मुद्दे की परख

बिहार में जातिगत जनगणना के आंकड़ों पर पीएम मोदी के दावे को मजबूत करती हैं ये तीन बातें

बिहार सरकार ने जातिगत गणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं जिसके बाद इसकी राष्ट्रीय स्तर पर गणना कराए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी है. इस मुद्दे पर पीएम नरेंद्र मोदी ने विपक्ष को घेरा और कहा कि इसके जरिए समाज को जाति के नाम पर विभाजित करने की कोशिश की जा रही है. पीएम मोदी ने कहा कि विपक्ष पहले भी समाज को जात-पात के नाम पर बांटने की कोशिश करता था और आज भी वही पाप कर रहा है.

बिहार सरकार द्वारा जारी किए इन आंकड़ों के मुताबिक राज्य की 63 फीसदी आबादी ओबीसी है, जिनमें अति पिछड़ी जाति की आबादी 36 फीसदी है. विपक्षी दल, खासकर कि कांग्रेस पार्टी मांग करती रही है कि मोदी सरकार को 2011-12 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) में जुटाए गए जातिगत डेटा को भी जारी करना चाहिए, जो पिछली यूपीए सरकार द्वारा कराए गए थे.

हालांकि, मोदी सरकार इस पक्ष में नहीं है और ऐसा न करने के पीछे डेटा क्वालिटी, सामाजिक सद्भाव व कानूनी पेंच का हवाला देती रही है. पीएम मोदी खुद विपक्ष पर समाज को बांटने की कोशिश करने का ‘पाप’ करने का आरोप लगा रहे हैं और बिहार के जाति जनगणना के आंकड़े जारी होने के बाद विरोधियों पर हमलावर हैं. पीएम मोदी ने दावा किया कि विपक्ष गरीबों की भावनाओं से खेलने और समाज को जात-पात के नाम पर बांटने में 6 दशक बर्बाद कर दिए.

जातिगत जनगणना पर पीएम मोदी क्यों सही हैं और इस वक्त जाति डेटा जारी करना देश के विकास और सामाजिक एकजुटता के लिए नुकसानदायक होगा. इसके पीछे मुख्यत: तीन बाते हैं.

जाति जनगणना मंडल राजनीति को पुनर्जीवित करेगी और जाति-आधारित आरक्षण की मांग बढ़ेगी

जातिगत डेटा जारी करने का एक मुख्य खतरा यह है कि यह मंडल राजनीति को पुनर्जीवित कर देगा जो 1980 के दशक के आखिर और 1990 के दशक की शुरुआत में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर हावी रही थी. 1979 में जनता पार्टी सरकार द्वारा गठित मंडल आयोग ने सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी. 1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा इस सिफारिश के कार्यान्वयन से देश भर में व्यापक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए और हिंसा भड़क उठी. इसको लेकर खासकर ऊंची जातियों के बीच नाराजगी थी और वे इससे आहत महसूस कर रहे थे.

जातिगत जनगणना के आंकड़ों के बाद जाति-आनुपातिक आरक्षण की मांग और जोर पकड़ लेगी, जिसका मतलब होगा जनसंख्या हिस्सेदारी के आधार पर ओबीसी और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए कोटा बढ़ाना. इससे ऊंची जातियों के लिए अवसर और कम हो जाएंगे और उनमें नाराजगी बढ़ेगी. इससे ओबीसी के भीतर भी विभाजन की स्थिति बन जाएगी, क्योंकि विभिन्न उपजातियां आरक्षण में हिस्सेदारी की मांग करने लगेंगी. इसके अलावा, इससे मेरिट आधारित सिस्टम कमज़ोर होगा और भारत में शासन एवं शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी.

