‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी’ लक्ष्मीबाई के व्यक्तित्व को साक्षात पाठकों के सामने रच देने का हौसला किसी ने दिखाया तो वो उस कवयित्री ने जिनका नाम था सुभद्रा कुमारी चौहान. इस रचनाकार की कलम ने ‘मनु’ की तलवार सरीखा काम किया. अपने जीवन में भी सुभद्रा ऐसी ही रहीं. उन्होंने लीक से हटकर काम किया और भारतवासियों के मानस पटल पर छा गईं.
16 अगस्त को उनकी जयंती है. सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के निहालपुर गांव में हुआ था. उनके पिता रामनाथ सिंह इलाहाबाद में ज़मींदार थे. उस दौर में भी पिता, सुभद्रा कुमारी की पढ़ाई को लेकर जागरूक थे. पिता का साथ मिला तो पूत के पांव पालने में दिखने लगे. प्रतिभा को नए पंख मिले और सुभद्रा ने नन्हीं सी उम्र में ही कविता वाचन शुरू कर दिया. सुभद्रा कुमारी चौहान की शुरुआती शिक्षा प्रयागराज के क्रॉस्थवेट गर्ल्स स्कूल से हुई, जहां वे मशहूर कवयित्री महादेवी वर्मा की सीनियर थीं और उनकी मित्र भी थीं तथा 1919 में उन्होंने मिडिल स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की.
सुभद्रा कुमारी चौहान की पहली कविता तब प्रकाशित हुई जब वह मात्र 9 साल की थीं. बालिका सुभद्रा ने एक नीम के पेड़ पर ही इसे रच डाला था. बाद के समय में तो उन्होंने बहुत कुछ ऐसा लिखा जो पीढ़ियों को गर्व की अनूभुति कराता है. उनकी लिखी तीन कहानी संग्रहों की भी खूब चर्चा होती है जिनमें बिखरे मोती, उन्मादिनी और सीधे साधे चित्र शामिल हैं. कविता संग्रह में मुकुल, त्रिधारा आदि शामिल हैं.
रचनाओं के साथ ही सुभद्रा ने अपने जीवन में भी साहस और मातृभूमि के प्रति समर्पण का भाव दिखाया. ओजस्वी कवयित्री ने आजादी के आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया. वह 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल हुईं. वह नागपुर में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला सत्याग्रही थीं और 1923 और 1942 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के कारण उन्हें दो बार जेल भी जाना पड़ा.
वीर रस की कालजयी रचना लिखने वाली रचयिता ने देश की तमाम महिलाओं के बीच जाकर स्वदेशी अपनाओ की अलख भी जगाई. उन्हें आजाद भारत के लिए लड़ने की सीख भी दी. गृहस्थी को संभालते हुए साहित्य और समाज की सेवा करती रहीं. सुभद्रा का विवाह मध्य प्रदेश के रहने वाले लक्ष्मण सिंह के साथ हुआ था. लक्ष्मण एक नाटककार थे. उन्होंने अपनी पत्नी सुभद्रा की प्रतिभा को बखूबी पहचाना और उन्हें आगे बढ़ाने में सदैव सहयोग दिया. दोनों ने मिलकर स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी.
15 फरवरी, 1948 को आजादी के बाद कांग्रेस के अधिवेशन से आते वक्त उनकी गाड़ी हादसे का शिकार हो गई. इस दुर्घटना में उनका निधन हो गया. और इस तरह भारत ने अपनी प्रखर रचनाकार को खो दिया. उस समय वो मात्र 44 साल की थीं. अपनी मृत्यु के बारे में अक्सर कहा करती थीं कि “मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना नहीं है . मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिस पर चारों ओर नित्य लोगों का मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियां गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे.”
-भारत एक्सप्रेस
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