1990 के दशक तक ग्रामीण भारत में एक कहावत सबसे ज्यादा प्रसिद्ध थी कि जितने ज्यादा हाथ उतनी ज्यादा कमाई। इस कहावत की सच्चाई ये थी कि उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू होने से पहले भारत में मानव संसाधनों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता था और इसके एवज में कामगारों को तनख्वाह मिलती थी। मतलब एक परिवार में अगर कई व्यस्क होते, तो उस दौर में उस परिवार की अच्छी-खासी आय होती। लेकिन समय बदला तो हालात भी बदल गए, मानव श्रम की जगह मशीनों ने ले ली और भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में रोजगार और जनसंख्या का संतुलन बिगड़ गया। यही वजह भी है कि भारत में जनसंख्या नियंत्रण का लक्ष्य तय होने लगा। हालांकि संसाधनों की उपलब्धता और उसके उपयोग में संतुलन के लिए ये जरूरी भी है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि संतुलन बनाया नहीं जा सकता।
दुनिया की आबादी आज 8 अरब पार कर गई है। विश्व जनसंख्या संभावना रिपोर्ट (डब्ल्यू.पी.पी.) की मानें तो भारत भी 2023 में आबादी के मामले में चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का नंबर वन देश होने जा रहा है। इन खबरों के बीच सबसे बड़ी खबर यह है कि दुनिया के बाजार विशेषज्ञ न सिर्फ वर्तमान दशक को भारत का दशक बता रहे हैं बल्कि कह रहे हैं कि आने वाले दस साल तक दुनिया के किसी भी देश के मुकाबले भारत की विकास दर सबसे तेज रहने वाली है।
भारत ने अगर बढ़ती जनसंख्या और विकास दर के बीच संतुलन बना लिया तो भारतीय अर्थव्यवस्था कुलांचे मारता दिखेगा। यूएन की इस रिपोर्ट ने भी दुनिया का ध्यान खींचा है कि बीते 14 सालों में भारत के 41.5 करोड़ लोग गरीबी के चंगुल से बाहर निकले हैं। इतना ही नहीं कोविड काल समेत बीते सिर्फ 6 सालों में 14 करोड़ लोगों ने भारत में गरीबी को टाटा-बाय-बाय कहा है।
हालांकि गरीबी खत्म करने के नजरिए से इस बड़ी उपलब्धि के बावजूद भारत के लिए यह चिंताजनक पहलू है कि दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब आज भी यहीं रहते हैं और इनकी संख्या 22.89 करोड़ है। गरीबों का दूसरा सबसे बड़ा पनाहगार देश नाइजीरिया है जहां भारत के मुकाबले आधे से कम 9.67 करोड़ गरीब हैं।
भारत के लिए संभावित तेज आर्थिक वृद्धि के लिहाज से यह संतोष की बात है कि भारत में जनसंख्या वृद्धि दर 1 प्रतिशत वार्षिक से कम हुई है और वैश्विक जनसंख्या वृद्धि दर भी 1950 के बाद पहली बार 1 प्रतिशत वार्षिक से कम के स्तर पर आई है। भारत में जहां 1950 के दशक में फर्टिलिटी रेट 5.2 थी, वहीं अब यह 2.1 से भी कम हो गई है।
दुनिया इस गुत्थी को समझने में जुटी है कि आखिर भारत में ऐसा क्या हुआ है कि यह निवेशकों का प्रिय बनता जा रहा है। वैश्विक महामारी से पहले जिस भारत के विकास की दर नोटबंदी के साये में लुढ़कती हुई 4 फीसदी से कम के स्तर पर जा पहुंची थी, वहीं महामारी के बाद भारत के विकास का पहिया दुनिया में सबसे तेज गति से आगे बढ़ता दिख रहा है।
दरअसल चीन में आर्थिक विकास का पहिया किसी दलदल में फंस गया लगता है जहां से गाड़ी आगे नहीं बढ़ पा रही है। चीन अब भी कोविड की चपेट में है। आर्थिक गतिविधियां सामान्य नहीं हो सकी हैं। जीरो कोविड की पॉलिसी के कारण निवेशकों ने मुंह पीछे मोड़ लिया है। चीन की 19 फीसदी बुजुर्ग आबादी बोझ बन गई है। वहीं युवा आबादी भी काम छिन जाने की वजह से लाचार दिख रही है।
केवल 2022 के उत्तरार्ध में 7 अरब डॉलर का निवेश चीन से निकल चुका है। इस वजह से टेक्नोलॉजी के टाइकून भी संकट में आ गए हैं। यूक्रेन संकट के कारण भी चीन की अर्थव्यवस्था को नुकसान उठाना पड़ा है। चीन का प्रॉपर्टी बाजार एक साल में 20 प्रतिशत धड़ाम हो चुका है। 16 से 24 साल के लाखों युवाओं की नौकरी चली गई है। लेकिन भारत की तरह चीन की सरकार का कोई प्रभावी दखल सामने नहीं आया है।