जातिगत जनगणना से जाति की पहचान मजबूत होगी

जातिगत डेटा जारी करने का एक और नकारात्मक परिणाम यह है कि यह जाति की पहचान को मजबूत करेगा और भारत में सामाजिक गतिशीलता में बाधक बनेगा. जाति एक जटिल और पदानुक्रमित सिस्टम है जो लोगों को उनके जन्म और काम के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटता है. खासकर दलित और आदिवासियों जैसी निचली जातियों के लोगों के लिए यह सदियों से भेदभाव और उत्पीड़न का कारण भी रहा है. भारत के संविधान ने अस्पृश्यता को खत्म कर दिया और जाति के आधार पर भेदभाव पर रोक लगा दी, लेकिन जाति अभी भी भारतीय समाज में एक शक्तिशाली कारक बनी हुई है.

जातिगत जनगणना भारत में पहचान और अधिकार के आधार के रूप में जाति को वैधता प्रदान करेगी. यह लोगों को अपनी राष्ट्रीयता या पेशे के बजाय अपनी जाति के साथ पहचान को बढ़ावा देगी. यह लोगों को आरक्षण या कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए पिछड़ेपन का दावा करने या अपनी जाति की स्थिति को गलत बताने को भी बढ़ावा देगी.

जातिगत जनगणना विकास के एजेंडे से ध्यान भटकाएगी और समाज का ध्रुवीकरण होगा

जातिगत डेटा जारी करने का तीसरा नकारात्मक परिणाम यह है कि यह विकास के एजेंडे से ध्यान भटकाएगा और भारत में समाज का ध्रुवीकरण करेगा. 2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार अपने मुख्य मुद्दे के रूप में विकास पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है. सरकार ने आर्थिक विकास को बढ़ावा देने, रोजगार सृजन, बुनियादी ढांचे में सुधार, डिजिटल साक्षरता बढ़ाने, स्वच्छता को बढ़ावा देने, कौशल प्रदान करने के लिए मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, कौशल भारत आदि जैसी विभिन्न योजनाएं शुरू की हैं. साथ ही सरकार ने सांस्कृतिक विरासत और ऐतिहासिक उपलब्धियों पर जोर देकर भारतीयों के बीच राष्ट्रीय गौरव और एकता की भावना को बढ़ावा देने की कोशिश भी की है.

जातिगत जनगणना इन विकास लक्ष्यों से ध्यान भटकाएगी और जाति के आधार पर समाज में दरारें पैदा करेगी. यह विभिन्न जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देगी और उनके बीच दुश्मनी और हिंसा की स्थिति बन जाएगी. यह व्यापक हिंदुत्व की धारणा को भी कमजोर करेगी जो एक सामान्य धार्मिक पहचान के तहत विभिन्न जातियों के हिंदुओं को एकजुट करती है. यह मोदी के नए भारत के दृष्टिकोण को कमजोर कर देगा जो समावेशी, प्रगतिशील और समृद्ध है.

निष्कर्ष

इस तरह, कहा जा सकता है कि जाति जनगणना पर मोदी सही हैं और जातिगत डेटा जारी करना भारत के विकास और सामाजिक सद्भाव के लिए हानिकारक होगा. इस दावे के समर्थन में तीन मुख्य तर्क हैं- (1) जाति जनगणना मंडल राजनीति को पुनर्जीवित करेगी और जाति-आधारित आरक्षण को बढ़ावा देगी; (2) जातिगत जनगणना से जाति की पहचान मजबूत होगी और सामाजिक गतिशीलता बाधित होगी; और (3) जाति जनगणना विकास के एजेंडे से ध्यान भटकाएगी और समाज का ध्रुवीकरण करेगी. ऐसे में भारत को जाति से आगे बढ़कर सफलता हासिल करने और समाज में पहचान बनाने के मानदंड के रूप में योग्यता, प्रदर्शन और क्षमता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

(मूल लेख का हिंदी अनुवाद)

-भारत एक्सप्रेस

उपेन्द्र राय, सीएमडी / एडिटर-इन-चीफ, भारत एक्सप्रेस

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