नया साल जोर-शोर से नई उम्मीदें लेकर आता है तो नई चुनौतियां भी दबे पांव साथ चली आती हैं। लेकिन इस बार का नया साल थोड़ा अलग है। इसमें उम्मीदों का जोर है, तो चुनौतियों का शोर भी है। खासकर देश की सियासत के लिए तो इस साल के मायने किसी संग्राम से कम नहीं हैं।
अगले 12 महीनों में नौ राज्यों में चुनाव होने हैं – शुरुआत मेघालय, त्रिपुरा और नागालैंड से होगी जहां फरवरी में मतदान होगा। फिर मई में कर्नाटक और नवंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिजोरम, तेलंगाना और राजस्थान। साल 2024 में लोकसभा चुनाव होने हैं और उससे महज एक साल पहले इतने राज्यों में चंद महीनों के अंतराल पर चुनावी भिड़ंत को फाइनल से पहले का सेमीफाइनल कहा जा रहा है। हालांकि तथ्य बताते हैं कि इस बात में कोई दम नहीं है। 2018 में विधानसभा चुनावों में जिन राज्यों ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल किया, उन्हीं राज्यों ने अगले ही साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बंपर जनादेश की जयमाला पहना दी।
कर्नाटक से शुरू करें, तो 224 विधानसभा सीटों वाले राज्य में 104 सीटों के साथ बीजेपी जैसे-तैसे सत्ता में आई, लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यहां सबका पत्ता साफ करते हुए 28 में से 25 सीटें जीत लीं। राजस्थान में बीजेपी को 200 में से सिर्फ 73 सीटें मिली थीं, लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में सरकार चला रही कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस में कड़ी टक्कर दिखी और दोनों दलों के वोट प्रतिशत में आधे फीसदी का भी अंतर नहीं था, लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 29 में से 28 सीटें जीतकर कांग्रेस के पैरों तले से जमीन खिसका दी। वहीं, छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का बुरा हाल करने वाली कांग्रेस लोकसभा चुनाव में केवल एक सीट पर सिमट गई। यहां तक कि जिन राज्यों में एक साथ विधानसभा और लोकसभा चुनाव हुए, वहां भी जनादेश अलग-अलग रहा, जैसा कि ओडिशा में। इसलिए पहली बात तो यही हुई कि 2023 के चुनाव राज्यों के लिए बेशक फाइनल हैं, लेकिन इन्हें केन्द्र के लिए सेमीफाइनल बताना समझदारी नहीं है। हां ये जरूर कहा जा सकता है कि इन राज्यों के नतीजों से हमें लोकसभा चुनाव के लिए मतदाताओं के रुझान का कुछ अंदाजा हो सकता है।
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के नतीजों पर भी ये बात लागू होती है जहां बीजेपी और कांग्रेस जीत के मामले में 1-1 से बराबर रही हैं। हालांकि सच ये भी है कि कांग्रेस ने हिमाचल बीजेपी से हथियाया है, जहां वो गुजरात की तरह लड़ाई से पहले ही हथियार डालने की जगह आखिरी समय तक मैदान में डटी दिखी। तो दूसरी बात यह देखने को मिली कि देश की जनता जीत की चाहत से मेहनत करने वाले को इनाम जरूर देती है और इस क्षेत्र में मोदी-शाह के राज वाली बीजेपी का कोई सानी नहीं है। पांच दिसंबर की तारीख याद कीजिए। गुजरात विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण के लिए मतदान चल रहा था। तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहां थे? बीजेपी के शीर्ष नेताओं और राज्यों के पदाधिकारियों की दो-दिवसीय बैठक के लिए अहमदाबाद से दिल्ली की उड़ान भर रहे थे। बैठक का एजेंडा क्या था – 2023 में राज्यों के चुनावों की तैयारी। लगातार एक महीने के चुनावी अभियान, 39 रैलियां, 134 विधानसभा तक सीधी पहुंच और प्रचार के आखिरी दिन 50 किलोमीटर लंबे रोड-शो के बाद आराम में वक्त बिताने के बजाय जिस पार्टी के शीर्ष नेता अगले इम्तिहान की व्यूह रचना में जुट जाएं तो नतीजों में ऐसी तैयारी का दमखम क्यों नहीं दिखेगा? गुजरात की तैयारी बीजेपी ने कब शुरू की थी? 2022 की शुरुआत में उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के अगले दिन से। इसलिए बीजेपी पर मशीनरी के गलत इस्तेमाल, चुनाव आयोग के पक्षपात, ईडी-सीबीआई का दबाव, ईवीएम से छेड़छाड़ के तमाम आरोप लगा लीजिए, लेकिन इस सच्चाई को कैसे खारिज करेंगे कि बीजेपी चुनावों को किसी भी दूसरे दल की तुलना में कहीं ज्यादा गंभीरता से लेती है। वहीं तीसरी बात यह है कि बीजेपी इस साल होने जा रहे 9 राज्यों के चुनाव जीतने में भी कोर-कसर नहीं छोड़ेगी।
