पश्चिमी देश और खासकर यूरोप पिछले कुछ दिनों से फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुएल मैक्रों की एक ‘गुगली’ में उलझा हुआ है। ये गुगली दरअसल मैक्रों का एक बयान है जिसके एक-दो नहीं बल्कि कई मतलब निकल रहे हैं। हाल ही में चीन के दौरे पर गए मैक्रों ने एक इंटरव्यू में कह दिया कि यूरोप को संयुक्त राज्य अमेरिका पर अपनी निर्भरता कम करनी चाहिए और बेवजह ताइवान को लेकर चीन और अमेरिका के बीच टकराव में उलझने से बचना चाहिए। ‘नीम चढ़ा करेला’ बना है इस बयान का अगला हिस्सा जिसमें मैक्रों ने समूचे यूरोप को मशविरा दिया है कि उसे अमेरिका के एजेंडे का पिछलग्गू बनने के बजाय अपनी रणनीतिक स्वायत्तता कायम करने के बारे में सोचना चाहिए।
अब इस बयान को लेकर हर पक्ष अपने हिसाब से मतलब निकाल रहा है। कोई इसे अमेरिका के खेमे में सेंध बता रहा है तो कोई इसे फ्रांस के चीन के पाले में जाने की दृष्टि से देख रहा है। कई विश्लेषक इसे रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद दो खेमों में बंटी दुनिया के बीच यूरोप की विश्व संतुलन को प्रभावित करने वाली तीसरी शक्ति बनने की कवायद बता रहा है तो कुछ इसे यूरोप के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरने की मैक्रों की महत्वाकांक्षा भी बता रहे हैं।
ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि अमेरिका और चीन ने इस बयान को किस तरह लिया है। जाहिर तौर पर चीन की बांछें खिली हुईं हैं और उसने मैक्रों के बयान की आड़ में अमेरिका को आड़े हाथ लेते हुए कहा है कि कुछ देश अन्य देशों को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नहीं देखना चाहते हैं, और इसके बजाय हमेशा अन्य देशों को उनकी इच्छा का पालन करने के लिए मजबूर करना चाहते हैं। लेकिन व्हाइट हाउस ने बाइडेन प्रशासन को फ्रांस के साथ शानदार द्विपक्षीय संबंधों में सहज और आश्वस्त बताते हुए चीन की टिप्पणी को कोई खास तवज्जो नहीं दी है। हालांकि अमेरिकी सीनेटर रुबियो ने संकेत दिया कि यदि यूरोपीय संघ ताइवान को अपनी समस्या के रूप में नहीं देखता है, तो यूक्रेन के लिए अमेरिका भी ये नीति अपना सकता है। मैक्रों के बयान का एक विश्लेषण ये भी हो सकता है कि ताइवान पर बढ़ते तनाव के लिए फ्रांस अमेरिका को भी चीन जितना दोषी ठहराता है। अब देखने वाली बात ये होगी कि मैक्रों के इस बयान के बाद यूरोपीय संघ के लिए ताइवान के मामले पर चीन के खिलाफ एक सख्त लाइन लेना कितना मुश्किल होता है?
