चुनावी सभा हो या संसद सदन जब भी नेताओं के बोल बिगड़ते हैं तो सुर्ख़ियाँ बनते देर नहीं लगती. परंतु सोचने वाली बात यह है कि जहां एक ओर हमारे देश में राजनेताओं की एक जमात ऐसी थी जो नैतिकता का पालन करती थी. वहीं दूसरी ओर बीते कुछ वर्षों से राजनेताओं के बयानों में आपको अभद्रता के कई उदाहरण मिलेंगे. दल चाहे कोई भी हो नेताओं की ज़बान फिसलते देर नहीं लगती. फिर वो चाहे किसी पुरुष नेता का महिला के संदर्भ में दिया गया बयान हो, किस धर्म या जाती विशेष के लोगों के ख़िलाफ़ दिया गया बयान हो या किस महिला नेता का किसी आम आदमी को धमकाने वाला बयान हो. नेता अपनी कुर्सी की गर्मी और अहंकार के चलते सभी हदें पार कर देते हैं.
बीते कुछ दिनों में अलग-अलग दलों के नेताओं द्वारा जिस तरह की बयानबाज़ी देखने को मिली है उससे यह बात तो साफ़ है कि नेता सुर्ख़ियों में बने रहने के लिए किसी भी स्तर पर जा सकते हैं. ऐसे में देखना यह है कि राजनैतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व ऐसे बेलगाम नेताओं के ख़िलाफ़ क्या कार्यवाही करता है. यदि कोई भी दल इस बात की दुहाई दे कि वे महिला सम्मान के प्रति कटिबद्ध है और वहीं उसी के दल के नेता किसी जनसभा में किसी सड़क की तुलना विपक्षी दल की किसी महिला नेता के ‘गालों’ से करता है तो यह बात न सिर्फ़ निंदनीय होनी चाहिए बल्कि ऐसे नेता को उसके शीर्ष नेतृत्व से कड़ी फटकार और सज़ा भी मिलनी चाहिए जिससे कि अन्य नेताओं को सबक़ मिले. परंतु क्या ऐसा हुआ या ऐसा होता है? यदि इसका उत्तर ‘नहीं’ है तो यह बात स्पष्ट है कि ऐसे अनैतिक नेताओं को उनके शीर्ष नेतृत्व की पूरी हमदर्दी और आशीर्वाद प्राप्त है.
पिछले दिनों में जहां एक दल के नेता ने एक महिला नेता और एक महिला मुख्य मंत्री के लिये अभद्र भाषा का प्रयोग किया वहीं एक अन्य दल के नेता ने एक सभा में अपने क्षेत्र के वोटरों को ही दोषी ठहराया. इतना ही नहीं उनकी तुलना ‘वैश्या’ से भी कर डाली. उसी राज्य में एक अन्य दल के वरिष्ठ नेता ने भी अपने वोटरों को इस तरह धमकाया कि ये बयान भी सुर्ख़ियों में छा गया. इस वरिष्ठ नेता ने तो यहाँ तक कह डाला कि “सिर्फ इसलिए कि आपने वोट दिया इसका मतलब यह नहीं है कि आप मेरे मालिक हैं. क्या आपने मुझे अपना नौकर बना लिया है?” यह बात तो जग-ज़ाहिर है कि चुनावी दिनों में हर नेता अपने वोटरों के आगे-पीछे घूमते हैं. उन्हें रिझाने के लिए क्या-क्या नहीं करते. परंतु जैसे ही वे सत्ता में आते हैं तो अपना असली रंग दिखाने में पीछे नहीं हटते.
ऐसे में कबीर दास जी का यह दोहा याद आता है, ‘ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये. औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए..’ जो हमें बचपन से ही सिखाता आया है कि चाहे कुछ भी हो हमें ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को आनंदित करे. जहां मीठे वचन सुनने वालों को सुख देते हैं, वहीं हमारे मन को भी आनंदित करते हैं. परंतु क्या हमारे द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि इसका अनुसरण कर रहे हैं? या सत्ता के अहंकार में आपा खो रहे हैं.
एक समय था जब नेता अपने क्षेत्र की जनता को सर-आँखों पर बिठा कर रखते थे. उनकी हर छोटी-बड़ी समस्या का हल निकालने के लिए हर कदम उठाते थे. अपने क्षेत्र के वोटर के ख़ुशी और ग़म में भी परिवार की तरह ही शामिल हुआ करते थे. परंतु आजकल कुछ नेताओं को छोड़ कर ऐसे नेता आपको ढूँढे नहीं मिलेंगे. पुरानी पीढ़ी के नेता जिस सादगी से चुनाव के पहले रहते थे, चुनावों में जीतने के बाद भी वे उसी सादगी से ही नज़र आते थे. परंतु आजकल के नेता चुनावों में जितनी भी सादगी दिखाएं, चाहे चुनाव जीतने के बाद सादगी से रहने के जितने भी वादे क्यों न करें, चुनाव जीतते ही अपने किए वादो से मुकरने में क्षण भर भी नहीं लगाते. वे जनता को अपनी मुट्ठी में रखने का झूठा एहसास बनाए बाथ रहते हैं. बिना यह सोचे कि लोकतंत्र में जनता ही मालिक है नेता नहीं. यदि जनता ने मन बना लिया है कि वे झूठा वादा करने वाले नेता या दल को सत्ता में दोबारा नहीं लाएँगे तो नेता वोटर को लुभाने के लिए चाहे कुछ भी क्यों न करे नतीजा उनके ख़िलाफ़ ही जाएगा.
भारत जैसे देश के लिए कहा जाता है कि ‘चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर वाणी’ यानी हमारे देश में विविधताओं का होना प्राचीन युगों से चला आ रहा है. भारत में अनेक धर्मों, जातियों, विचारों, संस्कृतियों और मान्यताओं से सम्बन्धित विभिन्नताएँ हैं. किन्तु उनके मेल से एक खूबसूरत देश का जन्म हुआ है, जिसे हम भारत कहते हैं. भारत की ये विविधताएँ एकता में बदल गई हैं, जिसने इस देश को विश्व का एक सुन्दर और सबल राष्ट्र बना दिया है. शायद इसीलिए भारत के लिए कहा गया है कि ‘अनेकता में एकता: मेरे देश की विशेषता’. इसलिए हमें सभी धर्मों, विचारधाराओं और संस्कृतियों का सम्मान करना चाहिए.
हमारे द्वारा चुने गये नेता, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, चुनाव जीतते ही यदि अपनी असभ्यता का परिचय देने लग जाएँ और उनके दल द्वारा उन्हें किसी भी तरह दंड न दिया जाए. तो अगली बार जब भी ऐसे नेता जनता के सामने याचक बन कर आएँ तो वोटरों द्वारा ऐसे नेताओं का बहिष्कार कर उन्हें आईना ज़रूर दिखाया जाए. ऐसा करने से इन असभ्य नेताओं में एक मज़बूत संदेश जाएगा और वे ऐसी गलती करने से पहले कई बार सोचेंगे. तब शायद उन्हें कबीरदास जी का दोहा याद आएगा.
(लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के संपादक हैं.)
-भारत एक्सप्रेस
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