काम कर रही है कि अगर उसने इसमें सेंधमारी कर ली तो शायद BJP के विजय रथ को रोकने में कामयाब हो जाएं.
-भारत एक्सप्रेस
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