लेकिन मैक्रों की टिप्पणियों से पैदा हुए विवाद का मतलब यह नहीं है कि वे पूरी तरह गलत ही हैं। यूरोपीय संघ के अधिकांश नेता अमेरिका से स्वतंत्रता बनाए रखने, चीन के साथ संबंध बनाने और ताइवान वास्तव में उनकी समस्या नहीं है – की सोच से सहमति रखते हैं। लेकिन रूस के खिलाफ लड़ाई में यूक्रेन के समर्थन में अमेरिका की निर्णायक भूमिका को देखते हुए कई लोगों को लगता है कि मैक्रों ने गलत समय पर सही बात कर दी है। इस समय यूक्रेन युद्ध अपने दूसरे वर्ष में प्रवेश कर गया है, अमेरिका नए चुनावों की ओर बढ़ रहा है और शीत युद्ध के बाद उस पर यूरोप की निर्भरता कभी भी इतनी स्पष्ट नहीं रही है – खासकर हथियार और ऊर्जा के मामले में। पौलेंड के प्रधानमंत्री माटुस्ज़ मोराविकी तो अमेरिका को यूरोप की सुरक्षा की नींव तक बता चुके हैं। जाहिर तौर पर उनका इशारा यूरोप की दहलीज पर चल रहे रूस-यूक्रेन संघर्ष को लेकर है जहां हर दिन युद्ध की एक नई आशंका के साथ शुरू होता है जिसमें सुरक्षा के लिए यूरोपीय संघ अमेरिका पर पपहले से भी ज्यादा निर्भर है।
बेशक यूक्रेन युद्ध में कम योगदान के लिए फ्रांस की भूमिका अक्सर सवालों में घिरती रही है, लेकिन यूरोप के ज्यादातर अन्य देश भी अमेरिका को लेकर सहज नहीं हैं। जर्मन चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़ की यूक्रेन में लेपर्ड टैंक भेजने की हिचकिचाहट को यूरोप की सोच से जोड़कर देखा गया है। पोलैंड जैसे कुछ देशों को छोड़ दिया जाए तो यूरोप में आम दृष्टिकोण यह है कि यूक्रेन युद्ध का असल फायदा तो अमेरिकी सैन्य उद्योग ने उठाया है, वरना यूरोप के हाथ तो भारी आर्थिक गिरावट ही लगी है। रूस से गैस, कोयले और तेल की आपूर्ति जो हमेशा यूरोप की लाइफलाइन हुआ करती थी वो अमेरिका के दबाव में लगे प्रतिबंधों के कारण पिछले एक साल में दम तोड़ चुकी है। यूरोप में कई लोगों का मानना है कि यूक्रेन में युद्ध को माध्यम बनाकर अमेरिका इस क्षेत्र में अपनी प्रासंगिकता को पुनर्जीवित करने की कोशिशों में जुटा हुआ है। अचानक कई अमेरिकी सैन्य ठिकाने – जो पहले बेकार पड़े थे – अब सक्रिय हो गए हैं। अमेरिका विरोधी भावनाओं के बढ़ने का एक अन्य कारण व्यापार युद्ध है जिससे यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान का अंदेशा है।
ऐसे में मैक्रों के बयान ने यूरोप के भविष्य के सवाल को फिर केन्द्र में ला दिया है जहां उसके सामने दो राहों में से एक चुनने के विकल्प है। या तो यूरोप यथास्थिति बनाए रखते हुए रक्षा और ऊर्जा की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अमेरिका की बढ़ती मांगों और प्रभुत्व के अधीन बना रहे। ऐसी स्थिति में उसे दो-ध्रुवीय दुनिया के दूसरे केन्द्र चीन के साथ संभावित आर्थिक लाभ से हाथ धोना पड़ेगा और रूस के साथ हर वक्त एक खतरनाक टकराव के लिए तैयार रहना होगा। दूसरा रास्ता ये हो सकता है जिसकी सलाह मैक्रों ने दी है – विश्व की तीसरी महाशक्ति के रूप में यूरोपीय संघ स्वायत्त होकर अपनी समस्याओं को खुद सुलझाए और अपनी ताकत का विस्तार अपनी आवश्यकताओं के लिए करे। लेकिन ये कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही मुश्किल है। ब्रेक्सिट के बावजूद यूरोप भले ही आर्थिक शक्ति बना हुआ हो, लेकिन हकीकत यही है कि समूचे यूरोपीय संघ के भीतर शांति सुरक्षित करने या अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर एक सम्मानित शक्ति के रूप में वो अपना प्रभाव डालने में असमर्थ रहा है। यही वो खतरनाक बिंदू है जो आर्थिक और ऊर्जा संकट के मारे यूरोप में चीन को अपनी पैठ बनाने का मौका दे सकता है। चीन का लक्ष्य यूरोपीय संघ को संयुक्त राज्य अमेरिका से दूर करना है ताकि चीन के प्रति अधिक व्यापक ट्रान्स-अटलांटिक नीति के गठन को रोका जा सके। यूरोपीय बाजार कोविड के बाद अस्त-व्यस्त हुई उसकी अर्थव्यवस्था के लिए भी संजीवनी साबित हो सकता है। 6 अप्रैल को अपने ट्वीट में मैक्रों ने लिखा था कि उन्हें विश्वास है कि शांति निर्माण में चीन बड़ी भूमिका निभा सकता है। बेशक इसमें मैक्रों का मंतव्य ताइवान के साथ-साथ रूस पर अपने प्रभाव का उपयोग कर यूक्रेन में युद्ध रोकने का भी रहा होगा, लेकिन क्या चीन पर मैक्रों के इस विश्वास में यूरोप के लिए भी कोई उम्मीद है?
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