इन चुनावों में बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत क्या होगी? निश्चित ही प्रधानमंत्री मोदी। आठ वर्षों के मोदी राज का एक प्रमुख पहलू बीजेपी का राजनीतिक सशक्तिकरण भी रहा है। मोदी ने बीजेपी को सिर्फ चुनाव में जीत ही नहीं दिलाई है, पार्टी के विस्तार और उसकी विश्वसनीयता को भी आसमानी ऊंचाई देने का काम किया है। भारतीय राजनीति में ये एक तरह का क्रांतिकारी बदलाव भी है जिसमें एक तरफ बीजेपी का बढ़ता प्रभुत्व और दूसरी तरफ उसके कारण कांग्रेस का पराभव दिखता है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में बीजेपी ने मई 2014 में सिर्फ 6 राज्यों से अपना सफर शुरू कर 2022 में 16 राज्यों तक अपना विस्तार कर लिया है। ये भी दिलचस्प संयोग है कि कभी समूचे देश पर राज करने वाली कांग्रेस अब 2014 में बीजेपी वाली स्थिति में पहुंच गई है – वो छह राज्यों में सरकार का हिस्सा है, अपने दम पर तो उसकी सत्ता सिर्फ तीन राज्यों में सिमट गई है। मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की उपलब्धियां गौर करने लायक हैं। 2014 के बाद से बीजेपी राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में एक बार नहीं, बल्कि लगातार दो बार सत्ता हासिल करने में कामयाब रही है। पिछले 8 वर्षों में बीजेपी ने लगभग पूरे पूर्वोत्तर को जीत लिया है जहां 2014 से पहले उसका कोई खास वजूद नहीं था। 16 राज्यों में सत्ता के शीर्ष पर रहकर बीजेपी देश की 49.3 फीसदी आबादी पर प्रत्यक्ष रूप से शासन कर रही है। ये आंकड़ा करीब 70 करोड़ लोगों का है यानी आधा हिन्दुस्तान।
मोदी इतनी बड़ी आबादी को अपने व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से आकर्षित करते हैं। गरीबों के लिए वे उनके अधिकारों के चैंपियन हैं तो मध्यम वर्ग के लिए एक विकासोन्मुख दूरदर्शी नेता हैं। युवाओं के लिए एक ऐसे राजनेता हैं जो भारत को एक विश्व शक्ति बनाने का सपना साकार कर रहे हैं तो महिलाओं के लिए परिवार के ऐसे मुखिया हैं जो केवल उनकी समस्या का निदान ही नहीं, उनके आत्मसम्मान की भी चिंता करते हैं। आवास, शौचालय, उज्ज्वला, राशन, किसान कल्याण, प्रत्यक्ष बैंक हस्तांतरण से जुड़ी मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाएं, एक शक्तिशाली संगठनात्मक तंत्र और प्रचुर संसाधनों ने कुछ अपवादों के साथ वर्तमान चुनावी राजनीति में बीजेपी को लगभग अजेय बना दिया है। ये सिलसिला 2023 में भी जारी रह सकता है और 2024 में तो इसके और मजबूत होने के आसार हैं। आर्थिक मोर्चे पर देश की उपलब्धियां इस विचार को फलीभूत करने की जमीन भी तैयार कर रहीं हैं। आज भारत विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और इस दशक के अंत तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है। वैश्विक महंगाई के बीच जनता को राहत पहुंचाने की मोदी सरकार की नीतियों के आशाजनक परिणाम भी अब सामने आने लगे हैं। तो चौथी बात यह रही कि राष्ट्रवाद की लोकप्रिय विचारधारा के साथ ही आर्थिक विकास के प्रधानमंत्री के सच होते वादे और खुद प्रधानमंत्री की करिश्माई छवि के कारण मतदाताओं के बीच बीजेपी की स्वीकार्यता के और बढ़ने की अभी भी पर्याप्त गुंजाइश है।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ एकतरफा ही है। कुछ मुद्दे हैं जो मोदी और बीजेपी को परेशान कर सकते हैं। तमाम प्रयासों के बावजूद बेरोजगारी का उच्चतम स्तर अभी भी केन्द्र सरकार के लिए चुनौती बना हुआ है। महंगाई से भी अभी पूरी तरह राहत नहीं है। किसान एक बार फिर अपनी अधूरी मांगों को लेकर एकजुट हो रहे हैं। 2023 में किसान आंदोलन जैसे किसी बड़े सामाजिक आंदोलन की संभावना बरकरार है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को लेकर बीजेपी कितनी भी बेपरवाही दिखा ले, लेकिन ये बात माननी पड़ेगी कि इस यात्रा ने निर्जीव पड़ी कांग्रेस में नए प्राण फूंके हैं। कांग्रेस और विपक्ष इससे तैयार माहौल को कितना अपने पक्ष में कर पाते हैं, इसके संकेत भी इस साल मिलने लगेंगे। बीजेपी की तरह राज्य के चुनाव कांग्रेस के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। जिन राज्यों में इस साल चुनाव होंगे उनमें तेलंगाना को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में कांग्रेस की बीजेपी से सीधी टक्कर है। जाहिर है इस टक्कर में मिली जीत से उसके कार्यकर्ताओं में विश्वास पैदा होगा और वह विपक्ष में नेतृत्व की भूमिका में भी आ जाएगी। अध्यक्ष पद पर गैर-गांधी का चुनाव भी कांग्रेस के लिए फायदेमंद होता दिख रहा है। ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और केसीआर जैसे नेताओं को छोड़ दिया जाए तो शरद पवार, नीतीश कुमार और दक्षिणी राज्यों का लगभग समूचा नेतृत्व अभी से कांग्रेस के पक्ष में लामबंद होता दिख रहा है। इस लिहाज से विपक्षी राजनीति में 2023 का घटनाक्रम 2024 का रुख तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। वहीं पांचवीं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अमूमन हर पांच साल में लोकतंत्र के सबसे बड़े इम्तिहान में बीजेपी भले अभी मजबूत दिख रही है, लेकिन जोरदार घमासान के लिए चुनौती की जमीन भी तैयार हो रही है।
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