निस्संदेह महामारी से भारत भी अछूता नहीं रहा। लेकिन, सच यह भी है कि महामारी ने भारत को दुनिया के दफ्तर में बदल डाला। वर्क फ्रॉम होम और वर्क फ्रॉम इंडिया दोनों वैश्विक कंपनियों को पसंद आया। तकनीकी रूप से सक्षम मेहनती भारतीय श्रम बल ने दुनिया में सुस्त पड़ी ग्लोबल कंपनियों को सक्रिय रखा। बढ़ती बेरोजगारी के दौरान भी भारत में रोजगार से जुड़े 43 लाख लोगों की संख्या बढ़कर 51 लाख हो गई। इस दशक के अंत तक यह संख्या 1.1 करोड़ होने का अनुमान है। मार्गन स्टेनली के मुताबिक आउटसोर्सिंग पर वैश्विक खर्च 180 अरब डॉलर से बढ़कर 2030 तक 500 अरब डॉलर पहुंच जा सकता है।
भारत जिस तरीके से अपनी अर्थव्यवस्था को डिजिटाइज करने में सफल हुआ है उसे देखते हुए अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत की इकॉनोमी जल्द ही प्रीपेड इकॉनोमी से पोस्ट पेड इकॉनोमी में तब्दील हो जाएगी। भारत की ऊर्जा खपत और ऊर्जा के स्रोत दोनों में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। विकास के नजरिए से यह महत्वपूर्ण बदलाव है।
अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के देशों में आर्थिक मंदी के कारण वैश्विक पूंजी का प्रवाह भारत की ओर हुआ है। हालांकि इस इकलौते कारण को मान लेना बहुत सही नहीं है लेकिन तब भी यह उपलब्धि भारत के लिए अपने आप में बड़ी है कि वैश्विक बाजार पूंजीकरण में भारत के इक्विटी बाजार का योगदान पहली बार 4 प्रतिशत से ज्यादा हुआ है। 2021 में यह 2.3 प्रतिशत था।
वैश्विक बाजार पूंजीकरण स्वयं नवंबर 2021 में 54 लाख करोड़ के स्तर पर था। यह 14 लाख करोड़ गिरकर 40 लाख करोड़ के स्तर पर आ चुका है। वैश्विक बाजार पूंजीकरण में अमेरिका की हिस्सेदारी 44 फीसदी है जबकि चीन की 10.2 फीसदी है। जापान की हिस्सेदारी 5.4 फीसदी और हांगकांग की हिस्सेदारी 5 प्रतिशत है। मॉर्गन स्टेनली का अनुमान है कि भारत का शेयर बाजार 2032 तक दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार होगा।
कुछ समय पहले तक कमजोर होते रुपये की चर्चा हो रही थी। मगर अक्टूबर-नवंबर में उतार-चढ़ाव के बीच रुपया अब स्थिर होता दिख रहा है। रुपये में 2.2 फीसदी की मजबूती आई है। पहली बार एक दिन में रुपये को 100 पैसे मजबूत होते भी देखा गया। आरबीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि लिक्विडिटी की स्थिति सामान्य हो रही है और अब भी यह सरप्लस है। कॉमर्शियल बैंकों की उधारी बढ़ी है और सेवा, पर्सनल लोन तथा उद्योग एवं कृषि ऋण की मांग में भी इजाफा हुआ है। शुद्ध एनपीए घटकर कुल परिसंपत्ति के 1 फीसदी के स्तर पर आ गया है।
मुद्रास्फीति की दर अक्टूबर में तीन महीने के निचले स्तर 6.77 फीसदी पर आ गई। भारत की प्रति व्यक्ति आय 2031 तक 5,242 डॉलर हो सकती है जो अभी 2278 डॉलर है। बैंक से लोन लेने वालों की संख्या बढ़ी है। कृषि और उद्योग के हालात भी पहले से बेहतर हुए हैं।
मॉर्गन स्टेनली ने दोहराया है कि अगले 10 साल तक भारत की विकास दर दुनिया में सबसे अधिक रहेगी। वैश्विक विकास वृद्धि दर में भारत की हिस्सेदारी 20 फीसदी तक हो सकती है। हर साल 400 अरब डॉलर के हिसाब से भारतीय इकॉनोमी का आकार बढ़ने का अनुमान है। 2031 तक भारत की इकॉनोमी 7.5 ट्रिलियन डॉलर हो सकती है।
अगर भारत को अपने आर्थिक विकास की दर को आगे बढ़ाना है तो उसे नियंत्रित होती जनसंख्या के बीच बुजुर्गों की बढ़ती आबादी का भी ध्यान रखना होगा। वास्तव में यह चुनौती रहेगी। 2022 में 65 साल से अधिक उम्र के बुजुर्ग दुनिया में 10 प्रतिशत हैं और 2050 तक इसके 16 प्रतिशत होने का अनुमान है। वहीं, भारत के लिए चिंताजनक पहलू यह है कि भारत में 2050 तक 60 साल से अधिक आयु वाले बुजुर्गों की आबादी 30 करोड़ पार कर जाएगी।
भारत अगर जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित कर लेता है तो विकास के पहिए को तेज रफ्तार पकड़ने से कोई नहीं रोक सकेगा। युवा और बुजुर्ग आबादी के बीच समन्वय और उपलब्ध श्रमशक्ति के कौशल का उपयोग ही वास्तव में विकास की प्रमुख शर्त बनी रहने वाली है। इस मामले में भारत चीन से बेहतर स्थिति में है। जाहिर है भारत के आर्थिक विकास की असली कहानी युवा ही लिख रहे हैं और आगे भी यही इस विकास की गाड़ी को तेज रफ्तार देंगे।
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