दिल्ली हाई कोर्ट ने एमिटी लॉ स्कूल से पूछा कि क्या वह लॉ स्टूडेंट सुशांत रोहिल्ला के परिवार को अनुग्रह राशि देगा, जिसकी 2016 में आत्महत्या कर ली गई थी. छात्र को कथित तौर पर उसे अपेक्षित उपस्थिति की कमी के कारण सेमेस्टर परीक्षाओं में बैठने से रोक दिया गया था.
न्यायमूर्ति प्रतिभा एम सिंह की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि वह दुर्भाग्यपूर्ण घटना के लिए किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहरा रही है, लेकिन संस्थान का कंधा इतना बड़ा होना चाहिए कि वह प्रणालीगत विफलता की जिम्मेदारी ले सके. उच्च शिक्षा में अनिवार्य उपस्थिति की आवश्यकता पर सवाल उठाते हुए, अदालत ने केंद्र से इस मुद्दे पर दो सप्ताह के भीतर हितधारकों के साथ परामर्श शुरू करने को भी कहा.
अदालत ने केंद्र सरकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से सभी शैक्षणिक संस्थानों को एक परिपत्र जारी करने को कहा जिसमें उन्हें दो सप्ताह में ‘शिकायत निवारण समिति’ गठित करने का अंतिम अवसर दिया जाए अन्यथा कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा.
एमिटी के तीसरे वर्ष के लॉ छात्र सुशांत रोहिल्ला ने 10 अगस्त, 2016 को अपने घर पर फांसी लगा ली थी, जब उनके कॉलेज ने कथित तौर पर अपेक्षित उपस्थिति की कमी के कारण उन्हें सेमेस्टर परीक्षाओं में बैठने से रोक दिया था. उन्होंने एक नोट छोड़ा था जिसमें कहा गया था कि वह असफल हैं और जीना नहीं चाहते हैं.
उच्च न्यायालय सितंबर 2016 में घटना के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शुरू की गई याचिका पर सुनवाई कर रहा था, लेकिन मार्च 2017 में इसे सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया था. एमिटी के वकील ने कहा कि कॉलेज प्रशासन की ओर से कोई गलती नहीं थी क्योंकि आत्महत्या पत्र में संस्थान में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया था.
हालांकि पीठ ने कहा कि अनुग्रह राशि का भुगतान कुछ मुद्दों को समाप्त कर देगा और कहा कि संस्थान को मृत्यु के तुरंत बाद इसकी घोषणा करनी चाहिए थी. पीठ ने कहा संस्थाओं को व्यापक सोच रखनी चाहिए. कोई भी यह नहीं कह रहा है कि इसके लिए कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार है. किसी भी कारण से व्यवस्थागत विफलता हुई है. यदि संस्था में व्यवस्थागत विफलता है, तो आपको जिम्मेदारी लेनी होगी. जिम्मेदारी लेने के लिए आपके कंधे काफी चौड़े होने चाहिए.
पीठ ने आदेश दिया एमिटी लॉ स्कूल के वकील को निर्देश मांगना चाहिए कि क्या प्रतिवादी मृतक छात्र के परिवार को अनुग्रह राशि देने के लिए तैयार है. पीठ ने कॉलेज के वकील को मृतक के माता-पिता को निशाना बनाकर कोई भी आरोप लगाने के खिलाफ चेतावनी दी, उन्होंने कहा कि वे पहले ही एक बच्चे को खो चुके हैं.
बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) के वकील ने कहा कि उनके मौजूदा नियमों के अनुसार लॉ कॉलेजों में न्यूनतम 70 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य है, लेकिन छात्रों पर दबाव और मानसिक स्वास्थ्य की चिंताओं को देखते हुए, वे मामले को ‘कानूनी शिक्षा समिति’ के समक्ष रखने के बाद, शैक्षणिक मानकों से समझौता किए बिना, मानदंड में बदलाव पर विचार-विमर्श करने के लिए तैयार हैं.
न्यायालय ने पूछा कि कितने महाविद्यालयों ने वास्तव में इस नियम का पालन किया, क्योंकि ऐसे कई लोग हैं जो नौकरी करते हुए कानून की पढ़ाई कर रहे हैं. न्यायमूर्ति सिंह ने कहा नियम बिल्कुल अवास्तविक है. यह सच नहीं है. इसका उल्लंघन सभी द्वारा किया जा रहा है. क्या हम वास्तविक वास्तविकता पर ध्यान नहीं दे सकते? यह सिर्फ कागजों पर है.
-भारत एक्सप्रेस
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