क्या कर्नाटक में बीजेपी 38 साल पुराना रिवाज बदल पाएगी या चुनावी तवे पर सत्ता की रोटी बार-बार बदलने की रीत को दोहरा कर कांग्रेस फिर कुर्सी पर काबिज हो जाएगी? पूरी तस्वीर तो 13 मई को ही साफ हो पाएगी लेकिन इतना तय है कि इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक होगा। वैसे मौजूदा पूरा साल ही देश की चुनावी राजनीति के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस साल राज्यों में हो रहे चुनाव ये बताएंगे कि 2024 की जंग को लेकर लोग किस तरह का मन बना रहे हैं। हालांकि उत्तर-पूर्व से इसकी शुरुआत हो चुकी है लेकिन छोटे राज्य और राष्ट्रीय दलों की अपेक्षाकृत कम स्वीकार्यता के कारण उन्हें किसी तरह का संकेतक मान लेना नादानी ही होगी। इस लिहाज से भी कर्नाटक महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि बड़ा राज्य होने के साथ ही यहां देश के दो प्रमुख दल बीजेपी और कांग्रेस का मुकाबला होगा। चुनाव में अभी करीब छह हफ्ते का समय बचा है और जेडीएस की उपस्थिति के कारण फिलहाल लड़ाई त्रिकोणीय ही लग रही है, लेकिन नफे-नुकसान को देखते हुए बड़ा दांव दोनों राष्ट्रीय दलों का ही रहेगा।
कर्नाटक के चुनावी इतिहास में बीजेपी पहली बार मुख्यमंत्री पद के किसी चेहरे के बिना चुनाव में उतर रही है। इसे प्रथम दृष्टया बीजेपी की स्वीकारोक्ति समझा जा सकता है कि लड़ाई आसान नहीं है। बीएस येदियुरप्पा 80 के दशक से पार्टी के चेहरे हुआ करते थे लेकिन वो अब चुनावी राजनीति से संन्यास ले चुके हैं। राज्य में उनके जैसे कद और लोकप्रियता वाले किसी दूसरे नेता की कमी के कारण प्रधानमंत्री मोदी ही बीजेपी का चेहरा रहेंगे। कर्नाटक एक तरह से उनका भी इम्तिहान होगा। राज्य सरकार के खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी और भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष भी उन पर संसद से लेकर सड़क तक हमलावर है। इन सबके जवाब में मोदी ने डबल इंजन सरकार के फायदे को ढाल बनाया हुआ है। अगर कर्नाटक में पकड़ कमजोर होती है तो एक तरफ राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का हमला तेज होगा, वहीं दूसरी तरफ तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे दक्षिणी राज्यों में विस्तार की लगातार चल रही तमाम कोशिशें फिर शून्य पर पहुंच सकती हैं।
दूसरी ओर महाराष्ट्र और पंजाब जैसे महत्वपूर्ण राज्य गंवाने के बाद कांग्रेस को कर्नाटक जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य में जीत की गंध मिल रही है। राज्य से आ रही खबरों और तमाम ओपिनियन पोल के अनुमान उसके हौसले बढ़ा रहे हैं। कांग्रेस के नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे कर्नाटक से ही आते हैं। इसके बावजूद पार्टी का चेहरा जाहिर तौर पर राहुल गांधी ही हैं जिनकी भारत जोड़ो यात्रा में कर्नाटक में अच्छी-खासी भीड़ उमड़ी थी। कर्नाटक का नतीजा एक तरह से राहुल गांधी के साथ हाल ही में जुड़े विवादों पर भी जनादेश होगा। मोदी-अडाणी विवाद और संसद सदस्यता गंवाने के बाद कांग्रेस की बैठक में प्रियंका गांधी का वो बयान काफी चर्चा में है कि कानून की अदालत में चाहे जो फैसला हो, लेकिन जनता की अदालत में कांग्रेस को इसका जवाब कर्नाटक जीत कर देना होगा। इससे भी ये बात पता चलती है कि कांग्रेस भी समझ रही है कि अगर कर्नाटक के नतीजे उसकी अपेक्षा के अनुसार नहीं आए तो उसकी अगुवाई में लामबंद हो रहे विपक्ष की एकता बुलबुला बन कर रह जाएगी। यह संयुक्त विपक्ष की मुहिम के लिए बड़ा झटका होगा और एक बार फिर ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव और केसीआर जैसे नेता तीसरे मोर्चे की कवायद में जुट जाएंगे। साथ ही राहुल गांधी को लेकर बन रहे विश्वास पर फिर बड़ा सवाल बन जाएगा। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा ने कर्नाटक में काफी दिन गुजारे थे। इसलिए चुनावी नतीजों से यात्रा की प्रमाणिकता और इसके अगले प्रस्तावित चरण की प्रासंगिकता, दोनों सवालों के घेरे में आ जाएंगे। शायद इस कारण से ही लंबे समय बाद ये देखा गया है कि चाहे उम्मीदवारों के नाम की घोषणा हो या चुनावी वादे हो, कांग्रेस चुनावी तैयारियों में अपने प्रतिद्वंदियों से आगे चल रही है। कांग्रेस को उम्मीद है कि गृहलक्ष्मी योजना के तहत हर गृहिणी को हर महीने दो हजार रुपए यानी सालाना 24 हजार रुपए की आर्थिक मदद, बेरोजगार युवाओं को 3 हजार रुपए का मासिक भत्ता, प्रत्येक परिवार को 200 यूनिट मुफ्त बिजली जैसे उसके वादे ट्रंप कार्ड साबित होंगे।
लेकिन बीजेपी हो या कांग्रेस या फिर जेडीएस, सभी को पता है कि भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और अन्य कई स्थानीय मुद्दों के बावजूद आखिर में कर्नाटक की चुनावी लड़ाई लिंगायत फैक्टर पर ही आकर टिकेगी। पिछले कई चुनाव इस बात के प्रमाण हैं कि लिंगायत समुदाय जिसकी तरफ मुड़ जाता है सत्ता की चाबी उसी के पास चली जाती है। तकरीबन 18 फीसद हिस्सेदारी रखने वाले लिंगायत समुदाय का कर्नाटक की 224 में से 110 यानी आधी विधानसभा सीटों पर सीधा असर है। लिंगायत समुदाय से येदियुरप्पा और बसवराज बोम्मई समेत 9 नेता कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी संभाल चुके हैं। येदियुरप्पा की मौजूदगी के कारण ही कर्नाटक की चुनावी राजनीति में लिंगायत समुदाय का यह दबदबा अतीत में बीजेपी के काफी काम आता रहा है लेकिन येदियुरप्पा को जिस तरह चुनावी राजनीति से रिटायर किया गया उसे लेकर इस बार लिंगायत समुदाय में नाराजगी दिख रही थी। हालांकि राज्य में मुस्लिम समुदाय को मिल रहे चार प्रतिशत आरक्षण को खत्म कर इसे लिंगायत और कर्नाटक के दूसरे प्रमुख समुदाय वोक्कालिगा के हिस्से में डाल कर बीजेपी ने एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है।
तू डाल-डाल, मैं पात-पात की तर्ज पर कांग्रेस ने भी दोनों समुदाय के बीच अपनी पैठ बनाई है। राहुल गांधी ने मुरूगा मठ के महंत से लिंगायत संप्रदाय की दीक्षा लेकर लिंगायत समुदाय की कांग्रेस से तीन दशक पुरानी नाराजगी को काफी हद तक कम कर दिया है। 1990 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने राज्य में दंगे के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री और प्रमुख लिंगायत नेता वीरेंद्र पाटिल को जिस तरह एयरपोर्ट पर बर्खास्त किया था, उससे लिंगायत समुदाय कांग्रेस से दूर चले गए थे।
जहां तक वोक्कालिगा समुदाय की बात है तो यह कर्नाटक का दूसरा प्रमुख समुदाय है और राज्य की आबादी में इसकी 12 से 14 फीसद के बीच हिस्सेदारी है। कर्नाटक के ओल्ड मैसूर इलाके में वोक्कालिगा समुदाय की बहुलता है और एचड़ी देवेगौड़ा के वोक्कालिगा होने के कारण ये क्षेत्र जेडीएस का गढ़ रहा है। दक्षिण कर्नाटक के हासन, मांड्या, तुमकुल, कोलार और चिकमंगलूर समेत राज्य की करीब 90 सीटों पर वोक्कालिगा समुदाय का वोट निर्णायक माना जाता है और यही ताकत जेडीएस को कर्नाटक की राजनीति में किंगमेकर बनाती रही है। लेकिन देवेगौड़ा की सीमित सक्रियता और उनके बेटे एचडी कुमारास्वामी की कमजोर होती राजनीतिक पकड़ इस बार कांग्रेस के लिए फायदेमंद हो सकती है क्योंकि कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री पद के सशक्त दावेदार डीके शिवकुमार भी वोक्कालिगा समुदाय से ही है।
लेकिन कांग्रेस के तरकश में एक ऐसा तीर है जो शायद इस बार की लड़ाई में गेमचेंजर साबित हो सकता है। ये तीर है दलित कार्ड। राज्य की आबादी में सबसे बड़ा हिस्सा दलितों का है और मल्लिकार्जुन खरगे इसी समाज से आते हैं। कर्नाटक की 36 सीटें अनुसूचित जाति और 15 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। पिछले कुछ चुनावों से इन 51 सीटों पर दलित और आदिवासी बीजेपी के लिए वोट करते रहे हैं। लेकिन हाल के दिनों में कर्नाटक में कई दलित नेता अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस में वापस लौटे हैं। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में भी दलितों की बड़ी हिस्सेदारी दिखी थी। दलितों का समर्थन हासिल करने में खरगे का गृह प्रदेश होना भी कांग्रेस के लिए सोने पर सुहागा साबित हो सकता है। कर्नाटक में पिछले दो दशकों से 35 से 40 फीसद का वोट प्रतिशत कांग्रेस के लिए लक्ष्मणरेखा बना हुआ है। लेकिन अकेले दम पर बहुमत का जादुई आंकड़ा पाने के लिए कांग्रेस को इस रेखा को पार करना होगा और दलित वोटर इस मामले में उसका बेड़ा पार लगा सकते हैं।
बहरहाल ये सब अभी कयास ही हैं और कयास शायद इसलिए भी ज्यादा लगाए जा रहे हैं क्योंकि राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को इस बात का आभास है कि कर्नाटक का चुनाव 2024 की सियासत के ऊंट की करवट को लेकर कोई निश्चित संकेत दे सकता है। इसलिए इस चुनाव पर उन लोगों और राजनीतिक दलों की भी नजर है जिनकी इसमें कोई सीधी भागीदारी नहीं है। कर्नाटक के नतीजे ही इस सियासी धुंध को साफ करेंगे।
-भारत एक्सप्रेस
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